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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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''नहीं अम्मा,'' कली हँसी, ''आज अपनी दफ्तरी दावत खाने जा रही हूँ।'' स्वर को उसने जान-बूझकर ही अवरोह पर खींच लिया, जिसे मोटर की टंकी का पट उठाये उसे ठीक करने को झुका गम्भीर चालक भी सुन ले। ''न जाने आज खाने को क्या-क्या मिले अम्मा-डाँट-फटकार और धमकी। बड़े साहब से बिना पूछे ही इतनी लम्बी छुट्टी लेकर इधर-उधर घूमने का फल चखने जा रही हूँ।''
जया एक बार तीखी दृष्टि से उसे देखकर भीतर चली गयी थी। दामोदर की निर्लज्ज मुग्ध दृष्टि का चाबुक सड़ासड़ कली की अधनंगी पीठ पर पड़ने लगा था। नवीन उस पेशेवर सुन्दरी मॉडल की छवि को देख खुला मुँह बन्द करना भी भूल गया। अपनी दिन-भर पहनी गयी सिलवट पड़ी साड़ी की जरीदार कन्नी को हाथ से ही ठीक करती अम्मा की पुत्री माया बनावटी हँसी की अभ्यर्थना बिखेरती उसकी ओर बढ़ आयी।
''अम्मा तो दिन-रात आपका ही बखान करती रहती हैं-बड़ी इच्छा थी आपसे मिलने की!'' पर सुन्दर चेहरे की बनावटी हँसी स्वयं ही उसके कथन का स्पष्ट खण्डन
कर रही थी, यह शायद अम्मा की अभिनय कला में एकदम फूहड़ छोटी बेटी नहीं समझ पायी।
''मैं जिस दिन गयी, उस दिन आप शायद कहीं चली गयी थी। अभी तो दफ्तर जा रही हूँ, लौटते ही आपसे मिलने आऊँगी।'' कनखियों से कली ने दम्भी चालक की पीठ को देख लिया। अभी भी टंकी में मूँड़ी घुसाये न जाने क्या कर रहा था-क्या एक बार भी नहीं देखेगा अभागा?

क्या अकड़ में तने कन्धे थे, और धूप का चश्मा लगाये पूरा इतालवी टूरिस्ट लग रहा था पट्ठा!
कली पैर की चप्पल का फ़ीता ठीक करने झुकी ही थी कि परिचित मांसल कण्ठ-स्वर की खनक से थमक गयी।
पटाक् से गाड़ी का बड़ी देर से नठा ढक्कन बन्द हुआ।
''मुझे घोष से मिलने जाना है अम्मा, खाना वहीं खा लूँगा। चार बजे गाड़ी लौटा लाऊँगा, तब तुम्हें अलीपुर ले चलूँगा।''
कली के साथ ही साथ गाड़ी भी गेट से बाहर निकली।
कली ने जान-बूझकर ही 'अरे' कहकर चलती गाड़ी का रास्ता काटकर अपने साथ ही उसे भी रोक लिया।
न चाहने पर भी अप्रत्याशित ब्रेक के झटके के साथ चालक ने पहिये के नीचे जान-बूझकर ही आ गयी दुस्साहसी सुन्दरी कली की हँसती आँखों को देख लिया। बिना कुछ कहे ही प्रवीर ने धीमी गति से गाड़ी फिर बढ़ा ली। कैटरपिलर की चाल से रेंगती गाड़ी के साथ-साथ नपे-तुले क़दम रखती कली भी हँसती चालक की खिड़की के पास खड़ी हो गयी।
''एक्सक्यूज मी,'' वह बोली तो प्रवीर का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा।
क्या खिलवाड़ कर रही है यह छोकरी! पीछे अम्मा खड़ी हैं, दामोटर हैं, नवीन, जया हैं-क्यों वह बार-बार जान-बूझकर उसकी चलती गाड़ी के सम्प्रुख चतुर हड़ताली कर्मचरिा की भाँति धरना दे रही है?
''आपने उस दिन पूछा था ना, कि हम शायद कहीं मिले हैं।'' गाल के आकर्षक गढ़ों की गहराई में अब शक्ति के गर्व में झूमता मस्त से मस्त जंगली हाथी भी धोखे में फँसकर डूब सकता था।
''ठीक कहा था आपने। आपको तो नहीं, पर आपके इस ट्वीड कोट को देखकर मुझे भी यह बहुत पहचाना-सा लग रहा है। लगता है, जैसे बड़ी देर तक किसी अलमारी में लटका देखा है।''
इस बार की हँसी, वह हँसी थी, जिसे दर्पण के सम्मुख किसी ओजस्वी नेता के भाषण की ही भाँति बारम्बार आवृत्ति कर कली ने चमकाकर कण्ठस्थ किया था।

प्रवीर ने फिर वही उदासीन दृष्टि अपनी स्टियरिंग ह्वील पर बाँध ली और धीमे
से चतुर चालक की दक्षता से गाड़ी एक ओर निकाल तेजी से धूल उड़ाता चला गया।

कली मुसकराकर चलने लगी। उसका अनुमान ठीक था। इस व्यक्ति को इसकी अभद्रता का समुचित दण्ड देना ही होगा। अपने छोटे-से जीवन में उसने असंख्य पुरुष देख लिये थे और आज तक क्या एक भी ऐसा परिचित पुरुष था, जो उसके सौन्दर्य-स्तवन के लिए दोहरा न हो गया हो? 'काँमन कर्टिसी' का भी तो एक महत्त्व होता है। देख रहा है कि वह पैदल चली जा रही है, पर फिर भी झूठे मुँह से भी क्या एक बार लिफ्ट देने का भद्र पुरुषोचित प्रस्ताव नही रख सकता था? ऐसी नम्र मिटभाषी अम्मा का पुत्र ऐसा रूखा कैसे जन्मा?

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