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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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उस दिन कली दफ्तर पहुँची तो मि. शेखरन बहुत अच्छे मूड में थे।
शायद कली के द्वीपिचर्मपरिधान-सी पीली काली साड़ी की प्रशंसा ही नंगी बनकर उनकी सुधातुरा दृष्टि में स्पष्ट हो उठी। इतने दिनों तक यह लड़की नहीं थी तो लगता था दफ्तर की रौनक ही चली गयी थी।
''बहुत लम्बी छुट्टी ले ली मिस मजूमदार, क्या बीमार पड़ गयी थीं?''
''जी हां,'' कली ने क्षण-भर में उत्फुल्ल चेहरे पर अपनी अपूर्व अभिनय कला की तूलिका फिराकर प्लान बना लिया। ''ज़बरदस्त फ्लू हो गया था सर, अभी भी एकदम ठीक नहीं हो पायी। फिर भी आज चली आयी। सोचा, कहीं आप यह न समझ बैठें कि मैं बहाना बना रही हूँ।''
''नहीं-नहीं, भला मैं ऐसा क्यों सोचने लगा? आज तक क्या कभी आपने एक दिन की भी छुट्टी ली थी? यू नीडेड ए चेंज! पर इधर आपके लिए बहुत-सा काम आ गया है।'' वाचाल शेखरन की दृष्टि आकर्षक ग्रीवा को बाँधकर झूलते बघनखे पर निबद्ध हो गयी थी, यह कली ने देख लिया।
एक अजीब घुटन उसका गला घोंटने लगी। इस व्यक्ति ने दफ्तर के अन्व कई कर्मचारियों की भाँति कभी उससे खुलकर प्रणय-निवेदन किया होता तो शायद कली को उसकी उपस्थिति में ऐसी घुटन नहीं होती। पर कुछ न कहकर भी उसके एक-एक अंग को अपनी प्रखर दृष्टि के अदृश्य तेज से झुलसाकर रख देनेवाले उस साँवले युवक-से दीखते कपटी प्रौढ़ के सम्मुख वह छुईमुई बनकर सिकुड़ जाती।
शेखरन कम्पनी के जिस उच्च सिंहासन पर आरूढ़ थे, उस गद्दी पर अन्य कोई भारतीय अफ़सर कभी नहीं बैठा था। उस विलक्षण व्यवसायपटु मस्तिष्क को स्वयं कम्पनी के प्रभु निकोलसन साहब आन्ध्रप्रदेश से ढूँढ़कर लाये थे। मि. शेखरन आई. सी. एस. थे, पर विवाहिता सुन्दरी पत्नी की जीवनावस्था में ही उन्होंने एक अन्य सुलोचना से विवाह कर लिया था। उस प्रेम का उन्हें बहुत बड़ा मूल्य चुकाना पड़ा। किंग एडवर्ड की ही भाँति उच्च नौकरी का राजसिंहासन त्याग कर वे विदेश चले गये थे। वहीं उनका परिचय निकोलसन साहब से हुआ और उस हकिायों-से काले युवक के चेहरे पर चमकती दो बुद्धिदीत आँखों के आकर्षण ने उन्हें बाँध लिया। तब से मि. शेखरन उसी कुरसी पर जमे थे।
उनके दफ्तर में एकमात्र कली ही रिसेप्शनिस्ट नहीं थी। अँगरेज़ों-से उजले रंग और कंजी आँखों वाली कान्वेण्ट-शिक्षिता सुन्दरी पर्वत-कन्या मिस जोशी, उर्वशी-सी नृत्यप्रवीणा रंग-रस का जाल बुनती उड़ीसा की मिस पटनायक, जो रिसेप्शनिस्ट बनने से पूर्व देश-विदेश में जाकर अपने अपूर्व कुचिपुडी नृत्य से लक्ष-लक्ष विदेशी हृदय रिझाकर मुट्ठी में बन्द कर लौटी थी और तीसरी मिस डटा, जो आकाश की उड़ान से क्लान्त होकर स्वेच्छा से गगनचारिणी एयरहोस्टेस का पद त्याग धरा पर उतर आयी थी। पर फिर भी विशेष काम पड़ने पर कली की पुकार मचती। अन्य तीनों सुर-सुन्दरियों में इसी बात को लेकर आये-दिन नारी सुलभ ईर्ष्याग्रि की चिनगारियाँ चिटकती रहतीं, पर फिर भी मिस्टर शेखरन को लेकर कली का नाम खुलेआम लपेटने का दुस्साहस किसी का भी नहीं होता था। होता भी कैसे? आज तक कभी किसी ने दोनों को एकान्त में घूमते भी तो नहीं देखा था।

''हमारे कुछ विदेशी अतिथि आये हैं,'' शेखरन ने दोनों हाथ बाँधकर मेज पर कुहनियाँ टेक लीं, ''अतिथि क्या, अतिथियों के लड़के हैं, साधारण स्तर के अतिथि होते, तो जोशी या पटनायक को सौंप देता, पर चारों छोकरे ऐसे पिताओं के पुत्र हैं जिनका हमारी कम्पनी के लिए बहुत बड़ा महत्त्व है। जब-जब स्वदेश के लिए फ़ॉरेन एक्सचेंज अर्न करने का प्रश्न उठता है, तो मैं सदा तुम्हें याद करता हूँ यह तो शायद अब तक तुम जान ही गयी होगी।'' अपनी अप्रतिम संगिनी के मुखमण्डल पर दृष्टिपात कर शेखरन ने काक-भंगिमा में ग्रीवा टेढ़ी कर ली।
प्रभु के मुखमण्डल पर असन्दिग्ध रूप से अंकित प्रणय-सुधा को पढ़कर प्रर्शासेका ने आँखें झुका लीं।
''यस सर,'' उसने आँचल सामने खींचकर बघनखा ढक लिया। घड़ी के पेण्डुलम-से हिलते पेण्डेण्ट से भूखे व्याघ्र की दृष्टि क्रमशः पीछे उतर उसकी पूरी रीढ़ की हड्डी को सुरसुरा गयी।
''उन चार उद्धत छोकरों को बस तुम्हीं सँभाल सकती हो। विदेश में पता नहीं किस सिरफिरे अधकचरे योगी से योग की दीक्षा लेकर आये हैं। साथ में एक छोकरी भी है। मैंने तो उसे भी पहले लड़का ही समझा। बनारस और काठमाण्डू जाना चाहते हैं। तुम मिस्टर ट्रकनयन को लेकर दोनों जगह जा चुकी हो, इन्हें भी समेटकर परसों ही चल दो।''
''ओह, फिर लम्बे दौरे!'' मन-ही-मन कली सिहर उठी।
''बस, एक ही बात के लिए तुम्हें वार्न करना चाहता था,'' मिस्टर शेखरन गम्भीर स्वर में फुसफुसाने लगे, ''इन हिप्पीज का आजकल कुछ ठीक-ठिकाना नहीं रहता।

समझेंग-बूझेंग कुछ नहीं, भाँग, चरस, गाँजे के दम लगाकर 'ओम्' 'ओम्' डकारा और बन गये योगी। कहीं तुम्हें भी कुछ लत न लगा तें, समझीं, जरा सावधान रहना। सुना है, ऐसी ही गोलियाँ जेब में लिये घूमते-फिरते हैं कि एक बार खिला दे, तो बस फिर मुँह से लगी नहीं छूटती। यानी अपनी दुम कटी तो सवकी दुम साफ़ कर दी।''
फिर अपनी रसिकता से स्वयं प्रसन्न होकर शेखरन थोड़ी देर तक हँसते रहे।
''आप निश्चिन्त रहें सर, तब मैं चलूँ?'' वह उठ गयी। शेखरन एक क्षण तक कुछ नहीं कह पाये। एक ही नारी में विधाता ने कितनी नारियों का विविध रूप भरकर रख दिया है। उसमें कभी किसी रानी की-सी तेजोमय गरिमा हे, तो कभी दीन-सेविका का अनुरागपूर्ण सेविका-भाव। कभी वह लावण्यमयी श्रेठ श्रृंगार से अपने को श्रृंगारित कर सम्मोहन-कौशल को पराकाष्ठा प्रस्तुत कर उठती है और कभी स्कर्ट-ब्लाउज़ में स्कूल की बालिका-सी बनकर दफ्तर चली आती है।

''तुम्हारा एयर पैसेज बुक हो जायेगा। मिस मजूमदार, पूरा एक महीना तुम्हें बाहर रहना होगा। इस बीच कम्पनी का रुपया तुम अपने हाथ का मैल समझती रहना'', मि. शेखरन ने कुछ क्षणों की चुप्पी स्वयं ही तोड़ी।
''यस सर, आपकी मुझ पर सदा बड़ी कृपा रही है।'' वह बाहर चली आयी और क्षण-भर थमकर ललाट का पसीना पोंछने लगी।
बाप-रे-बाप! कहेगा कुछ नहीं, पर आंखो-ही-आंखों में उसके सारे परिधान उतारकर रख देगा!

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