''हैलो कली,'' पटनायक ने उसे हाथ पकड़कर जाफरी के एक कोने
में खींच लिया।
''फँस गयी ना जाल में! मुझे पता ही नहीं लगा कि तू लौट
आयी है। नहीं तो मैं पहले ही आगाह कर देती। हम तीनों को
बारी-बारी से यह मायावी दल सौंपा गया था। पर जिस होटल
में ये पाँच पाण्डव अपनी द्रौपदी को लेकर टिके थे, वह
मेरे जीजा का है। पी-पिलाकर पहले ही दिन छोकरो ने ऐसा
ऊधम मचाया कि मि. शेखरन रातों-रात अपने यहाँ ले आये।
मीरा को तो एकदम मौल ही कर दिया था भूखे शेरों ने, योगी
से नहीं, किसी पहुँचे भोगी से दीक्षा लेकर आये हैं
ससुरे! इसी से तो हम तीनों ने मना कर दिया। हम
रिसेप्शनिस्ट अवश्य हैं, पर ऐसे रिसेप्शन का हमें अभ्यास
नहीं है। 'वी ऑल कम फ्रॉम गुड फ़ैमिलीज। 'समझ क्या लिया
है इस शेखरन ने।''
''मेरी चिन्ता मत कर वासवी,'' कली ने बटुआ खोलकर छोटे
दर्पण में प्लान पड़ गयी लिपस्टिक की धूमिल रेखा को
सँवारा और चलने लगी। ''मैं अपनी देख-भाल खूब अच्छी तरह
कर सकती हूँ। मुझे मौल करने वाला व्यक्ति शायद अभी जन्मा
नहीं है।'' कली ने बटुआ खटाक से बन्द किया, सहयोगिनी के
कन्धे पर हल्की-सी आश्वासनपूर्ण थपकी दी और बाहर चली
गयी।
मिस पटनायक सिर से पैर तक सुलग गयी। कली को वह फूटी
आँखों नहीं देख सकती थी। कितनी ही बार पहले भी उसने उसकी
ओर मैत्रीपूर्ण हाथ बढ़ाया था, पर हर बार वह उसे ऐसे ही
नीचा दिखाकर लिपस्टिक सँवारती चली गयी थी। ठीक है,
भुगतेगी स्वयं। उसका कर्त्तव्य था, उसने आगाह कर दिया!
''समझाये समझे नहीं धक्का दे दे और।''
कली घर लौटी तो द्वार पर ही अम्मा खड़ी थीं।
''कितनी ही बार तेरे दरवाजे को देख गयी। तेरा ताला मरा
जब देखो लटका ही रहता है।''
''क्यों घबरा रही हो अम्मा,'' कली ने आगे बढ़कर बड़े लाड़
से दोनों बांहें अम्मा के गले में डाल दीं, ''परसों से
यह ताला फिर पूरे एक महीने के लिए लटका रहेगा।''
''क्यों, फिर कहीं जा रही है क्या?''
''इस बार तो सचमुच ही उड़ी जा रही हूँ अम्मा, पहले नेपाल
फिर बनारस।''
सरला अम्मा की आँखें चमक उठीं। ''नेपाल जा रही है तू?
कैसी भागवान् है री! यहाँ बरसों हो गये झींकते, प्रवीर
के बाबूजी से कै दफ़े कह चुकी हूँ-पशुपतिनाथ के दरशन करा
दो।''
''चलो ना मेरे साथ, परसों ही दरशन करा दूँ तुम्हें।''
''पहले भीतर आ। आज तेरी पसन्द के करेले बनाये हैं। सुबह
से लिये बैठी हूँ,'' अम्मा उसे भीतर खींच ले गयीं। पहले
कुछ झिझक से कली आगे बढ़ी, पर गृह की जनहीन शून्यता के
आह्वान से वह दूसरे ही क्षण आश्वस्त होकर बड़े धड़ल्ले से
डग भरती अम्मा के पीछे चल दी और चौके में पहुँचते ही
पीढ़ा खींचकर बैठ गयी।
''अरे आज क्या घर से सबको निकाल दिया, अम्मा?'' हँसकर
कली ने दामी साड़ी घुटनों के बीच दबा ली।
''अरी, उठ, न जाने कैसी लड़की है, सौ-डेढ़ सौ की साड़ी
पहनकर फचाक से बिना धुले पटले पर ही बैठ गयी। जा, उठकर
खाने के कमरे में बैठ, मैं पराँठे गर्म कर लाती हूँ।''
''अरे छोड़ो भी अम्मा, यहाँ मारे भूख के आँतें कुलबुला
रही हैं। अब पेट में ही पराँठे गरम होंगे। लाओ
इधर।''अम्मा के हाथ से कटोरदान छीनकर कली ने करेले
पराँठों में भींचकर रौल बना लिया और अपने सारे अदब-क़ायदे
भूलकर गपागप खाने लगी। वह भूल ही गयी थी कि वह आज सुबह
खाली एक प्याला चाय पीकर ही घर से निकल पड़ी थी।
शेखरन की भूखी दृष्टि उसके पुष्ट सौन्दर्य को ही देख
पायी, लेकिन किसी ने उसकी भूखी आत्मा को कभी नहीं देखा।
क्या कभी भी कोई उसके अन्तर की व्यथा
को नहीं जान पाएगा? कोई मुग्ध दृष्टि से उसकी बड़ी-बड़ी
आँखों को ही देखता रहता है, कोई निर्लज्ज दृटि का अदृश्य
भाला उसके सुडौल वक्ष के आरपार भेदकर उसकी बैकलेस चोली
के बन्धन शिथिल कर देता है। जितने ही लोलुप पुरुष, उतनी
ही विचित्र विभिन्न दृष्टियाँ! पर क्या आज तक एक भी
दृष्टि में उसे सच्चे निश्छल स्नेह की ऐसी झलक मिल सकी
है?
तवा रखकर अम्मा उससे कटोरदान छीनकर पराँठे गरम करने लगीं
तो कली की आँखें छलछला उठीं। उसकी ओर पीठ किये अम्मा
स्वयं ही कहने लगीं, ''आज सब अलीपुर गये थे। वहीं
पाण्डेजी ने बड़े आग्रह से सबको रोक लिया। जया, माया
उन्हीं की लड़कियों के साथ खेल-पढ़कर बड़ी हुई हैं, बड़ा
स्नेह करते हैं बेचारे! कहने लगे, पहाड़ की दो-तीन
शादियों की मूवी बनायी है, वही दिखाएँगे। मैं तेरे
बाबूजी के साथ घर चली आयी। बच्चे रात का खाना वहीं
खा-पीकर लौटेंगे। इसी से तो अपने दोनों के लिए दूध गुँथे
आटे के पराँठे-करेले बनाकर रख लिये थे। कैसे बने हैं री
करेले, तूने तो कुछ कहा भी नहीं!''
''वाह, बढ़िया चीज़ खाने के बीच कुछ कहा जा सकता है भला!''
कली ने चटखारे लेकर नींबू के अचार की फाँक मुँह में धर
ली। ''खानेवाला चुपचाप खाये चला जाये, तो समझ लो अम्मा,
चीज़ ऐसी-वैसी नहीं बनी है। वह तो अच्छी न बनी हो तभी
खानेवाला उसे बातों के लच्छेदार जायके से स्वादिष्ट
बनाता है।''
''बस, बातें करना तो कोई तुझसे सीखे!''
''नहीं अम्मा, बोते नहीं बना रही हूँ। सच, पता नहीं क्या
जादू है तुम्हारे हाथ में, ऐसे करेलों की जन्मजात कड़वाहट
भी दूर कर देती हो-मुझे लग रहा है सब करेले शायद मैं ही
खा गयी। देखूँ तुम्हारे लिए कुछ बचा या नहीं?''
उचककर पथरौटे में झाँकती कली को अम्मा ने स्नेह से दूर
धकेल दिया। ''परे हो, कहीं छू मत देना।''
''क्यों अम्मा,'' कली का मुँह उतर गया। ''क्या कोई
किरिस्तान हूँ मैं?''
''नहीं-नहीं बिटिया, तू भला क्यों किरिस्तान होने लगी।
पर मैं तो जया, माया का छुआ भी नहीं खाती। इसी बात को
लेकर प्रवीर से रोज़ लड़ाई होती है। अब लाख सिर पटको, उसे
भला बातों में कौन हरा सकता है! चल, हाथ धोकर अन्दर चल।
यहाँ तो चौका सब गीला पड़ा है।''
अम्मा उसे लेकर बड़ी बेटी के कमरे में ही बैठ गयीं।
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