नई पुस्तकें >> कृष्णकली कृष्णकलीशिवानी
|
|
चौदह
अस्त-व्यस्त कमरे की छटा देखकर ही कली समझ गयी थी कि
गुह-स्वामिनी बड़ी हड़बड़ी में ही निकलकर गयी हैं। एक
पलँग पर सिनेमा की पत्रिकाएँ विखरी. पड़ी थीं, दूसरी
पलँग का पलँगपोश गुड़ी-मुड़ी कर बिछा एक कोने से ऊपर तक
उठ गया था। उसी पर उतारकर फेंके गये साड़ी-ब्लाउज़,
फ्रॉक बिखरे थे।''इतनी बड़ी हो गयी है जया, पर सलीक़ा रत्ती-भर नहीं सीख पायी। कौन कहेगा यह अँगरेज़ी स्कूल की पढ़ी है!'' अम्मा फूहड़ पुत्री के अस्त-व्यस्त कमरे-भर में बिखरी चीज़ों को समेटती खिसियाये स्वर में स्वयं ही कैफ़ियत देने लगीं। ''करे भी क्या, मन-चित्त ठिकाने पर हो तो काम में बनी भी लगे। जया क्या ऐसी थी? अब तुझे क्या बताऊँ बेटी, छूने से मैली होती थी लड़की। पहन-ओढ़कर बंगालियों में उठती-बैठती तो सब कश्मीरन ही समझते थे।''
अम्मा का गला भारी हो आया। बुद्धिमती कली ने कुछ भी नहीं पूछा, पर उस दिन कठिनता से मिले एकान्त के कुछ क्षणों में अम्मा उसके सामने सब कुछ उगल गयीं। जया के दशान्तर का फेर, बड़े जामाता के निर्लज्जता-पूर्ण आचरण को लेकर कई बार सुलगकर दहक पड़ी गृहयुद्ध की चिनगारी, कुछ भी कली से छिपा नहीं रहा।
वह संकुचित होकर अनमनी-सी हो गयी। यह शायद अम्मा ने भाँप लिया।
''अरी तू कौन परायी है बेटी, कब से तेरी राह देख रही थी कि तू आये तो दो घड़ी बतियाकर जी हल्का करूँ। दोनों मेरी कोख की जायी सगी बेटियाँ हैं, पर दोनों का जैसे मुझसे विश्वास ही उठ गया है।
''माया कहती है कि मैं जया का ही पक्ष लेती हूँ और जया कहती है, मैं तुम्हें भारी हो गयी हूँ। अब तू ही बता बेटी, भला भैंस के सींग क्या कभी उसे भारी होते हैं?"
आँचल से आँखें पोंछती अम्मा ने खिड़की बन्द कर दी। बाहर बाबूजी बैठे कुछ पढ़ रहे थे। शायद कहीं कुछ सुन न लें, और सुन लेने पर वह अल्पभाषी अनुभवी गृहस्वामी कभी भी अम्मा को घर का भेद एक सर्वथा अनजान विभीषण को बता देने के लिए क्षमा नहीं कर पाएगा, यह कली खूब समझती थी। पर वह क्या स्वेच्छा से ही विभीषण बनी थी?
''जया का मन तो भावों से भरा है बेटी,'' अम्मा कहने लगीं, ''जरा किसी ने हिला भर दिया कि घाव दुख गया! माया को लाख समझाती हूँ कि तू ही चुप रह जा, पर माने तब ना! मैं इलाहाबाद गयी, तो सुना, माया ने जीजा से कुछ ऐसी ही ओछी बात कह दी कि शर्म नहीं आती ससुराल में पड़े-पड़े रोटियाँ तोड़ रहे हो! बस, सामान बाँध-चूँधकर जयुली निकल पड़ी। स्टेशन से मनाकर तेरे बाबूजी लौटा लाये। मेरा भाग्य ही खोटा है। और क्या, छोटी बहू के लिए इत्ता किया, वह हमारे मुख
पर कालिख पोतकर चली गयी। प्रवीर की ही शादी न करने की जिद टूटती, तो शायद कुछ मनहूसी कटती। अब इन्हीं अलीपुर के पाण्डेजी ने अपनी चारों बेटियाँ इसके सामने धर दी थी कि भई ले, जो पसन्द हो उसी से तेरे फेरे फिरवा दें। ऐसा भला कोई कर सकता है?''
उस उदार पिता का पूर्ण परिचय पाने को कली ललक उठी।
क्या उदार पाण्डेजी की चारों अविवाहित परियाँ, अभी भी लल्ला के सामने हाथ बाँधे परेड कर रही होंगी?
किया करें! उसका माथा क्यों दुखा जा रहा था? पर कुछ क्षण चुप रहकर भी वह कण्ठ में अटके प्रश्न को नहीं रोक पायी।
''तो क्या चारों में से एक भी पसन्द नहीं आती?''
''अरी अब क्या चारों धरी रह गयी हैं बावली!'' अम्मा कटी सुपारी के लच्छों को निरर्थक काटने लगीं।
''चुन्नी, मुन्नी, सुनी तो एक से एक घर चली गयीं। ऐसे ग्रह थे, सुना, उनकी लड़कियों के कि जहाँ जायें वहाँ राज करें। किसी का बुधादित्य योग, तो किसी का केन्द्रस्थ बृहस्पति। अब सबसे छोटी कुन्नी बची है। ऐसी सलोनी छवि है कि बस भूख भागे है देखकर। अभी तो देखकर लौटी हूँ। रंग नक्शा सब एक-से-एक बढ़कर। बस जरा तन्दुरुस्त है। असल में आज बड़ी मुश्किल से मना-मुनूकर उसे ले गयी। पाण्डेजी का बड़ा आग्रह था कि एक बार कुन्ती को देख-भर लें।''
''तब क्या देखा?'' कली को अब चौथी पाण्डेसुता के स्वयंवर की व्यूह-रचना में बड़ा आनन्द आ रहा था।
''खाक देखा!'' अम्मा आँचल को मफ़लर की तरह गले में लपेटकर बैठ गयीं।
''हम सब एक ही कमरे में बैठे रहे। कुन्ती ने ऐन-मैन बंगाली लड़कियों की तरह रवीन्द्र संगीत गाकर सुनाया। स्पंज रसगुल्ले बनाकर हमें खिलाये, पर इसने एक प्याला चाय भी पीकर नहीं दी। मारे शर्म के मेरा सिर झुक गया। क्या सोचते होंगे वे लोग। लड़की बेचारी गाना पूरा गा भी नहीं पायी थी कि बीच से उठकर चला गया बेहया। कहने लगा, 'मुझे अपने किसी दोस्त से मिलने जाना है।' तब से ग़ायब है।''
कली अचानक बिना कुछ कहे ही उठ गयी। बरसाती के निकट आती कार का परिचित हॉर्न शायद उसने सुन लिया था। पता नहीं उसे एकान्त में अम्मा से खुसुर-फुसुर करते देख गृह के विपक्षी सदस्य उसके विषय में क्या सोच बैठें!
''मैं चलूँ अम्मा, सुबह से एक जगह स्थिर होकर दो घड़ी नहीं बैठ पायी हूँ। आपने ऐसे पार से बुलाकर खिलाया न होता, तो शायद भूखी ही सो जाती।'' वह हँसी, पर उसके काँपते होंठों के दोनों अस्थिर कोनों को अम्मा ने देख लिया।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book