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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : ठाकुर प्रसाद एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


"कातिल! यानी कि मैं?"
"हां"
“तुम पागल हो। मैं कातिल नहीं, इस बात को मेरे से बेहतर कोई नहीं जानता....”
"तुम अपनी बाबत कुछ भी कह सकते हो। तुम तो कह, सकते हो कि तुमने कभी मक्खी नहीं मारी।"
"....ऊपर से मैं कातिल को जानता हूं।"
"अच्छा !"
"मैं जानता हूं कि तीन साल पहले विक्रम कनौजिया का कत्ल किसने किया था। उसने कनौजिया का कत्ल किया था, इसका मतलब ये नहीं कि अब उसने बतरा का भी कत्ल किया था।"
"क्यों नहीं है?"
"बस, नहीं है।"
"जानते हो तो बताओ कि कौन था विक्रम कनौजिया का कातिल?"
"एन.सी., जिसका कि इस तहरीर में जिक्र है।"
"वही तो मैं भी कह रहा हैं। वो एन-सी....."
"मैं नहीं हूं, ईडियट।"
"तो कौन है? नाम लो कोई।"
"मैं ऐसी चुगलखोरी पसन्द नहीं करता लेकिन तुम मजबूर कर रहे हो, इसलिये लेता हूं। नरेश चटवाल है कनौजिया के कातिल का नाम । अपनी जिन्दगी में उसने चटवाल की इकलौती बेटी का कबाड़ा कर दिया था इसलिये उसने कनौजिया को शूट कर दिया था।"
"अंग्रेजी में इसे कहते हैं पासिंग दि बक। मैं तुम्हारी क्विक थिंकिंग की दाद देता हूं। गोली की तरह तुमने अपनी जगह लेने के लिये दूसरा एन.सी. पेश कर दिया।"
“वो ही कातिल है।"
"नहीं है।"
"तुम्हारे कहने से क्या होता है?"
"मेरे पास सबूत है।"
"सबूत!" --वो हंसा-“ये!"-उसने कागज को हवा में उछाल दिया-"ये टाइपशुदा रुक्का! जिस पर कि किसी के साइन तक नहीं।"
"नहीं। प्यारेलाल इस वक्के की ठीक करने वाला कागज भी बरामद हो चुका है ... उसमें कथित एन.सी. का पूरा नाम दर्ज है।"
"और वो नाम मेरा है
"हां"
"लिहाजा अभी तक मैं तुम आपस में खेल खेल रहे थे।"
"समझ लो कि हां।"
“समझ लिया। अब मैं समझाता हूं। ऐसी जुबान में समझाता हूं जिसे समझना बहुत आसान होता है।"
सुनील ने नोट किया कि एकाएक वो उसके सिर के पीछे कहीं देखने लगा था। वो सावधान हुआ लेकिन इससे पहले कि वो घूम कर पीछे देख पाता उसकी खोपड़ी पर एक भीषण प्रहार हुआ। तत्काल उसकी आंखों के सामने लाल-पीले सितारे नाच गये और वो निशब्द कुर्सी पर से लुढ़क कर फर्श पर ढेर हो गया।
“साला!"
उसे जैसे कहीं बहुत दूर से आती चोपड़ा की आवाज सुनायी दी-“मेरे साथ ब्लफ खेलने चला था। नहीं जानता था कि अपनी मौत से पहले बतरा मेरे से मिलके गया था और तमाम निपटारा करके गया था।" .
. "बॉस"-वैसी ही कुंए से निकलती आवाज उसे गंजे पहलवान की सुनायी दी-“खत्म कर दूं इसे?"
"नहीं । शायद ये अकेला न आया हो। जा के मालूम कर।"
"कोई आ रहा है।"
"ये फर्श पर पड़ा नहीं दिखाई देना चाहिये। इसे उठा कर कुर्सी पर डाल।"
पहलवान ने आदेश का पालन किया।
चोपड़ा ने परे खूटी पर टंगा एक हैट उठाया और उसे सुनील की छाती पर झुके सिर पर यूं टिका दिया कि उसका आधे से ज्यादा चेहरा हैट के अग्रभाग से ढक गया।
"देख, कौन है?" पहलवान के बाहर जाते भारी कदमों की आवाज हुई। कुछ क्षण सन्नाटा। फिर सेंडलों की ठक ठक।
फिर दरवाजा खुलने और बन्द होने की आहट।
हल्लो, तानिया!"-उसे निरंजन चोपड़ा की आवाज सुनायी दी-"वैलकम।"
"बहुत अच्छे मौके पर आयीं। मैं तुम्हें ही याद कर रहा था।"
"ये कौन है?"
"है कोई।"
"ऐसे क्यों पड़ा है?"
"ज्यादा पी गया है।"
तब सुनील को चोपड़ा की आवाज सामने से आने की जगह पीछे से आयी। उसने बड़े यत्न से एक आंख खोल कर सामने देखा तो पाया कि उसकी कुर्सी खाली थी। उसने कान खड़े करके आहट लेने की कोशिश की तो उसे अहसास हुआ कि चोपड़ा उसके पीछे कहीं वहां मौजूद था जहां कि तानिया आकर खड़ी हुई थी। बहरहाल वो गर्दन घुमा कर पीछे नहीं देख सकता था क्योंकि तब चोपड़ा को पता चल पाता कि वो बेहोश नहीं था और फिर उसकी खोपड़ी पर नया वार हो सकता था। उसने आंखें मीच ली और कान खड़े कर लिये।

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