रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी घर का भेदीसुरेन्द्र मोहन पाठक
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
“सॉरी!"-वो बोला--"आप क्यों नहीं समझेंगे? आप तो उड़ती चिड़िया के पर पहचानने
वाले हैं।"
"आगे बढ़।"
“कत्ल की रात को तानिया ने उससे उसकी वो पोशाक उधार मांगी थी।"
"क्या!"
"उसने उसे एक सौ का पत्ता दिया था और कहा था कि उसकी वो पोशाक थोड़ी देर के
लिये वो पहनना चाहती थी।"
"क्यों?"
"तफरीह के लिये! हंसी ठट्टे के लिये। पार्टी की रौनक बढ़ाने के लिये।"
“पार्टी में क्या फैंसी ड्रेस कम्पीटीशन हुआ था?"
"नहीं! लेकिन वो उस पोशाक को पहनकर सब का मनोरंजन करना चाहती थी।" ।
“नो प्राब्लम। जिन पार्टियों में नशे पर जोर.होता है, उनमें ऐसी उच्छृंखल
हरकतें होती ही हैं। इसमें जिक्र के काबिल क्या बात है?"
"ये कि इमरती की वो ड्रैस पहनकर पार्टी में तो वो पेश हुई ही नहीं थी। किसी
ने-क्या मैंने, क्या किसी और ने उसे उस ड्रैस में नहीं देखा था।"
"तो उसने वो ड्रैस ली क्यों? पहनी क्यों?"
"गुरु जी, ली की गवाही है। पहनी की नहीं है।"
"भई, जब इतनी शिद्दत से, सौ रुपये इन्वैस्ट करके, ली थी तो पहनी भी होगी।"
"वो तो है।"
"क्यों पहनी होगी? किस हासिल की खातिर पहनी होगी? पहनी थी तो किसी को इस बात
की खबर क्यों न लगी?"
"क्योंकि उस पोशाक में किसी ने उसे देखा होगा तो इमरती ही समझा होगा।"
“ऐग्जैक्टली। अर्जुन तू तो बहुत सयाना हो गया है।"
अर्जुन शर्माया और बोला-“इसी बात पर जानी वाकर लैक लेबल की उस बोतल में से एक
घूँट हो जाये जो कि आप अपनी आफिस टेबल के निचले दराज में रखते हैं।"
"अभी क्या कोई कसर है, मेरे चिमनी के धुएं? पीछे 'निकल चेन' में अट्ठारह सौ
चालीस रुपये में क्या कम विस्की पी के आया है?".
"कल । कल।"
"कल की कल देखेंगे।"
"ठीक है। तो अब गुडनाइट बोलें?"
"हां"
अपने अपने वाहनों पर सवार होकर दोनों अपनी अपनी राह लगे।
चौथा दिन
एक अक्टूबर : गुरुवार (दशहरा)
उस रोज सुबह सुनील सबसे पहले पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा।
उसने इन्स्पेक्टर सुखबीर चानना की बाबत पूछा तो मालूम हुआ कि वो इन्स्पेक्टर
प्रभुदयाल के पास था।
सुनील प्रभुदयाल के कमरे में पहुंचा जहां कि उसने दोनों इन्स्पेक्टरों को
आमने सामने बैठे कोई मंत्रणा करते पाया। .
सुनील ने दोनों का अभिवादन किया।
“आओ।"-प्रभुदयाल बोला- “आओ, रिपोर्टर साहव। बैठो।"
“बैंक्यू।"-सुनील बोला और चानना के पहलू में एक कुर्सी पर ढेर हुआ।
"कैसे आये?"
"एक खास बात जानने आया था।" . "क्या ?"
“नारकाटिक्स ट्रेड के मामले में आजकल राजनगर पुलिस का क्या रवैया है?"
"वही जो हमेशा था । बहुत सख्त । यूजर, पुशर, सप्लायर, डीलर सबके मामले में
बहुत सख्त। किसी का कोई लिहाज नहीं। लेकिन अगर तुम अखबार की नौकरी छोड़ कर अब
ये धंधा पकड़ने जा रहे हो तो पुराने ताल्लुकात को मद्देनजर रखते हुए तुम्हारा
लिहाज कर देंगे।"
"हेरोइन वगैरह की कितनी मात्रा के साथ कोई पकड़ा जाये तो उसे यूजर की जगह
सप्लायर माना जाता है?"
"इस बाबत अलग अलग देशों के अलग अलग नियम हैं। यहां जिसके पोजेशन में पच्चीस
ग्राम से ज्यादा हेरोइन पकड़ी जाये, वो डीलर माना जाता है।"
"डीलर की सजा यूजर से तो ज्यादा होती होगी?"
"बहुत ज्यादा। किसी के पास पच्चीस ग्राम से जरा ऊपर हेरोइन की बरामदी पर भी
दस साल तक की सजा हो सकती है।"
"पकडवाने वाले के लिये कोई ईनाम होता है?"
"किस फिराक में हो, रिपोर्टर साहब? है कोई ड्रग डीलर तुम्हारी निगाह में?"
“अभी तो नहीं है लेकिन आगे होने की उम्मीद है।"
"कैसे?"
"मैं एक स्टोरी पर काम कर रहा हूं। उम्मीद है, उसका कोई अच्छा नतीजा
निकलेगा।"
"बतरा के कत्ल वाली स्टोरी से भर पाये?"
"ऐसा तो नहीं है। उस पर भी मैं बहुत काम कर रहा हूं। कोई बड़ी बात नहीं कि
आइन्दा दिनों में बतरा के कातिल को चांदी की प्लेट में सजा कर सोने का वर्क
लगा कर, हीरे का लौंग जड़कर सुनील भाई मुलतानी ही पुलिस के हुजूर में पेश
करे।"
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