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हिन्दू दर्शन

कर्ण सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1303
आईएसबीएन :81-263-0696-3

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भारतीय संस्कृति तथा दर्शन विशेष रूप से हिन्दी दर्शन के मनीषी चिंतक और विचारक की यह पुस्तक समकालीन समाज से गहरा सरोकार रखती है और चिंतन के कई नए आयामों को उजागर करती है।

Hindu Darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति तथा दर्शन-विशेष रूप से हिन्दी दर्शन के मनीषी चिंतक और विचारक डॉ. कर्ण सिंह की यह पुस्तक समकालीन समाज से गहरा सरोकार रखती है और चिंतन के कई नए आयामों को उजागर करती है।

बिना किसी पूर्वग्रह के कर्ण डॉ. कर्ण सिंह ने भगवद्गीता और उपनिषदों के माध्यम से हिंदू दर्शन की मौलिकता का गंभीर विवेचन किया है। उसका मानना है कि हिंदू धर्म-दर्शन कोई संप्रदाय नहीं है; यह सर्वव्यापी और अलौकिक सत्ता से साक्षात्कार की जीवंत प्रतिक्रिया है। दरअसल, यह एक ऐसा जीवन-दर्शन है जो मनुष्य और मनुष्य के बीच को नकारते हुए उसकी सार्वभौमिकता को प्रतिष्ठित करता है।

उल्लेखनीय है कि डॉ. कर्ण सिंह ने हिंदू  सार्वभौमिकता पर चर्चा ऐसे समय छेड़ी है जब समूचा विश्व एक भयावह संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। उनकी मान्यता है कि हिंदू धर्म-दर्शन पर अब तक किए गए चिंतन को व्यावहारिक रूप देने से आज की विकट त्रासदी से मुक्ति पाने के साथ ही वसुधैव कुटुंबकम की भावना भी सार्थक हो सकती है।
पुस्तक के अंत में ‘मुंडक उपनिषद्’ का अनुवाद और उसका अध्ययन-विवेचन पाठकों के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी।

भूमिका

पिछले कुछ वर्षों में मुझे हिंदू धर्म के विभिन्न पक्षों पर बोलने और लिखने के देश तथा विदेश में अनेक अवसर मिले हैं। ये रचनाएँ समय-समय पर विभिन्न पुस्तकों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। हिंदू धर्म में बढ़ती हुई रुचि को देखते हुए देश और विदेश के कई मित्रों ने मुझे सुझाव दिया कि ऐसी पुस्तक की आवश्यकता है जिसमें हिंदू धर्म का समग्र और आधुनिक चित्र मिल सके। इसलिए इन रचनाओं को पुस्तक का रूप देने का विचार आया।

इस नए संस्करण में विशेषकर मैंने हिंदू धर्म के उन व्यापक पक्षों को उजागर करने का प्रयास किया है जो इस आणविक युग में विशेष रूप से प्रासंगिक हैं। वस्तुतः हिंदू धर्म इतना विशाल और विविध रूपोंवाला है कि हम केवल इसके कुछ अर्थगर्भित तत्त्वों का अन्वेषण करने की कोशिश कर सकते हैं ताकि पाठक को इसके सौंदर्य और शक्ति की झलक मिल सके। यदि इस दिशा में मैं कुछ कर पाया हूँ तो मुझे संतोष मिलेगा।

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि आज मानवजाति सभ्यता के एकदम नए चरण में प्रवेश कर रही है, जिसका अत्यधिक महत्त्व है। इसके अतिरिक्त विज्ञान और तकनीकि के आश्चर्जनक अद्भुत फैलाव के कारण परिवर्तन की गति बहुत तेज हो गई है, बड़े-बड़े परिवर्तन जिन्हें घटित होने में शताब्दियाँ लग जाती थीं अब कुछ दशकों में हो जाते हैं, इसलिए नई परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए मनुष्य-चेतना को पर्याप्त समय नहीं मिलता।

हालांकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी इस प्रक्रिया का आधार है, तथापि मानवजाति की महान धार्मिक परंपरा भी इसमें अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्योंकि उसका प्रभाव करोड़ों लोगों के दिलों और दिमाग पर पड़ता है। वास्तव में हिंदू धर्म में मेरी रुचि न केवल हिंदू होने के कारण है, बल्कि एक विश्व नागरिक के रूप में भी है। मेरा यह विश्वास है कि हिंदू धर्म का व्यापक पक्ष—विशेषकर वेदांत का—उभरती हुई विश्व चेतना में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है।

मुझे आशा है कि इस पुस्तक के लेख, जिनमें मुंडकोपनिषद् का अनुवाद और टीका भी शामिल है, न केवल विद्वानों के लिए बल्कि इस महान धार्मिक परम्परा में रुचि रखनेवाले समूचे विश्व के सामान्य लोगों के लिए भी अर्थपूर्ण होंगे। अँग्रेजी में इस पुस्तक के कई संस्करण निकले हैं। कुछ मित्रों ने सुझाव दिया कि यदि इन निबंधों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित किया जाए तो हिंदी भाषी पाठक भी इन्हें पढ़ सकेंगे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा इसका प्रकाशन हो रहा है इसकी मुझे विशेष प्रसन्नता है क्योंकि ज्ञानपीठ से मेरा तीन दशकों का संबंध बना हुआ है।

कर्ण सिंह

शिव के प्रति



मैं तुम्हारा खिलौना हूँ,
तुम मेरे भीतर भर सकते हो
शाश्वत जीवन की आग
और मुझे अमर बना सकते हो,
या तुम फैला सकते हो मेरे अणु
विश्व के दूर-दराज कोनों में
ताकि मैं हमेशा-हमेशा के लिए
विलुप्त हो जाऊँ।

तुम मुझे शक्ति और प्रकाश से
भर सकते हो
ताकि मैं उल्कापिंड की भांति चमकूँ,
आकाश में मध्यरात्रि के अंधकार में;
या तुम मेरे प्राण ले सकते हो
ताकि समय के गहरे और अतल
समुद्र में मैं हमेशा-हमेशा के लिए डूब जाऊँ।

तुम मुझे दैवि अग्नि से देदीप्यमान
शाश्वत तारों के बीच जड़ सकते हो
या तुम मुझे रसातल में फेंक सकते हो
ताकि मैं नश्वर आँखों को
कभी न दृष्टिगोचर होऊँ।

मैं तुम्हारा खिलौना हूँ
निर्णय तुम्हार है।

हिंदू धर्म : एक विहंगम दृष्टि



जो धर्म हिंदू धर्म के नाम से विख्यात है, वह विश्व के महान धर्मों में सबसे पुरातन तथा वैविध्यपूर्ण धर्म है। ‘हिंदू धर्म’ स्वयं एक भौगोलिक शब्द है—जो भारत के उत्तरी सीमाप्रांत पर बहने वाली नदी सिंधु के संस्कृत नाम पर आधारित है। इस नदी के उस पार रहने वाले लोग—सिंधु नदी के दक्षिण-पूर्ण का समूचा क्षेत्र—जिसे यूनानी लोग इंदस कहते थे, वह हिंदुओं की भूमि मानी जाने लगी—विश्वास और आस्थाओं के तमाम बिंदु, जो यहाँ फले-फूले, उन्हें हिंदू धर्म के नाम से स्वीकृति मिलती गई। हिंदू धर्म स्वयं को सनातन धर्म, शाश्वत विश्वास मानता है क्योंकि इसका स्रोत एक गुरु की शिक्षा नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता के प्रारंभ से ही ऋषियों एवं मनीषियों का सामूहिक विवेक और प्रेरणा है।

धर्मग्रंथ : दर्शन शास्त्र के लिए संस्कृत शब्द ‘दर्शन’ या ‘देखना’ है, जिसका अर्थ है—हिंदू धर्म केवल बौद्धिक चिंतन पर आधारित नहीं बल्कि सीधे और साक्षात् धरातल पर खड़ा है। वास्तव में यही तत्त्व भारतीय चिंतन को अधिकांश पाश्चात्य दार्शनिक चिंतन से विशिष्ट बनाता है। हिंदू धर्म का सबसे पुरातन और महत्त्वपूर्ण धर्मग्रंथ वेद है, जिसमें उन ऋषियों तथा मनीषियों के ऐसे उद्गार निहित हैं, जिन्होंने ईश्वरीय सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव किया था।

वेद शाश्वत माने जाते हैं क्योंकि वे न केवल श्रेष्ठ काव्यात्मक कृतियाँ हैं बल्कि स्वयं ऐसा दैवीय सत्य निरूपित करते हैं, जो महान् ऋषियों ने अपनी उन्नत चेतना के माध्यम से देखा है।

चारों वेद-ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद—में एक लाख से भी अधिक पद हैं, जिनमें अब तक लिखी गई महानतम रहस्यमय कविता अंश हैं। उदाहरण के तौर पर ऋग्वेद (10-129/1-7) का ज्ञानसूक्त (सृष्टिरहस्य)। ग्रिफिथ ने इसका अनुवाद इस प्रकार किया है—


उस समय न अनस्तित्व था न अस्तित्व
न था वायुजगत् न उसके परे आकाश
फिर किससे वह (सृष्टि) आच्छादित थी,
और कहाँ ? और किसे दिया आश्रय ?
क्या वहाँ जल था, जल की
अतल गहराइयाँ।

न मृत्यु थी न अमरता
न चिह्न था दिन और रात के भेद का
केवल थू सृष्टि, श्वास-प्रश्वास रहित,
अपनी ही गध से परिपूरित
इसके अतिरिक्त वह (सृष्टि) कुछ न थी।

वहाँ था अंधकार, अंधकार में प्रच्छादित
यह संपूर्ण सृष्टि थी तमाच्छादित
उस समय थी शून्यता और आकारहीनता
उष्णता की महाशक्ति ने उस इकाई
को जन्म दिया।

फिर प्रारंभ में हुआ जन्म इच्छा का,
इच्छा, आत्मा का आदिम बीज और अंकुर
जिन ऋषियों ने अपने अंतःकरण से खोजा
उन ऋषियों ने सोच लिया
उन्होंन जान लिया है
संबंध अस्तित्व का अनस्तित्व से।


फिर छँटा तमाच्छादन और हुआ विस्तार
तब उसके ऊपर क्या था और नीचे
क्या था ?
थे जनक वहाँ थीं महाशक्तियाँ
यहाँ था निर्बंध कर्म, वहाँ थी ऊर्जा

वास्तव में कौन जानता है और
कौन कर सकता है घोषणा
किससे हुआ जन्म इसका और किसलिए
यह सृष्टि ?


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