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आत्मनेपद

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :194
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1315
आईएसबीएन :81-263-0933-4

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प्रस्तुत है वैक्यिक्त निबन्ध...

Atmanepad a hindi book by Agyeya - आत्मनेपद - अज्ञेय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘आत्मनेपद’ में, जैसा की शीर्षक से ही स्पष्ट है, ‘अज्ञेय’ ने अपनी ही कृतियों के बारे में अपने विचार प्रकट किए हैं—कृतियों के ही नहीं, कृतिकार के रूप में स्वयं अपने बारे में। अज्ञेय की कृतियाँ भी उनके विचार भी निरन्तर विवाद का विषय रहे हैं। सम्भवतः यह पुस्तक भी विवादास्पद रही हो। पर इसमें न तो आत्म प्रशंसा है, न आत्म-विज्ञापन; जो आत्म-स्पष्टीकरण इसमें है उसका उद्देश्य भी साहित्य, कला अथवा जीवन के उन मूल्यों का निरूपण करना और उन पर बल देना है जिन्हें लेखक मानता है और जिन्हें वह व्यापक रूप से प्रतिष्ठित देखना चाहता है। अज्ञेय ने खुद इस पुस्तक के निवेदन में एक जगह लिखा है—‘अपने’ बारे में होकर भी यह पुस्तक अपने में डूबी हुई नहीं है—कम-से-कम इसके लेखक की ‘कृतियों’ से अधिक नहीं !’

अज्ञेय की विशेषता है उनकी सुलझी हुई विचार-परम्परा, वैज्ञानिक तर्क पद्धति और सर्वथा समीचीन युक्ति-युक्त भाषा-शैली।
अज्ञेय के व्यक्तित्व और कृतित्व को समझने के लिए ‘आत्मनेपद’ उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य है; साथ ही समकालीन साहित्यकार की स्थितियों, समस्याओं और सम्भावनाओं पर उससे जो प्रकाश पड़ता है वह हिन्दी पाठक के लिए एक जरूरी जानकारी है।
इस पुस्तक का आद्यन्त संस्करण प्रकाशित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है

निवेदन

कोई भी रचना पूरी हो जाने पर उस के प्रकाशन से पहले संकोच का एक क्षण आता है, जब कृतिकार एक बार अन्तिम रूप से उस का मूल्यांकन करता है और इस प्रकार उसे अन्तिम रूप से अपने से अलग कर देता है-कृति तब पाठक की हो जाती है और कृतिकार उस से मुक्त हो जाता है।

जब कृति के साथ भी संकोच की ऐसी स्थिति आती है, जिस में मेरी समझ में कृतिकार आरम्भ से ही अपने से दूर होता है क्योंकि वह विभोर होता है, उसी में डूबा हुआ और तदात्म होता है और अपने को भूल गया होता है, तब इस पुस्तक जैसे लेखन के साथ वह संकोच उस की अपेक्षा कितने गुना अधिक न होगा, जिसमें कि न केवल आत्म-विस्मृति नहीं है बल्कि आरम्भ से ही एक अतिरिक्त आत्म-चेतना का भाव है, क्योंकि सारी पुस्तक ही ‘अपने’ विषय में है-अपने व्यक्ति के, अपने जीवनानुभव के, अपनी रचना की प्रवृत्तियों के, अपने विश्वासों के, और उन सूक्ष्म तत्त्वों के जिन्हें लेखक अपने कर्म के बुनियादी मूल्य या प्रतिमान मानता है-जिन की सूक्ष्मता ही उन की गहराई को सूचित करती है।

‘आत्मनेपद’ निःसन्देह अत्यन्त आत्मचेतन (सेल्फ़कांशस) रचना है। पर आत्मचेतना अनिवार्यतया अहंलीन ही होती हो, ऐसी नहीं है। आत्मचेतन भाव से लिखी गयी होने के कारण ही पुस्तक लेखन की अहम्मन्यता का प्रमाण हो-बल्कि स्वयं वैसी अहम्मन्यता का स्वीकार-ऐसा नहीं है। मैं जानता हूँ कि यह आशा-दुराशा मात्र होगी कि इस पुस्तक का प्रत्येक पाठक लेखक के विषय में किसी भी पूर्वग्रह से मुक्त हो कर इसे पढ़ेगा और पढ़ने के बाद ही इस की वस्तु पर उस की आधारभूत मान्यताओं पर अपना मन्तव्य स्थिर करेगा (और, हाँ, उस के लेखक के बारे में भी, यद्यपि वह सब से कम महत्त्व की बात है) फिर भी यह मैं चाहता हूँ कि पाठक यह देख सकेगा, कि ‘अपने’ बारे में हो कर भी यह पुस्तक अपने में डूबी हुई नहीं है-कम से कम इसके लेखक की ‘कृतियों’ से अधिक नहीं ! इतना ही नहीं ! मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि इस के आत्मचेतन होने के बावजूद इस में भी तदगत भाव किसी दूसरी रचना की अपेक्षा कम नहीं है और वह ‘तत्’ लेखक के अहं से अधिक मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण कुछ है, ऐसा कुछ, जो केवल मात्र साहित्य की दृष्टि से महत्त्व रखता है, जिस के ही साहित्य में बचे रहने या न रहने का प्रश्न उठ सकता है, क्योंकि लेखक और उस का अहं तो नश्वर है ही और नश्वरता के नियम से किसी तरह बच नहीं सकता। (इस लेखक का जो जीवन-दर्शन है, उस में तो इस नश्वरता को पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है, बल्कि अपने बने रहने के लिए पुनर्जन्म का हीला भी नहीं छोड़ा गया है...वह तो मानता है कि इस की नश्वरता ही इसे वह अद्वितीयता देती है जो इस का रस और इस का प्रमाण है।)

यह मैं जानता हूँ कि हिन्दी प्रकाशन-क्षेत्र को उस पूरे क्षेत्र को साहित्य-क्षेत्र कहते झिझक होती है यद्यपि साहित्य-क्षेत्र में उसी की एक क्यारी तो है ही-समकालीन परिस्थिति में ऐसी पुस्तक ले कर, आना मानो घमासान युद्ध में कवच उतार कर और निरस्त्र होकर, मर्मस्थलों को जानबूझ कर अरक्षित कर के आना है-मार खाने आना है। समझदारी उसे नहीं कहा जा सकता। विवेक को पूरा महत्व देते रहने पर भी, इस तरह की समझदारी कभी भी मेरे निकट सम्मान्य या वाञ्छनीय नहीं रही, और मार खाते रहने का मेरा धैर्य दुस्साहस ही माना जाता चला आया है।

उस की कोई ग्लानि मन में नहीं है क्योंकि मान ले सकता हूँ कि अगर भूल भी मुझ से हुई है तो मार खा कर मैं ने उस का शोध कर लिया है, पर इस पुस्तक के प्रकाशन में उसी दुस्साहस की आवृत्ति से अधिक कुछ भी है। और उस प्रकार की चर्चा अपने विषय में पहले नहीं की है, अथवा अपने निजी जीवन के विषय में लोगों के कुतूहल को जान कर भी अपने से दूर रखता आया हूँ तो आज इस का शमन करना चाहने की कुछ सफाई तो अपेक्षित हो ही सकती है। उत्तर में कहूँ कि कुछ वर्षों से लगता रहा है कि यह कुतूहल (जिसे आज भी कुछ अच्छा या स्वस्थ या उचित नहीं मानता हूँ) और अशमित कुतूहल से उत्पन्न अनेक प्रकार के तनाव, एक दीवार से मुझे उन से अलग करते रहे हैं जिन्हीं के लिए आख़िर मैं लिखता हूँ।
और इतना भर होता तो भी पाठकों के वृत्त को और छोटा मान कर भी सन्तोष कर लेता, पर क्रमशः स्पष्ट होता गया है कि उस का दबाव कृतिकार का भी अतिरिक्त मोह मुझे नहीं है, जानता हूँ कि एक दिन यत्किंचित् प्रतिभा का भी स्रोत चुक जाएगा और कृतिकारत्व भी सूखे पत्ते-सा झर जाएगा-और चाहता हूँ कि जिस दिन ऐसा हो उसी दिन इस बात को पहचान सकूँ और उस झर जाने को निराकुल भाव से स्वीकार कर सकूँ-’ फूल को प्यार करो, पर झरे तो झर जाने दो-एक दिन उस दिन जिसे अपनी पराजय भी दे सकूँगा समुद, निस्संकोच उसी को आज अपना गीत देता हूँ’-फिर भी जब तक उस कार्य का दायित्व ओढ़े हुए हूँ, तब तक उसे अकुण्ठित रखना चाहता हूँ। अगर वह भीतरी है तो उसे बाहर के आक्रमण से पंगु नहीं होने देना चाहता भीतर से ही जब वह सूख जाएगा तब वह इस की हार नहीं, निष्पत्ति होगी...

और यह भी कुछ स्पष्ट होता आया है कि यह भी ऐसा क्षेत्र है जहाँ अविरोध से ही जय हो सकती है। और जब यह स्पष्ट हो गया तो आत्म चर्चा स्वभाव के नितान्त प्रतिकूल रहते भी जो दीख गया है उसे मैंने मान लिया है। इस प्रकार यह निरस्त्र हो कर मार खाने सामने आना एक प्रकार का सत्याग्रह ही है। हथियार डाल देना वह नहीं है। वह युद्ध के नैतिक स्तर को बदल देने का ही प्रयत्न है। जहाँ युद्ध होता है, आक्रमण और प्रतिरक्षा का भाव होता है, वहाँ इस का निर्णय सम्पूर्णतया आक्रान्ता के ही हाथ में होता है कि किन अस्त्रों का प्रयोग होगा-क्यों कि जैसा आक्रमण होगा उसी के अनुरूप तो इस की काट होगी। जो इस प्रकार आक्रान्ता के वशीभूत नहीं होना चाहता, उसे प्रतिरक्षा का तर्क भी छोड़ना ही पड़ेगा।

इसीलिए यह जो कुछ है, आप के सम्मुख है। इसे मैं स्वयं ‘मैं’ भी नहीं कहना चाहता-इसे यह ही मानना चाहता हूँ जिस से कि इस की निरस्त्रता पूरी हो जाये-ममत्व का तनिक-सा भी कवच उसे न हो।
यहाँ तक अकेले नहीं पहुँचा हूँ। जीवन में बहुत अकेला रहा हूँ पर जब कहीं पहुँचा हूँ तो पाया है कि अकेला नहीं हूँ दूसरे भी साथ आये हैं-पहुँचाने आये हैं। इस सौभाग्य के आगे नतमस्तक हूँ जिन के सहारे और जिन के साथ यहाँ तक आया हूँ वे पथ-संकेत देने के कारण गुरुजन तो हैं ही, पर उस अतिरिक्त कृपा के बारे में क्या कहूँ जिस ने मुझे यह दिया है कि वे मेरे प्रणम्य ही नहीं, मेरे प्रिय भी हों ? एक शब्दातीत विस्मय के साथ उसे स्वीकार ही किया जा सकता है-ओढ़ा ही जा सकता है...

मेरी पहली कविता

एक खिलौना होता है जिसे ‘फिरकी’ या ‘फिरकनी’ या ‘भँवरी’ कहते हैं। यह लट्टू की ही जाति का होता है-अन्तर इतना कि लट्टू लत्ती से घुमाया जाता है और यह चुटकी से। पंजाब की तरफ इसे ‘भमीरी’ या ‘भुमीरी’ कहते हैं। ‘भँवरी’ की तरह ही ये शब्द भी ‘भ्रम्’ धातु से निकले हुए है। अब तो विलायती गाने वाले लट्टुओं और प्लास्टिक की चकई ने इस का स्थान ले लिया, लेकिन मेरे बचपन में शहरों में भी फिरकनियों का अपना स्थान था। लकड़ी के रंगीन गेंद-बल्ले से कुछ ही कम महत्त्व पीली या लाल रंगी हुई, खराद की लकड़ी की फिरकनी का होता था-और उस पर बने हुए फूलों की डिजाइन पसन्द करने में बच्चों का बड़ा समय और मनोयोग ख़र्च होता था !

यहाँ तक पढ़ते-पढ़ते पाठक सोचने लगेगा कि इस पारिभाषिक ऊहापोह और संस्मरण का मेरी पहली कविता से क्या सम्बन्ध है ? बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है, जैसा कि अभी प्रकट हो जाएगा ! लेकिन वह बताने से पहले मेरे अपने मन में जो सन्देह होता है उसी का पहले निवेदन कर देना चाहिए स्वयं कविता का ही कविता से क्या सम्बन्ध है ? क्योंकि बिना इस का निबटारा किये यह कैसे बताया जा सकता है कि मेरी आरम्भ की तुकबन्दियों में से या बिना तुक की लयमुक्त पंक्तियों में से-किसे कविता माना जाय ? और ऐसी भी तो अनेक रचनाएँ होंगी, जिन्हें कविता मानने की मूर्खता की थी और जिन का अब स्मरण करते भी झेंप लगती है ? इसी लिए बात को मैं यहाँ से आरम्भ करना चाहता हूँ कि कविता के सम्बन्ध में मेरी क्या धारणा कैसे बनी-शब्द का सार्थक, साभिप्राय, रसात्मक प्रयोग किया जा सकता है, यह सम्भावना कैसे मेरे मन में उदित हुई, और इसी बात का भँवरी से-या उस के पंजाबी नाम ‘भुमीरी’ से-गहरा सम्बन्ध है।

मैं तब शायद चार साल का था-कम से कम पाँच साल से अधिक का तो नहीं था जब की बात है-क्योंकि लखनऊ की बात है जो मैं ने पाँच वर्ष की आयु में छोड़ दिया था। कोई सम्बन्धी बाहर से आ कर हमारे यहाँ ठहरे थे। हम बहन-भाइयों के लिए खिलौने लाये थे। मुझे एक फिरकनी मिली। उस का नाम मैं नहीं जानता था, उन्होंने बताया-भुमीरी। मैं उसे बरामदे में ले गया और चुटकी से जैसे उन्होंने बताया था उसे घुमाने लगा। दो एक बार तो वह दो-चार चक्कर काट कर ही लुढ़क गयी। पर इतने में उस का गुर मैंने पहचान लिया, और फिर तो वह झूमती हुई देर तक घूमने लगी। कौन बच्चा ऐसी विजय पर प्रसन्न न होगा ? मैं भी उस के चारों ओर नाचने लगा।

लेकिन नाचना भी काफी नहीं मालूम हुआ-तब मैंने ताली दे-दे कर चिल्लाना शुरु किया-नाचत है भूमिरी ! छन्द की गति के कारण अनायास ही भुमीरी को भूमिरी बन जाना पड़ा। लेकिन दो-तीन बार पुकार कर ही मैं सहसा रुक गया। चौंक कर मैंने जाना कि जो बात मैं कह रहा हूँ उस से वास्तव में अधिक कुछ कह रहा हूँ-नाचत है भूमिरी-मेरी भुमीरी नाचती है। सो तो ठीक लेकिन अरी, भूमि भी तो नाचती है-नाचत है भूमि री, ! मन ही मन इस द्वयर्थक वाक्य को मैंने फिर दुहराया। सच तो ! वह मेरी भूल नहीं है- वाक्य सचमुच दो अर्थ देता है-उस में चमत्कार है ! और फिर मैंने दूने जोर से चिल्लाकर और नाचकर, ताली दे कर गाना शुरू किया-नाचत है भूमिरी, नाचत हैं भूमि री ! इस से आगे शब्द नहीं मिले, पर उस समय मैंने जाना कि मेरी भँवरी ही नहीं, भूमि भी नाचती है-सारा विश्व ब्रह्माण्ड नाच रहा है-मैं आविष्कारक हूँ स्रष्टा हूँ !
मैंने शब्द की शक्ति को पहचान लिया है, पहचान ही नहीं स्वायत्त कर लिया है-और शब्द ही तो आद्या है। ‘इन द बिगिनिंग वाज़ द वर्ड, एण्ड द वर्ड वाज़ गॉड (आदि में शब्द था और शब्द ही ईश्वर था)....

पाठक हँस सकता है। आज मैं भी हँस सकता हूँ। लेकिन इस बोध से उस दिन जो रोमांच हो आया था, उस की छाप आज भी मुझ पर है-और उस दिन से मैं कभी नहीं भूला हूँ कि शब्द शक्ति का रूप है, कि शब्द का सार्थक प्रयोग सिद्धि है। इस लिए, मेरी पहली कविता कौन-सी थी, इस प्रश्न के उत्तर में यह बाल्यकालीन अनुभव प्रांसगिक तो है ही, भले ही वह वाक्य कविता न रहा हो इसीलिए मैंने जिज्ञासा की थी कि कविता का ही कविता से सम्बन्ध है !
अनुप्रास और लय-इन की पहचान अपेक्षया सहल भी होती है, सहज भीः अबोध शिशु लोरियाँ सुन कर ही इन तत्त्वों को पहचानने लगता है। और इन के बोध में अभिभूत करनेवाला वह तत्त्व नहीं होता जो शब्द की अर्थ-बोधन क्षमता को पहचानने से होता है-वह एक दूसरी ही कोटि का बौद्धिक आनन्द है..

कुलपरम्परानुकूल मेरी पढ़ाई रटन्त से आरम्भ हुईः गायत्री-मन्त्र और अष्टाध्यायी के साथ-साथ मुझे अपने वयोवृद्ध गुरु की स्नेहभरी पण्डिताऊ गालियाँ भी अभी तक याद हैं। लेकिन प्रबुद्ध-चेता पिता ने ‘स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभ्यस्...ङसोसाम्ङिओस्सुप्’ की रटाई के साथ-साथ अँगरेजी की मौखिक शिक्षा भी आरम्भ करवा दी थी, और अक्षर ज्ञान से पहले ही मैं दो-ढाई सौ अँग्रेजी शब्द सीख कर वह भाषा वैसे बोलने लगा था जिसे फर्र-फर्र अँग्रेजी कहते हैं। हमारा दुर्भाग्य था कि हिन्दी में बाल-साहित्य तब लगभग नहीं थी-अब भी कुछ बहुत या अच्छा हो ऐसा नहीं है। तो अँग्रेज़ी तुक से प्रेरणा पा कर अँग्रेज़ी के सहारे ही लोगों को चिढ़ानेवाली कुछ तुकबन्दियाँ भी की थीं-और एक-आध बार बड़ों की इस अवमानना के कारण दण्ड भी पाया था। स्पष्ट है कि इन्हें कविता नहीं कहा जा सकता-लेकिन ‘वागर्थसम्पृक्ति’ के ज्ञान के बाद अगला कदम तो छन्द : परिचय ही है !

यह छठे वर्ष की बात है। इस के बाद न जाने क्यों कई वर्षों का अन्तराल है, जिसमें और बहुत-कुछ जाना-सीखा बहुत-सी दिशाओं में आगे बढ़ा, पर कविता से कुछ परिचय बढ़ा हो ऐसा याद नहीं पड़ता। ग्यारहवें वर्ष में एक ओर टैनिसन की कविता से परिचय हुआ, तो दूसरी ओर असहयोग के पहले दौर से और तत्कालीन ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ को भारत-यात्रा के बहिष्कार के आन्दोलन से। इसी समय दयानन्द की गंगा को लक्ष्य कर के लिखी हुई उदबोधनात्मक कविता भी पढ़ी...


गंगा उठो कि नींद में सदियाँ गुज़र गयीं,
देखो तो सोते-सोते ही बरसें किधर गयीं।


इन सब की सम्मिलित प्रेरणा से मैंने भी गंगा की एक स्तुति लिखी थी जो अनन्तर गंगा मैया को ही भेंट चढ़ गयी। वह मुझे स्मरण होती तो पहली कविता के नाम पर कदाचित् उसी का उल्लेख उचित होता-किन्तु एक तो यह अँग्रेज़ी में थी, दूसरे कविता याद न होने पर भी इतना तो याद है कि इस के छन्द पर, भाषा पर, शैली पर, टेनीसन की गहरी छाप थी !
इन्हीं दिनों पिता के साथ उटकमंड चला गया। मैं स्वभाव से भी एकान्तप्रिय था, और परिस्थितियाँ भी अकेला रखती आयी थीं-पर उटकमंड से तीन मील दूर फर्नहिल नामक स्थान के एक बँगले में रहकर तो मानो एकान्त में डूब ही गया-यद्यपि प्रकृति के स्पन्दन-भरे एकांत काल में मैंने पहले चित्र संग्रह करना शुरू किया अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और उन के नव-बंग सम्प्रदाय की शिष्य परम्परा के चित्र-और उन के एलबम बनाये। यहीं एक दिन सहसा पाया कि मैंने एक हस्तलिखित पत्रिका निकाल दी-‘आनन्द बन्धु’ ! और इस पत्रिका में पहले पृष्ठ पर कविता से ले कर अन्त में सम्पादकीय के बाद चित्र-परिचय तक सब-कुछ था-जैसा कि उस से पहले के वर्षों की ‘सरस्वती’ में हुआ करता था-स्वर्गीय महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पादकत्व में ! पहले अंक में तो कविता के नाम पर गुप्तजी की


‘नीलाम्बर-परिधान हरित पट पर सुन्दर है।’


वाली स्वदेश-वन्दना दी गयी थी, पर दूसरे अंक में समझ में आने लगा कि इस प्रकार उद्धृत सामग्री देना सम्पादन कला के विरुद्ध है। दूसरे अंक में बड़े भाइयों से भी सामाग्री प्राप्त की : एक ने तो ड्यूमा के ‘काउंट ऑफ मांटेक्रिस्टो’ के आधार पर हिन्दीं धारावाही कथा की पहली किस्त दी, दूसरे ने उस समय याद नहीं क्या। पर कविता उस अंक में मेरी हो गयी। यह भी मुझे याद नहीं है; पर उन्हीं दिनों शिव प्रसाद गुप्त की ‘पृथ्वी-प्रदक्षिणा’ निकली थी, जिस में अमरीका के न्यागरा प्रपात को दी गयी कन्या-बलि का उल्लेख था—उसी कहानी से प्रभावित होकर उसी पर कविता लिखी गयी थी....‘आनन्द बन्धु’ का पहला अंक तो बहन-भाइयों ने ही देखा था, दूसरा पिताजी ने भी : उन से इस कविता पर मुझे पाँच रुपये पुरस्कार मिले थे। इस पूँजी पर अगले चार वर्ष तक आनन्द-बन्धु चल सका...मेरे सम्पादन के अनुभव में कदाचित् यही सब प्रीतिकर है, उसके बाद न तो कभी...मेरे सम्पादन के अनुभव में कदाचित् यही सब प्रीतिकर है, उसके बाद न तो कभी इतना कम खर्च हुआ, न इतनी बालानशीनी नसीब हुई !

इन्ही दिनों गुप्त जी की कविता के अतिरिक्त मुकुटधर पाण्डेय, श्रीधर पाठक, ‘हरिऔध’, रामचरित उपाध्याय और आरा के ‘प्रेमयोगी’ देवेन्द्र की कविता से परिचय हुआ। इन सबसे छन्दों के बारे में कौतूहल बढ़ा। रोला और वीर तो हिन्दी के अति परिचित छन्द हैं, जिनसे कौन हिन्दी कवि बचा होगा; और गुप्तजी की कृपा से हरिगीतिका और गीतिका पर भी हाथ साफ करने का साहस हुआ। लेकिन कुछ संस्कृत छन्दों ने भी आकृष्ट किया। ‘हरिऔध’ की यशोदा का विलाप पढ़ कर मैंने मालिनी छन्द में कई एक विलाप लिखे थे— राधा का, प्रवत्स्यत्पतिका वीर-वधू का इत्यादि। मन्द्रकान्ता तब इतना अच्छा नहीं लगा था जितना बाद में लगने लगा, पर ‘शिखरिणी’ पर मैं मुग्ध था—विशेष कर पिता जी के पढ़े हुए ‘महिम्नस्तोत्र’ के कारण। लेकिन ये छन्द कभी मुझसे सधे नहीं, और पीछे बरवै के आकर्षण में अपनी असफलता का दुख भी फूल गया।
‘आनन्द-बन्धु’ के कुछ अंक अभी मेरे पास हैं। जब कॉलेज आया तो कालेजी विद्यार्थी की नयी अहंमन्यता के कारण मैंने कई अंक नष्ट कर दिये, केवल कुछ एक रखे जो ‘अच्छे’ समझे। बाद में कई वर्ष बाद उन्हें फिर देखा तो कुछ ऐसे कौतूहलप्रद लगे कि फिर रख ही छोड़े इन में एक और अंक में एक रचना पर पिताजी के बन्धु रायबहादुर हीरापाल से पुरस्कार मिला था-लेकिन यह रचना गद्य-पद्यमयी थी, और इस में अपने ही परिवार के सब लोगों का कौतुकपूर्ण परिचय दिया गया था। ‘आनन्द-बन्धु’ का पाठक-वृत्त पीछे काफी बढ़ गया था-और वह दो भाषाओं में निकलने लगा था-अँग्रेज़ी अंश तो टाइप भी हो जाता था, इन पाठकों में पिताजी के कुछ मित्र और सहयोगी भी थे, जिन की समालोचनाओं से मुझे बड़ी सहायता मिली।

कहानी तो इन दिनों तक एक छप भी चुकी थी—इलाहाबाद की एक बालचर-पत्रिका ‘सेवा’ में, पर कविता पहले-पहल लाहौर में अपने कॉलेज की पत्रिका में छपी। यह जिस समय लिखी गयी, उस समय मैं अंगरेज़ी ‘गीतांजलि’ के प्रभाव में उसी ढंग के रहस्यवादी गद्य-गीत भी लिखने लगी था—जौ दैव-कृपा से कभी छपे नहीं और मेरे जेल प्रवास के दिनों न जाने कहाँ खो-खो गये। लेकिन तुक-तालयुक्त कविताएँ उन्हीं दिनों छपी थीं। पहली कविता अब ‘चिन्ता’ में संग्रहीत है, और मन होता है कि स्वयं न बता कर लोगों से पूछा करूँ, ‘बताइए, वह कौन-सी होगी ? जैसे टेनिसन ‘मॉड’ कविता की पँक्तियाँ


वर्ड्स इन द हाइ हॉल गार्डन
वेयर क्राइंग एण्ड कालिंग
‘मॉड, मॉड, मॉड, मॉड,’
दे वेयर क्राइंग एण्ड कालिंग


सुना कर पूछा करते थे—‘बताइए तो कौन पक्षी थे वह ?’...लेकिन बता ही दूँ, ‘चिन्ता’ की छठी कविता है, जिस का आरम्भ है—‘तेरी आँखों में क्या मद है...’ और अन्त है—’ जिस को लिख कर तेरे आगे हाथ जोड़ हाथ जोड़ रह जाता हूँ।’ मेरा अनुमान है कि इस पर श्री ठाकुर की ‘गीतांजलि’ का प्रभाव परोक्ष रूप से रहा ही, क्योंकि किन्हीं भी आँखों के मद की महक भी तब तक पहचानी हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। ये भाव कल्पित ही अधिक थे, अनुभूत कम !

इन दिनों कहानियाँ भी लिखीं। इसी समय गुप्त आन्दोलन से भी सम्बद्ध हो गया, और तब कहानियाँ ही अधिक लिखीं-एक उपन्यास भी, जो अनन्तर किसी सहयोगी के पास पकड़ा गया था और फिर खुफिया पुलिस के दफ्तरों में ही कहीं डूब गया, जहाँ अभी तक डूबा हुआ है ! लेकिन जेल जाने के बाद से जोरों से लिखना शुरू किया। उपन्यास, कहानी, कविता, निबन्ध-सब कुछ। इन से अभी अवकाश लिया तो पुस्तकों का अनुवाद करने बैठ गया। इस समय से फिर लेखन का क्रम बराबर चलता रहा। इस लिए पुराना या ‘बुज़ुर्ग’ लेखक होने के मोह में न पड़कर मैं अपने रचनाकाल का आरम्भ तभी से मानता हूँ। और इसी श्रृंखला की पहली कविता को ही पहली कविता कहना भी न्याय-संगत होगा। आप कहेंगे, ऐसा ही था, तो इतनी लम्बी भूमिका क्यों बाँधी, पहले ही कह दिया होता-लेकिन एक तो वह पहली कविता मुझे याद नहीं है, दूसरे ऐसे मामलों में असल बात तो भूमिका होती है, नहीं तो कविता में भला क्या रखा है ! फरहाद ने पहाड़ खोद कर कौन-सी चुहिया निकाली थी, यह किसे याद है-सब पहाड़ खोदने की बात को लेकर ही तो मुग्ध हैं। लेकिन इस क्रम की ठीक पहली कविता कौन-सी है।

यह याद न होने पर भी पहली दो-चार में से एक तो बता ही सकता हूँ। बल्कि वह यहाँ उद्धृत भी की जा सकती है। वह ठीक पहली नहीं है, ऐसा भी मैं नहीं कह सकता-हो भी सकती है, और हो, तो मुझे अच्छा भी लगेगा-क्योंकि बाईस साल बाद भी वह मुझे अच्छी ही लगती है-यद्यपि उस की भाषा बड़ी अटपटी है। और उस की वस्तु पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर की छाप कुछ पड़ी थी या नहीं, यह भी नहीं कह सकता। जो हो, कविता यह है :


दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।
तब ललाट की कुंचित अलकों-
तेरे ढरकीले आँचल को,
तेरे पावन-चरण कमल को,
छू कर धन्य-भाग अपने को लोग मानते हैं सब के सब।
मैं तो केवल तेरे पथ से
उड़ती रज की ढेरी भर के,
चूम-चूम कर संचय कर के
रख भर लेता हूँ मरकत-सा मैं अन्तर के कोषों में तब।
पागल झंझा के प्रहार सा,
सान्ध्य-रश्मियों के विहार-सा,
सब कुछ ही यह चला जाएगा-
इसी धूलि में अन्तिम आश्रय मर कर भी मैं पाऊँगा दब !
दृष्टि-पथ से तुम जाते हो जब।


आज यह सहज विश्वास भी कठिन है, और विश्वास हो तो इस की ऐसी सहज उक्ति और भी कठिन, इस लिए यह याद कर के सन्तोष ही होता है कि एक समय ऐसा था जब न तो विश्वास कठिन था, न उस की सहज अभिव्यक्ति और उसी समय में मैंने पहली कविता लिखी थी......


प्रवृत्ति : अहं का विलयन1


मेरे एक मित्र कहा करते हैं कि अगर अँगरेज़ी न पढ़ा हुआ कोई व्यक्ति आधुनिक अँगरेज़ी कविता से परिचय पाना चाहे, तो उसे ‘अज्ञेय’ की कविता पढ़नी चाहिए। वह मेरे मित्र हैं, इसलिए व्यंग्य करने का उन्हें अधिकार है, और वह उन का उद्देश्य भी है, फिर भी मैं मानता हूँ कि उनकी बात में सार है। यह नहीं कि इससे मैं प्रकारान्त से अपने आधुनिक होने का दावा कर रहा हूँ, यह भी नहीं कि इस से आधुनिक अँगरेज़ी कविता के विषय में जो धारणा बनती है उसे मैं सही मान रहा हूँ; केवल यही कि इससे कुछ तो मेरा उद्देश्य स्पष्ट होता है, और कुछ मेरे काव्य की मर्यादाएँ इंगित हो जाती हैं—इन मर्यादाओं को आप गुण कहें, या विशेषता का केवल दोष, यह आपकी रुचि और मति पर निर्भर है।




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