उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
मैं कौन होता हूँ घास-पात डालनेवाला ?' क्षोभ-भरी कातरता उभर आई लोचन बाबू के स्वर में।
'बस, आपकी इस तरह की बातें ही मन में शंका जगा देती हैं, लोचन भैया। अब कौन नहीं जानता कि असंतुष्टों में आपके समर्थकों की संख्या ही सबसे अधिक है ? बागडोर आपके हाथ में रहेगी... घास-पात कोई दूसरा आएगा डालने ?'
राव की इस बात से मन एकदम खिंच आया लोचन बाबू का, फिर भी अपने को जब्त करके इतना ही कहा, 'शाम को तो सब लोग मिल ही रहे हैं। आप लोग जो चाहें, जैसा चाहें, तय कर लीजिए...मुझे बहुत बड़ी बाधा नहीं पाएँगे उसमें।'
आवाज़ में कुछ ऐसी उदासीनता थी सारे प्रसंग के प्रति कि राव और चौधरी असमंजस में पड़े टुकुर-टुकुर मुँह ही देखते रहे एक-दूसरे का। फिर सारी बात को निहायत ही हलके-फुलके स्तर पर ले जाकर कहा राव ने, 'ठीक है, हम आपके हुकुम के गुलाम हैं, लोचन भैया। आप ज्ञापन तैयार कीजिए...हम हस्ताक्षर करेंगे और करवाएँगे।'
और अंत में चलने से पहले राव ने विजेता की मुद्रा में कहा, 'राव या तो किसी काम को हाथ में लेता नहीं और लेता है तो फिर किनारे लगाकर ही छोड़ता है। समझ लीजिए कि बिसू की यह मौत दा साहब के मंत्रिमंडल की मौत बनकर ही रहेगी अब।'
अपनी इस घोषणा से लोचन बाबू के मन में अपने क़ीमती होने का पूरा-पूरा अहसास जगाकर चले गए वे दोनों।
पर लोचन बाबू हैं कि मंत्रिमंडल की मृत्यु की घोषणा से पुलकित हो रहे हैं, न राव-चौधरी की क़ीमत से चमत्कृत। एक ही प्रश्न है जो उन्हें तरह-तरह से मथ रहा है-यह सब वे किसलिए कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं ?
क्या इसी परिवर्तन के लिए सुकुल बाबू की पार्टी और विधानसभा छोड़ी थी उन्होंने ? इसी क्रांति का सपना देखा था ? और क्या इसी टुच्चेपन की सौदेबाज़ी के लिए मंत्रिमंडल गिराने की बात सोच रहे हैं वे ? नाम, चेहरे, लेबुल भले ही अलग-अलग हों-पर अलगाव है कहाँ-सुकुल बाबू...दा साहब...राव...चौधरी...।
तब ?
पौ अभी पूरी तरह फटी भी नहीं ! वातावरण में धुंधलका शेष है। दा साहब नंगे पैर हरी दूब पर चहलकदमी कर रहे हैं। ओस-भीगी दूब पर घूमने से केवल नेत्रों की ज्योति ही नहीं बढ़ती, मन-मस्तिष्क में भी ऐसी तरावट आती है कि सारा दिन आदमी तनाव-मुक्त होकर काम कर सकता है। मन शांत, चित्त प्रफुल्लित !
पांडेजी भी साथ हैं दा साहब के। भोर का सुहाना समाँ, ठंडी बयार और सुकून देने वाला दा साहब का साथ-फिर भी चिंता और परेशानी की लकीरें हैं कि पांडेजी के चेहरे पर मिट नहीं रहीं !
लोचन बाबू के घर रात दो बजे तक होनेवाली बैठक का पूरा ब्यौरा सुनाने के बाद भी जैसे बोझ हलका नहीं हुआ पांडेजी का।
आज ही अप्पा साहब से मिलनेवाले हैं लोचन बाबू और लगता है, इस बार पहले की तरह माननेवाले भी नहीं हैं ये लोग ! सुकुल बाबू के कारण यह चुनाव ही काफी बड़ा सिरदर्द बना हुआ है-ज़रूरत तो इस समय यह है कि सब लोग एकजुट होकर काम करें।...सो मदद तो दूर, ऐन इसी मौके पर...।' स्वर में क्षोभ इतना गहरा हो गया कि बाक़ी शब्द उसी में डूब गए।
बात बहुत ध्यान से ही सुन रहे हैं दा साहब और मन में कहीं गहरे उतर भी रही है, पर चेहरे पर किसी तरह का कोई विकार नहीं, कोई प्रतिक्रिया भी नहीं।
‘पिचासी लोग समर्थन करने जा रहे हैं लोचन बाबू का।'
'बहुत आशावादी है लोचन ! अच्छा है, इस उम्र में आशावादी होना चाहिए व्यक्ति को ! मात्र उम्मीद की डोर से बँधा हुआ आदमी भी बहुत कुछ कर गुज़रता है कभी-कभी !'
पांडेजी इस समय इस तरह की प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा नहीं कर रहे ! सीधे ही पूछा, 'लोचन बाबू से मिलेंगे आप ? समय तय करूँ ?
अप्पा साहब से शायद इस बार...।'
‘पांडे ?' बात बीच में ही तोड़ दी दा साहब ने, 'तुम्हें सरोहा चुनाव-क्षेत्र की जिम्मेवारी दी है, तुम उसे ही सँभालो ! इधर की चिंता से अपने को परेशान करने की ज़रूरत नहीं !'
बहुत चौकस रहते हैं दा साहब कि हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी और अधिकार की सीमा के भीतर ही रहे ! उसमें जहाँ तक संभव हो दा साहब हस्तक्षेप नहीं करते, पर दूसरे भी अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करें, इसकी छूट क़तई नहीं देते।
पांडेजी का यह काम ज़रूर है कि शहर के हर कोने में होनेवाली गतिविधि की सूचना दा साहब को दें, पर मात्र सूचना दें। उनसे दा साहब पर होनेवाली प्रतिक्रिया जानना या दा साहब की योजनाओं को जानना उनके अधिकार की सीमा में नहीं आता ! हाँ, सरोहा का काम उन्होंने खुद पांडेजी को सौंपा है पूरे विश्वास के साथ, और पूरे अधिकार देकर। सो बात को उसी प्रसंग में लाकर उन्होंने पूछा, 'सरोहा में भाषण पंद्रह तारीख़ को है न-यानी परसों ?'
'जी हाँ !'
'तैयारी ?'
'घरेलू-उद्योग-योजना का प्रचार पूरे जोर-शोर के साथ हो रहा है। हमारे लोग घर-घर जाकर समझा रहे हैं और फ़ार्म भरवा रहे हैं।'
‘लोगों की प्रतिक्रिया ?'
'कुछ लोगों के मन में बहुत उत्साह है-कुछ के मन में अविश्वास भी कि बातें तो कब से सुन रहे हैं, कुछ होएगा-जाएगा भी या यों ही !'
'काग़ज़ी योजनाएँ अविश्वासी तो बना ही देती हैं लोगों को !'
पांडेजी को लगा जैसे योजना के कागज़ तक रह जाने के लिए वे ही ज़िम्मेदार ठहराए जा रहे हैं। सफ़ाई देते-से बोले, ‘पर इस मद के लिए... !'
'खैर छोड़ो !' बीती बातों पर व्यर्थ ही समय नष्ट नहीं करते दा साहब ! 'दो बातों का ध्यान रखा गया है न ? इस योजना में पंचायत कहीं नहीं आए। असंतुष्ट हैं लोग पंचायत से।'
‘जी नहीं, एक अलग दफ़्तर की व्यवस्था की गई है। सरकार का सीधा नियंत्रण रहेगा उस पर।'
'उस योजना का अधिक-से-अधिक लाभ हरिजनों और खेत मजदूरों को ही मिले।'
'आप निश्चित रहें।'
'तुम्हें काम सौंपने के बाद में निश्चित ही रहता हूँ। जितना सोचता हूँ उससे अधिक ही संतोषजनक मिलता है तुम्हारा काम।
और दा साहब ने स्नेह और प्रशंसा में भीगी हुई एक ऐसी नज़र डाली कि पांडेजी भीतर तक पुलकित हो गए।
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