उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
सारी बात का उपसंहार करते हुए अंतिम बात कह दी लोचन बाबू ने। अप्पा साहब लोचन के चेहरे को देखते रहे, फिर उन्होंने झुककर अपनी छड़ी उठाई और दोनों हाथों से पकड़कर उसे यों ही जमीन पर ठोंकते हुए बोले, 'तुम जिन लोगों के भरोसे त्यागपत्र देने जा रहे हो, उन पर विश्वास कर सकते हो इतना कि और ज्यादा बड़ा प्रलोभन मिलने पर भी वे तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेंगे ? फ़ेन्स पर बैठकर हर दिन अपना मोल-भाव करनेवाले लोगों के बूते पर तुम यह निर्णय ले रहे हो...मुझे डर है, तुम्हें कहीं मुँह की न खानी पड़े !'
अप्पा साहब ने जैसे अपने अनुभव के निचोड़ से लोचन बाबू को एक बार और आगाह करना चाहा !
'मैंने न किसी को प्रलोभन दिया है, न ख़रीदा है। अपने सिद्धांतों के प्रति जिनके मन में जरा-सी भी निष्ठा बाक़ी बची रह गई है, वे खुद-ब-खुद एक होकर आ गए हैं हमारी तरफ़ !'
'सिद्धांत !' हलके-से हँसे अप्पा साहब। फिर समझाते हुए बोले, 'देखो, विरोधी पार्टी के लोग बिसु की मौत को एक राजनीतिक हथकंडा बनाएँ, यह तो समझ में आता है, पर...।' बात अधूरी छोड़ दी अप्पा साहब ने और छड़ी पर अपने शरीर का सारा वज़न डालकर उठ खड़े हुए।
लोचन बाबू भी खड़े हो गए तो अप्पा साहब ने खुद अपना एक हाथ बढ़ाकर उनके कंधे पर टिका दिया।
'तुम्हारी रातवाली मीटिंग को लेकर सवेरे दिल्ली से बात हुई थी। इस महत्त्वपूर्ण चुनाव के मौके पर तुम्हारे इस आचरण पर काफ़ी रोष है वहाँ। न चाहते हुए भी मुझे कोई सख्त क़दम उठाने को मजबूर किया गया तो ?' धीरे-धीरे चलते हए ही उन्होंने यह संकेत दे दिया लोचन बाबू को।
क़तई विचलित नहीं हुए लोचन बाबू ! केवल इतना ही कहा, 'बहुत महँगा पड़ेगा।'
बढ़ता हुआ क़दम थम गया अप्पा साहब का। बहुत ही पैनी नज़र डाली उन्होंने लोचन बाबू के चेहरे पर, मानो भीतर तक डूबकर इस बात का असली मतलब जानना चाहते हों। लेकिन लोचन बाबू के चेहरे पर किसी तरह का कोई भाव नहीं था।
अपनी नज़र के पैनेपन को बरक़रार रखते हुए आखिर वह प्रश्न पूछ ही डाला अप्पा साहब ने, जिसे वे इतनी देर से टालते आ रहे थे, 'सुकुल बाबू के साथ ही कोई समझौता हो रहा है न ? सुना है, चुनाव में गुप्त रूप से तुम सुकुल बाबू का काम कर रहे हो ?'
इस बार ठहाका लगाकर हँसे लोचन बाबू। हँसी थमी तो केवल इतना ही कहा, 'लगता है, सारा ध्यान अपने गुप्तचर विभाग पर ही केंद्रित कर रखा है दा साहब ने ! शायद इसीलिए गृह-मंत्रालय भी खुद ही दबाकर बैठे हैं-किसी और को नहीं देते ! खैर, कम-से-कम इस विभाग की अतिरिक्त सजगता-सक्रियता के लिए तो बधाई देनी ही चाहिए उन्हें।'
ड्राइवर ने तपाक से फाटक खोला तो हाथ का सहारा देकर लोचन बाबू ने भीतर बैठाया अप्पा साहब को।
लोचन बाबू की इस अप्रत्याशित हँसी और उनके कहे हए वाक्य ने पश्चात्ताप-मिला असमंजस बिखेर दिया अप्पा साहब के चेहरे पर। शायद यह बात उन्हें नहीं कहनी चाहिए थी। वे खुद भी कभी विश्वास नहीं कर पाए थे इस बात पर।
लोचन बाबू गाड़ी का फाटक बंद करने लगे तो अप्पा साहब ने बीच में ही रोक दिया। बड़े आग्रह से हाथ पकड़कर भीतर की ओर खींचते हुए कहा, 'दो मिनट के लिए बैठो ज़रा !'
बैठे नहीं लोचन बाबू। खड़े-खड़े ही पूछा, 'कहिए ?'
लोचन के हाथ को अपने हाथ से सहलाते हुए बड़े स्नेह और याचना-भरे स्वर में कहा अप्पा साहब ने, 'देखो, इस पार्टी को बनाने में तुम्हारा बहुत सहयोग रहा है और मैं जानता हूँ कि इस पार्टी में आस्था है तुम्हारी...बल्कि कहूँ कि मोह है तुम्हें। अपनी बनाई चीज़ से होता ही है। इसलिए कह रहा हूँ कि अपने इस निर्णय को थोड़े समय के लिए स्थगित ही रखो। चुनाव के बाद जैसा चाहोगे, वैसा ही होगा। निश्चय ही दा साहब को नए सिरे से अपने विधायकों का विश्वास प्राप्त करना होगा।'
रुके अप्पा साहब ! सोच रहे थे कि तुरंत ही उलटकर जवाब थमाएगा लोचन, पर लोचन बाबू कुछ नहीं बोले। सामने गाड़ी के शीशे के पार ही कुछ देखते रहे। थोड़ा और हौसला बढ़ा अप्पा साहब का। 'बात केवल मंत्रिमंडल के टूटने तक की ही होती तो मैं कभी इतना आग्रह करने नहीं आता तुम्हारे पास। लेकिन इस समय नासमझी में उठाया गया तुम्हारा क़दम पूरी पार्टी को ही ले डूबेगा। मुझे विश्वास है कि कम-से-कम तुम पार्टी के साथ ऐसा...।' बात अधूरी छोड़ दी अप्पा साहब ने।
लोचन बाबू ने नज़र घुमाकर अप्पा साहब के चेहरे की ओर देखा और देखते ही रहे। फिर बहुत ही सहज स्वर में पूछा, 'अपने प्रति आपके इस विश्वास को सच मानूँ या कि दो मिनट पहले ही व्यक्त किए गए अविश्वास को ?'
केवल इतना सच मानो कि आज हम सब बहुत-बहुत अवश हो उठे हैं-अपने आपसे-अपने आसपास से-अपने ऊपर से !'
और एकाएक अप्पा साहब का स्वर किसी गहरी मजबूरी के कारण भीग-सा उठा। उन्होंने जल्दी से लोचन बाबू का हाथ छोड़ा और फाटक बंद करके गाड़ी चलाने का आदेश दे दिया।
गाड़ी की घरघराहट के बीच एक वाक्य और कहा, 'फ़ोन करूँगा।'
गाड़ी चली गई और निष्प्रभ-से लोचन बाबू जहाँ-के-तहाँ खड़े रह गए। अप्पा साहब के अनेक तेवर उन्होंने देखे हैं-आक्रोश के, आरोप के, व्यंग्य के, काँइयाँपन के पर यह तेवर ! एकाएक इसे नाम नहीं देते बना कुछ।
पर इतना ज़रूर महसूस किया कि किसी गहरी असहायता में भीगा अप्पा साहब का यह स्वर उनकी अपनी ही किसी दुखती रग को छु गया। पिछले तीन महीनों से क्या वे खुद अपने को किसी ऐसी ही मजबूरी में घिरा हुआ नहीं पा रहे ? चाहते कुछ हैं, करते कुछ। एक दोहरी जिंदगी जीने की लाचारी ! लेकिन नहीं, अब और नहीं।
स्वास्थ्य-मंत्री राव और विकास-मंत्री चौधरी ने बड़े ध्यान से अप्पा साहब और लोचन बाबू के बीच हुई बातचीत का एक-एक शब्द सुना ! ‘मंत्रिमंडल गिराओ' अभियान में दोनों दाएँ-बाएँ हाथ बने हुए हैं लोचन बाबू के। व्यक्तित्व में चाहे कोई साम्य नहीं है, पर इस समय एक ही जमीन पर खड़े हैं, इसलिए कहीं बहत निकट हैं। अंतिम बात सुनने के बाद सीधे ही पूछा राव ने, “तो आपका इरादा कुछ डगमगा तो नहीं रहा, लोचन भैया ?'
'नहीं, नहीं।'
‘हाँऽऽ ! अब ज्यादा सोच-विचार में मत पड़िए। आगजनी वाली घटना के बाद ही हम लोग अड़ गए होते तो सरोहा-चुनाव में आज हमारा आदमी खड़ा होता। पर हर बार हमें दबा दिया गया और हम दब गए। कभी अनुशासन के नाम पर, तो कभी पार्टी की एकता के नाम पर। कभी अप्पा साहब के घुटने के नीचे, तो कभी दिल्ली के अंगठे के नीचे। लेकिन इस बार...।'
इस बार चूके तो बस चूके !' बीच में ही बात लपक ली चौधरी ने।
'यही सही मौक़ा है। जिस तरह की घटनाएँ घटी हैं, उससे साख तो गिरी है दा साहब की सबकी नजरों में। अभी हम अपने असंतोष की बात करते हैं, तो उसे वज़न मिलेगा। कल को सरोहा-चुनाव जीत गए तो साख फिर बुलंदी पर और हमारा असंतोष बेबुनियाद । जहाँ पल में तोला, पल में माशा वाली स्थिति हो, वहाँ ज्यादा सोच-विचार में पड़ना ही नहीं चाहिए। आप ज्ञापन का मसविदा तैयार कीजिए !!
इन दोनों की बातों से लोचन बाबू के मन में उभर आए दुविधा-द्वंद्व अपने-आप बह गए। उत्साह में भरकर ही उन्होंने कहा, 'ठीक है, मसविदा तैयार कर लेते हैं हम, और अधिक-से-अधिक लोगों के हस्ताक्षर करवाकर दे देते हैं अप्पा साहब को।'
हूँऽऽ !' इस बार सोच का पुट राव के स्वर में था। लेकिन बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी उसे बाहर आने में। सीधे ही पूछा राव ने, 'ज्ञापन देने से पहले हम लोग आपस में भी कुछ बातचीत कर लें तो क्या ज्यादा अच्छा नहीं होगा ? बहुत साफ़ बातचीत बिना किसी लाग-लपेट के।' और उसकी मँजरी आँखों में एक स्पष्ट-सी धूर्तता उभर आई।
राव का मतलब समझने में देर नहीं लगी, और न ही उन्होंने नासमझ बनने की कोशिश की। केवल इतना ही कहा, 'ये सब बातें तो बाद में ही हो सकती हैं, पहले बहुमत तो प्राप्त कर लो।'
लोचन बाबू की आवाज़ की सख्ती और सर्दी का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा राव पर। बेझिझक हो कहा उसने, 'बहुमत प्राप्त कहाँ से होगा ? हवा में तलवार भाँजने को कौन तैयार होगा भला ? पाँच मंत्री त्यागपत्र देने को तैयार हुए हैं...आख़िर किस आधार पर ?'
'क्यों ? दा साहब की नीतियों से असहमति के कारण।'
ज़ोर से हँसा राव, मानो कोई बहुत ही मजेदार बात कह दी हो लोचन बाबू ने। जब हँसी थमी तो अपनी मँजरी आँखों को लोचन बाबू के चेहरे पर टिकाकर बोला, 'यहाँ आप जनता के सामने नहीं बोल रहे लोचन भैया, बलि चढ़ाए जाने वाले दो बकरों के सामने बोल रहे हैं। घास-पात की कुछ व्यवस्था तो करेंगे या नहीं ?'
अनायास ही लोचन भैया के मन में अप्पा साहब का कहा हुआ वाक्य कौंध गया, 'हर दिन अपना मोल-भाव करनेवाले लोगों के बूते पर तुम यह निर्णय ले रहे हो...' और क्षण-भर पहले उमड़े जोश पर फिर ठंडे छींटे पड़ गए।
'लगता है आप लोग तो सारा हिसाब-किताब करके ही आए हैं। तो फिर अपनी क़ीमत भी बता दीजिए।'
बात में नहीं, पर कहने के लहजे में भीतर तक काट देनेवाली व्यंग्य की धार ज़रूर थी। मगर राजनीति में रहकर जिनकी खाल गैंडे की तरह हो गई हो, वे कटते नहीं इतनी आसानी से।
'करके तो नहीं आए, पर करने ज़रूर आए हैं।' स्वर में न कहीं संकोच था, न दुविधा। राव की हर बात पर चौधरी की गरदन जिस तरह हिल रही थी, उससे साफ़ लग रहा था कि दोनों अपनी-अपनी गोटियाँ बिठा चुके हैं।
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