उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
तनिक भी आहत नहीं हए अप्पा साहब इस आवेश से। पार्टी की सुरक्षा और सुनाम दोनों को बनाए रखना उनका दायित्व है, और वे काफ़ी सचेत भी हैं अपने इस दायित्व के प्रति।
'हाँ, प्रतिष्ठा पर ठेस तो लगी ही है इन सब बातों से और अब जो थोड़ी-बहुत प्रतिष्ठा बची है, उसे तुम मटियामेट कर दो।'
एक बड़ी ही असहाय-सी कातरता उभर आई उनके चेहरे पर, 'जनता के अनंत विश्वास, प्यार और सद्भावनापूर्ण समर्थन के मज़बूत पायों पर खड़े होकर भी हमारी पार्टी की उम्र-जुम्मा-जुम्मा आठ दिन-बस !' और इस विडंबना पर उन्होंने कंधे उचकाकर हाथ झटक दिए।
'लगता है, आप लोग इस बात को तो शायद बिलकुल भूल ही गए हैं कि दा साहब के व्यक्तित्व से परे भी पार्टी का कोई अस्तित्व है?'
लोचन बाबू के स्वर में आरोप स्पष्ट था और क्षण-भर को सकपका भी गए अप्पा साहब। पर फिर बात को सँभालते हुए बोले, 'तुम गलत समझ रहे हो। मेरा मतलब केवल इतना ही था कि सुकुल बाबू का आना पूरी पार्टी के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है, इसे मत भूलो।'
'पार्टी...पार्टी...पार्टी ! जैसे पार्टी के अस्तित्व को बनाए रखना ही हमारा लक्ष्य हो गया है। इस पार्टी के माध्यम से हमने कुछ बहुत बड़ी-बड़ी बातें करने के दावे भी तो किए थे। क्या हुआ उन सबका ?'
अपनी कही बातें न कर पाने का क्षोभ साफ़ झलक रहा है लोचन बाबू के चेहरे पर भी, उनके स्वर में भी। पर अप्पा साहब पर कोई खास असर नहीं हुआ उस क्षोभ का ! बड़े सहज स्वर में बोले, ‘होता है कभी-कभी ऐसा भी। मंज़िल तक पहुँचने के लिए हम सड़क बनाते हैं...पर जब सड़क बन रही होती है, उस समय वही हमारा लक्ष्य होती है, वही हमारा केंद्र। मंज़िल पर पहुँचने का माध्यम तो वह बनने के बाद ही बनती है।'
अपनी इस उपमा की सटीकता पर वे खुद ही गद्गद हो गए। लगा जैसे अपने भीतर उठते हुए सारे प्रश्नों का समाधान भी उन्हें मिल गया। पर लोचन बाबू ने एक वाक्य में ही चाक कर दिया उनके सारे सोच को।
‘जो सड़क रोज़ एक गज़ बनती है और दो गज़ खुदती है, उसके पूरी होने की बात पर क्या आप सचमुच विश्वास करते हैं ? आप भ्रम में रहना चाहते हैं, ज़रूर रहें, पर अब यह दोहरी जिंदगी जीना मेरे बस का नहीं।'
मानो अंतिम फैसला सुना दिया लोचन बाबू ने ! अप्पा साहब बोले कुछ नहीं। बस, एकटक लोचन बाबू का चेहरा देखते रहे, मानो अपनी नज़रों से ही लोचन बाबू के निर्णय का वज़न तौल रहे हों।
तभी फ़ोन की घंटी बजी। लोचन बाबू ने जरा-सा झुककर रिसीवर उठाया और बिना पूरी तरह यह सुने कि फ़ोन किसका है, घंटे-भर बाद फ़ोन करने का आदेश देकर रिसीवर रख दिया।
'हम चाहते हैं कि विधायक दल की बैठक बुलाकर जल्दी-से-जल्दी शक्ति-परीक्षण की तारीख तय कर दें आप !'
यह अनुरोध था, आग्रह था या आदेश-समझ पाना मुश्किल था !
'हूँऽऽ ! दा साहब भी विधायक दल की बैठक बुलाने का आग्रह कर रहे हैं ! कुछ मंत्रियों को बर्खास्त करना चाहते हैं। इतने विरोध के साथ काम करना मुश्किल हो रहा है उनके लिए।' अपनी बात की प्रतिक्रिया देखने के लिए एक उड़ती-सी नज़र डाली उन्होंने लोचन के चेहरे पर।
'मैं ही रोके हुए हूँ। कम-से-कम चुनाव तक ये आपसी मतभेद दूर ही रखे जाएँ तो बेहतर होगा। अध्यक्ष के नाते अभी मैं केवल यही कह सकता हूँ कि इस समय एकजुट होकर हमें चुनाव-अभियान में लग जाना चाहिए।'
'लखन के लिए ?' होंठों पर व्यंग्य और विद्रूप-भरी मुसकान उभर आई लोचन बाबू के।
'नहीं, पार्टी के लिए।
‘भीतरी मतभेद और आपसी कटुता को अब आप इन बाहरी कारणों से दबा नहीं पाएँगे। दबाना उचित भी नहीं है। हम पाँच मंत्री अपना त्यागपत्र देने जा रहे हैं, और इस बार पार्टी और एकता की आड़ लेकर आप हमें निर्णय से डिगा नहीं पाएँगे।'
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