उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
भवानी के घर आदमी भेजकर ख़बर करवा दी गई। दो कंपोज़िटरों को वापस बुलवाया गया। दत्ता बाबू काग़ज-कलम लेकर बैठ गए। रोज़ ही कागज़ रँगनेवाले के लिए भी लिखना इतने संकट का काम हो सकता है, यह पहली बार महसूस किया दत्ता बाबू ने। बाएँ हाथ से कुछ भी घसीट देनेवाले दत्ता बाबू ज़िम्मेदारी के बोझ के नीचे कुछ ऐसे दबे कि क़लम ही कंठित हो गई उनकी। दो लाइनें लिखते और चार लाइने काटते।
इस समय अपने लिखे को अपनी नज़रों से नहीं, वरन दा साहब की नजरों से देखकर तौल-परख रहे थे दत्ता बाबू !
दत्ता बाबू लिख-लिखकर दे रहे थे...कंपोज़िटर कंपोज़ करता जा रहा था। रात में ही भवानी ने जाकर नरोत्तम को जगाया। नरोत्तम की रिपोर्ट तैयार नहीं थी सो नरोत्तम को ही पकड़ लाया भवानी। वहीं बैठकर रिपोर्ट तैयार की जाएगी...दत्ता बाबू के सहयोग से।
और इस तरह बिसू की मौत को लेकर शहर का यह तीसरा कोना जो बहुत साधारण और निष्क्रिय था-एकाएक महत्त्वपूर्ण और सक्रिय हो उठा। रात-भर एक अजीब-सी खलबली मची रही इस कोने में भी-एक उत्तेजनापूर्ण खलबली।
दूसरे दिन 'मशाल' का अंक आया-बिलकुल नए तेवर के साथ। हेडलाइन बिसेसर की मौत की ख़बर की ही थी। साथ लंबा वक्तव्य दिया गया था, जिससे पुलिस की अभी तक की तहक़ीक़ात के आधार पर यह संकेत दिया गया था कि यह हादसा हत्या का नहीं, आत्महत्या का है। साथ ही दा साहब के सख्ती से दिए गए उस आदेश का हवाला भी था, जिसमें उन्होंने पुलिस को गहरी छानबीन करके एक बेबाक रिपोर्ट तैयार करने की ताक़ीद की थी।
अंत में सुकुल बाबू के भाषण को एक जिम्मेदार व्यक्ति की निहायत गैर-ज़िम्मेदाराना हरकत बताते हुए यह आरोप लगाया था कि उन्होंने एक छोटी-सी घटना को महज़ अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए मनमाने ढंग से विकृत करके लोगों में बिला वजह तनाव बढ़ाने का निंदनीय काम किया है।
संपादकीय में, संक्षेप में पर अधिक तीखी भाषा में इन्हीं सब बातों को समेटते हुए जनता को आगाह किया था कि और अधिक समय तक वह इस तरह की राजनीतिक चालों और चुनाव जीतने के हथकंडों का शिकार न बने।
यानी मि. बिसू की मौत ने एकाएक 'मशाल' को प्रजातंत्र की ज़िम्मेदारियों से लैस करके एक महत्त्वपूर्ण अख़बार बना दिया और दत्ता बाबू को एक ज़िम्मेदार संपादक।
शिक्षा-मंत्री त्रिलोचनसिंह रावत की कोठी। पर इस नाम से कम ही लोग जानते हैं इन्हें। सबके बीच तो लोचन भैया के नाम से जाने-पहचाने जाते हैं। केवल नाम से ही लोचन नहीं, कुछ समय पहले सचमुच ही जनता के प्रिय-लोचन हो गए थे। बात कोई बहुत पुरानी भी नहीं, मुश्किल से चार साल पहले की है। उस समय सुकुल बाबू भी विधान सभा के सदस्य थे। तभी राजनीति में एक ऐसी मारक हवा चली जिसने बड़े-बड़े राजनेताओं की रीढ़ को नीचे खींचकर दुम में बदल दिया था, जो अपने से ऊपर वाले के सामने केवल हिलती रहती थी। ढोल पीटने और दुहाई देने के लिए तो ज़रूर प्रजातंत्र था, पर उसकी असलियत यह कि प्रजा बिलकुल बेमानी और तंत्र मुट्ठी-भर लोगों की मनमानी। ऐसे समय में लोचन बाबू सुकुल बाबू के विरोध में खम ठोंककर खड़े हो गए-अपनी रीढ़ पर। खड़े होने की क़ीमत तो चुकानी ही थी-चुकाई भी। पर उस दिन से वे जनता के प्रिय लोचन भैया बन गए। मुक़द्दर के ऐसे सिकंदर निकले कि चुकाई क़ीमत को भरपूर वसूलने का मौक़ा भी आ खड़ा हुआ-तुरत-फुरत। मौक़ा आते ही जनता ने प्रिय लोचन भैया को भारी बहुमत से जिताकर वापस विधान सभा में बिठाया-बाइज्जत। अपने प्यार को सबूत दे दिया जनता ने, तो अब लोचन भैया को वफ़ादारी निभानी है। बहुत बड़ी-बड़ी बातें की थीं-लम्बे-चौड़े आश्वासन दिए थे और अब अपना ही कहा हर शब्द चुनौती बनकर खड़ा है उनके अपने सामने। कतराना क़तई नहीं चाहते इस चुनौती से, पर डटकर सामना कर सकें, इस स्थिति में भी अपने को नहीं पा रहे।
जिस दिन हरिजन बस्ती में आग लगी उस दिन से यह कोठी भी एक तरह से सुलग ही रही है। कोठी नहीं, कहना चाहिए लोचन भैया का मन सुलग रहा है। सरोहा-चुनाव के लिए सुकुल बाबू के वज़न के जितने भी नाम प्रस्तावित हुए, उन सबको धराशायी करके जिस बेशर्मी और ढिठाई के साथ दो कौड़ी की औक़ातवाले लखन को खड़ा किया गया, उसने उस आग को और भड़का दिया। लेकिन बिसू की मौत से तो एकदम लपटें उठने लगी हैं उनके मन में। आत्मा के साथ बलात्कार करने की व्यथा क्या होती है, यह इन दिनों में ही जाना है लोचन भैया ने ! देश की गरीब जनता के प्रति पूरी तरह समर्पित उनका व्यक्तित्व उनके अपने लिए एक भारी समस्या बन गया है। ‘बहुत बरदाश्त कर लिया, अब तिल-भर भी और नहीं' वाली मुद्रा अपनाए घूम रहे हैं पिछले हफ़्ते से।
केवल लोचन भैया ही नहीं, दा साहब के मंत्रिमंडल से और भी अनेक विधायक असंतुष्ट हैं और असंतोष के अपने-अपने कारण भी हैं। वैसे ईमानदारी की बात तो यह है कि असंतोष का सिलसिला तो मंत्रिमंडल बनने के पहले दिन से शुरू हो गया था, पर उस समय परिस्थिति की माँग कुछ ऐसी थी कि सबने अपने-अपने चेहरों पर स्नेह, सद्भावना, संतोष और एकता के मुखौटे चढ़ा लिए थे कसकर, और आदर्शों के लबादे ओढ़ लिए थे। असंतोष भीतर-अपने लिए, और बाक़ी सब बातें बाहर-दूसरों के लिए। पर घटनाएँ कुछ इस तरह घटती रहीं कि मुखौटों पर दरार-पर-दरारें पड़ने लगी और लबादों के चिथड़े बिखरने लगे। बिसू की मौत ने तो जैसे चकनाचूर ही कर दिया इन मुखौटों को। इतने दिनों से भीतर-ही-भीतर कसमसाते सबके असली चेहरे निकल आए हैं, अपने पूरे नंगेपन के साथ-असंतोष से पुते हुए और कुछ भी कर गुजरने को तत्पर। कल रात को दो बजे तक इन्हीं नंगे-असंतुष्ट चेहरों की ऐसी आवाज़ाही मची रही है इस कोठी में कि लगा कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटने जा रहा है। और अब सचमुच घटाकर ही रहेंगे लोचन भैया ! उनके भीतर पाँच साल पुराना लोचन जाग उठा है इस समय।
रात-भर जागने की थकान जरूर है चेहरे पर-पर शरीर में शिथिलता कहीं नहीं। अंग-प्रत्यंग चुस्त-दुरुस्त-मोर्चा लेने को तैयार। पार्टी अध्यक्ष सदाशिव अत्रे की-जिन्हें लोग अप्पा साहब कहते हैं-प्रतीक्षा में बैठे हैं। सवेरे लोचन बाबू ने मिलने के लिए समय माँगा तो अप्पा साहब ने बताया कि वे इधर ही आ रहे हैं किसी काम से, और ठीक नौ बजे खुद ही पहुँच जाएँगे। कहा है तो जरूर पहुँचेंगे और नौ बजे ही पहुँचेंगे। कुछ ऐसी विपरीत स्थितियों में जीवन जिया है अप्पा साहब ने कि बात के पाबंद तो हो नहीं सके चाहकर भी, पर समय की पाबंदी का यह हाल कि लोग चाहें तो घड़ी मिला लें उनके आने-जाने से।
ठीक नौ बजे प्रकट हुए अप्पा साहब। क़लफ़-इस्त्री से चुस्त-दुरुस्त शुभ्र-वर्णी खादी की पोशाक और गाँधी टोपी। शरीर के एक अविच्छिन्न अंग की तरह हमेशा सिर से ही चिपकी रहती है यह टोपी। शायद ही कभी किसी ने नंगे सिर देखा हो अप्पा साहब को। छड़ी लेकर चलते हैं-उम्र के कारण नहीं-बाएँ पैर में हलकी-सी लँगड़ाहट है। ‘बयालीस के आंदोलन में मिला हुआ तमगा'-बड़े गर्व से परिचय देते हैं अपनी इस टाँग का और एकाएक अपनी पीढ़ी की प्रशस्ति में दो-एक वाक्य उछाल देते हैं- 'हमारी पीढ़ी ने तो केवल त्याग करना ही जाना था-आकांक्षा-अपेक्षा तो कुछ रखी ही नहीं कभी। और आज की पीढ़ी-त्याग करेंगे कन-भर और बदले में चाहेंगे मन-भर।' बात ठीक भी है। अप्पा साहब की पीढ़ी के उन लोगों के लिए तो शत-प्रतिशत ठीक है जो त्याग करते-करते ही एक दिन चोला समेटकर शहीद हो गए। जो बच गए वे बेचारे क्या करें...इस कलजुगी हवा के आगे मजबूर !
लोचन बाबू ने बढ़कर बिना ज़रूरत के हाथ का हल्का-सा सहारा देकर सोफे पर बिठाया अप्पा साहब को-शायद आदर-भरी आत्मीयता दिखाने के लिए।
'रात बड़ी देर तक बैठक होती रही तुम्हारे यहाँ, बहुत उखाड़-पछाड़वाली बैठक !' एक पैर उठाकर सोफे पर रखते हुए कुछ इस तरह कहा अप्पा साहब ने कि पता नहीं लग सका कि यह प्रश्न था या आरोप ? पर बात सीधे ही शुरू की उन्होंने। फ़ालतू की भूमिका में ज़ाया करने के लिए न समय है उनके पास, न शायद धैर्य !
'हाँ, उसी सिलसिले में मैं मिलना चाह रहा था आपसे।' फिर एक क्षण रुके लोचन बाबू। मानो अगला वाक्य कहने से पहले उसे तौल रहे हों, 'कल अंतिम रूप से यह निर्णय लिया गया है कि अब हम लोग एक दिन के लिए भी इस मंत्रिमंडल का हिस्सा बनकर नहीं रहेंगे। स्थितियों को और अधिक बरदाश्त करना अब संभव नहीं।' अपनी बात की प्रतिक्रिया देखने के लिए अप्पा साहब के चेहरे को गौर से देखा, फिर अपनी बात पूरी कर दी, और अब दा साहब का मंत्रिमंडल भी नहीं रह सकेगा।'
'हम लोग कौन ?' चेहरे पर बिना किसी तरह का विकार लाए सीधा-सा प्रश्न पूछा अप्पा साहब ने।
'जैसे आप जानते ही न हों ? खैर, नाम तो बाद में भी मालूम होते रहेंगे...अभी संख्या जानना काफ़ी होगा आपके लिए। पार्टी के एक सौ चालीस सदस्यों में से पिचासी सदस्य हैं हमारे साथ-स्पष्ट बहुमत।'
'और तुम नेतृत्व कर रहे हो उनका ?' इस बार स्वर में सीधा आरोप था और आरोप में अध्यक्ष पद के रौब की अनुगूंज।
'उससे कोई फ़रक नहीं पड़ता। सरेआम जिस तरह के जुल्म और ज़्यादतियाँ हो रही हैं...उन सबके साझीदार हों हम भी...लानत है हम पर...।'
आवेश के मारे लोचन बाबू का चेहरा तमतमाने लगा।
'अत्याचारी को संरक्षण दो और पीड़ितों को कुचलो। यही थे हमारे आदर्श-हमारे सिद्धांत, जिन्हें लेकर चले थे हम ?' स्वर में जैसे चुनौती भरी हुई है लोचन बाबू के।
'सिद्धांतों और आदर्शों में तो यह भी नहीं था कि हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और हित को पार्टी की एकता और उसके हित से ऊपर रखेंगे।'
बात बेहद ठंडे लहजे में ही कही गई थी, पर लोचन बाबू एकदम भुन गए। तमककर पूछा, 'कौन देख रहा है अपना स्वार्थ ? गरीब तबक़ों के हित की बात करना अपने हित की बात करना है ? जातिवाद का विरोध करना अपना स्वार्थ है ?
'मुख्यमंत्री बनने का आश्वासन मिला है ?' स्वर में आक्रोश नहीं, पर चीर देने वाले व्यंग्य का पैनापन ज़रूर है।
क्षण-भर को तिलमिला गए लोचन बाबू। लेकिन तुरंत ही अपने पर जब्त कर लिया उन्होंने। यह अतिरिक्त आवेश कहीं उनकी अपनी कमजोरी का प्रमाण न बन जाए ! भरसक अपने को तनाव-मुक्त करके सहज बनाया लोचन बाबू ने, फिर चेहरे पर एक बहुत ही महीन किस्म की, अभिजात्य में लिपटी व्यंग्यात्मक मुसकान पोती और बोले, 'अधिकतर समय दा साहब के साथ उठने-बैठने के कारण इस नतीजे पर पहुँचे आप तो कोई आश्चर्य नहीं।'
तभी लोचन बाबू की बिटिया चाय लेकर आ गई। कप थामने के बाद बिटिया को बड़े स्नेह से बाँह से थामकर अपने पास बिठाया अप्पा साहब ने।
'अरे, तू तो बहुत जल्दी-जल्दी बड़ी हो रही है, सोना। अच्छा है, जल्दी से बड़ी हो जा और अपने बाबूजी को कंट्रोल में रखना शुरू कर दे। बहुत फनफनाते रहते हैं।' और एक बुजुर्गाना हँसी !
सोना बिना कुछ जवाब दिए अप्पा साहब की गिरफ्त में से छूटकर भागी और भीतर गायब हो गई। इस वाक्य से बातचीत में जो एक हलका-फुलकापन आया था, सोना के साथ ही वह भी गायब हो गया।
अपने-अपने कपों से चाय की चुस्कियाँ लेते हुए दोनों एक-दूसरे के बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। चाय का अंतिम छूट समाप्त करके कप एक ओर सरकाया अप्पा साहब ने और रूमाल निकालकर हलके-से ओठों से छुआकर उसे वापस जेब के हवाले किया। इसके बाद बात को बिलकुल दूसरे सिरे से पकड़ा। बात का केवल सिरा ही नहीं बदला था...अप्पा साहब का स्वर, तेवर और लहजा भी एकदम बदला हुआ था, 'देखो लोचन, तुम सब लोगों के असंतोष की बात तो उठती ही रहती है...बल्कि कहूँ कि हर दूसरे-तीसरे दिन ही उठती रहती है। बहुत गलत भी नहीं कहता मैं तुम लोगों को। तुम क्या सोचते हो, मेरे अपने मन में असंतोष नहीं है ? जो कुछ हो रहा है, जिस तरह हो रहा है-बहुत खुश हूँ मैं उससे ?'
और सचमुच ही असंतोष और दुख की हलकी-सी छाया उभर आई अप्पा साहब के चेहरे पर।
'गलत बातें हुई हैं और गलत बातें सभी को असंतुष्ट करती हैं।
पर यह मत भूलो कि हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहाँ से बिना दुविधा के कोई एक रास्ता चुन पाना संभव नहीं।'
एक क्षण चुप रहकर फिर अप्पा साहब ने अपनी बात आगे बढ़ाई, 'जानते हो, इस समय तुम लोगों के आपसी मतभेद उभरकर सामने आएँ या कि मंत्रिमंडल गिराया जाए तो सरोहा-चुनाव पर क्या असर पड़ेगा उसका? बात केवल एक सीट की नहीं...सुकुल बाबू के आने की है। उनकी जीत हमारी नालायकी का डंका-पीट ऐलान होगा कि नहीं ? पार्टी के लिए अच्छा होगा यह, या उसके हित में होगा ? क्या इमेज बनेगी उसकी ? ज़रा ठंडे दिमाग से सोचकर देखो !'
लेकिन ठंडे दिमाग से सोचते कैसे, लोचन बाबू का दिमाग तो इस समय भट्ठी बना हुआ था, सो अप्पा साहब की इतनी महत्त्वपूर्ण बात भी उसमें भुनकर राख हो गई। उनके उठाए प्रश्नों को मन में उतारने की बजाए लोचन बाबू ने अपनी तरफ़ से उसी तर्ज़ का एक प्रश्न जड़ दिया, 'मजदूरों को सरकारी-रेट पर मजदूरी न मिलना...आदमियों को जिंदा जला दिया जाना...दिन-ब-दिन बढ़ते अत्याचार...असुरक्षा...बिसू की मौत...इन सबसे तो चार चाँद लग रहे हैं न पार्टी की इमेज पर ? पार्टी का ध्यान ही किसे रह गया है आज ?'
आवेश है कि रह-रहकर उभर ही आता है लोचन बाबू के स्वर में। क्या करें, उनके व्यक्तित्व की बनावट ही ऐसी है।
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