उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
दत्ता बाबू खिसियाकर रह गए। मन में कहा, यह आदमी तो हाथ ही नहीं रखने देता कहीं। अब कहें तो क्या ?
'सरकारी विज्ञापन मिलने लगे...कागज़ का कोटा मिल रहा है... ?'
'जी, उसी में थोड़ी दिक़्क़त पड़ रही है। बात यह...।'
'तो बताइए न अपनी दिक़्क़त। दिक़्क़त दूर करने के लिए ही तो मैं यहाँ बैठा हूँ।'
एकदम कृतज्ञ हो गए दत्ता बाबू। मुख्यमंत्री खुद बुलाकर उनसे दिक़्क़तों की बात पूछ रहे हैं।
‘जी, अगर आप कोटा बढ़वा दें तो...।'
'हो जाएगा...हो जाएगा। उसके लिए जो खानापूरी करनी है कर दीजिए। और कुछ परेशानी हो तो बताइए।' और दा साहब ने बगल में रखी फ़ाइल उठाकर सामने कर ली।
दत्ता बाबू ने संकेत समझ लिया और बड़े अदब से उठते हुए पूछा, 'तो अब आज्ञा है ?'
हूँ... !' फ़ाइल के पन्ने पलटते हुए दा साहब ने कहा, 'जा सकते हैं अब आप, पर ध्यान रखिए, काम बहुत जिम्मेदारी से हो अब ?' फिर नज़रों को दत्ता बाबू के चेहरे पर टिकाकर और आवाज़ में हलकी-सी सख्ती लाकर बोले, 'आपके साप्ताहिक के कुछ अंक देखे हैं मैंने ! बात की असलियत पर उतना ध्यान नहीं रहता आपका। जासूसी क़िस्से-कहानियों की तरह बहुत चटपटा और सनसनीखेज़ बनाकर छापते हैं आप बातों को। आगे से ऐसा न हो।'
खड़े होने के साथ ही पड़ी इस दुलत्ती ने लड़खड़ा दिया दत्ता बाबू को। हकलाकर बोले, ‘जी, वो बात...।'
'जो हुआ उसकी सफ़ाई नहीं माँग रहा। आगे सावधानी बरतिए।'
और दा साहब ने अपना सिर फ़ाइल में गड़ा दिया। दत्ता बाबू दा साहब के यहाँ से निकले तो भय और प्रसन्नता के बोझ से दबे जा रहे थे। उन्होंने सीधे प्रेस का रास्ता लिया।
अंक क़रीब-करीब छप ही गया होगा। हत्या की बात तो उन्होंने भी लिखी है और काफ़ी सनसनीखेज बनाकर ही लिखी है। दा साहब की अंतिम बात और उनका उस समय का तेवर याद आते ही भीतर तक थरथरा गए। अभी जाकर रुकवाते हैं। जैसे भी होगा, रात-भर में दुबारा छपवा लेंगे। सरोहा से सुकुल बाबू के भाषण की रिपोर्ट तो अभी तक आई नहीं होगी। यह भी मालूम नहीं कि भवानी ने भेजा किसे हैं वहाँ ? वैसे तो अगले ही अंक में देते उसे, पर यदि रात में आ जाती है तो इसी अंक में दे देंगे। ऐसा निकालना है इस अंक को कि दा साहब भी मान जाएँ। एक बार नज़रों में चढ़ जाए 'मशाल' तो पौ-बारह !
प्रेस पहुँचकर देखा, भवानी आखिरी फ़र्मे का मैटर ओ. के. करके मशीन पर चढ़वा चुका था और घर जाने की तैयारी में था। वैसे ऐसा कभी हो नहीं पाता। जिस दिन अंक निकलनेवाला होता है, उसके पहलेवाली रात प्रेस में ही गुज़ारनी पड़ती है भवानी को। उसे बाहर जाने को तैयार देख दत्ता बाबू ने पूछा, 'यह अभी से कहाँ चले ?'
भवानी ने तुरंत जेब से सिनेमा के तीन पास निकालकर मेज़ पर फैला दिए और हँसकर कहा, 'आज नौ बजे के बाद का समय भवानी की भवानी ने अपने नाम कर लिया है। वैसे आख़िरी फ़र्मा मशीन पर चढ़वा दिया है...सवेरे अंक तैयार।'
‘ऐसी की तैसी तुम्हारी और तुम्हारी भवानी की ! आज जाना नहीं हो सकता, मालूम भी है मैं कहाँ से आ रहा हूँ ?' दत्ता बाबू ने कंधा दबाकर खड़े हुए भवानी को फिर कुर्सी में धाँस दिया।
'तुम कहीं से भी आ रहे हो, मेरा जाना नहीं रुक सकता। नहीं गया तो आज क़त्ले-आम हो जाएगा।' दत्ता बाबू की गिरफ्त से छूटने की कोशिश करते हुए भवानी ने कहा।
'क़त्ले-आम तो तुम्हारा होना ही है। यह अंक फिर से छपेगा।'
'क्याऽऽ ?' बात का कुछ सिर-पैर नहीं समझ आया भवानी के।
और तब दत्ता बाबू ने पहले मशीन रुकवाई और बाद में बैठकर भवानी को अपने और दा साहब के बीच हुए वार्तालाप का ब्यौरा बताया।
‘दा साहब ने खुद बुलाकर कहा, यह सब तुमसे ? दा साहब की कृपा हो जाए तो देर नहीं लगेगी 'मशाल' की रोशनी को देश के कोने-कोने में फैलने में !' जाने को उत्सुक भवानी पसरकर बैठ गया और जूते खोलकर पैर भी ऊपर चढ़ा लिए।
'सच यार, मैं तो सोच रहा था कि 'मशाल' के बंद होने को आपातकाल के मत्थे मढ़कर मैं भी कोई लंबा हाथ मार लूँगा। पर बुढ़ऊ है तेज़ चीज़। उसे मालूम था असली कारण...। मुझ पर ही उलट आया। एक मिनट को तो सचमुच ही हवा खिसक गई मेरी। लेने-के-देने पड़ने लगे। पर बात को ज़्यादा तूल नहीं दिया।'
'तुम तो सबसे पहले जाकर कागज़ का अपना कोटा डबल करवा लो।'
'खैर, यह सब बाद में होगा...सबसे पहले नए अंक की तैयारी करो। सरोहा किसे भेजा था ? कोई रिपोर्ट आई सुकुल बाबू के भाषण की?
'अभी कहाँ से आएगी ? इसी अंक में तो जाना भी नहीं था उसे। नरोत्तम लौट भी आया होगा तो भी सवेरे ही संपर्क होगा उससे तो।'
'नहीं, यह रिपोर्ट भी इसी अंक में जाएगी। नहीं हुआ तो अंक शाम तक निकालेंगे। पर अंक ऐसा निकले कि बस धाक जाम जाए।'
'हाँ, कम-से-कम दा साहब पर तो धाक जम ही जाए।'
अंक निकालकर देखा कि पहला और अंतिम पेज बदल देने से बात बन जाएगी।
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