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महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


दत्ता बाबू को तो जैसे बढ़ावा मिल गया। अख़बार बंद हो जाने की भड़ास निकालने का मौक़ा आ गया। भभककर बोले, 'अशोभनीय ? मैं कहता हूँ, काले अक्षरों में लिखा जाएगा उन शर्मनाक ज़्यादतियों का इतिहास...गला घोंटकर रख दिया था सबका ! मैं तो...।'

'न...न...दत्ता बाबू !' अंकुश लगा दिया दा साहब ने, 'आपका इस तरह टिप्पणी करना भी कोई खास शोभनीय नहीं है। आप लोगों ने जो भूमिका अदा की, उसे किन अक्षरों में लिखेंगे आप ? चापलूसी और जी-हुजूरी की भूमिका तो नहीं है अख़बारनवीसों की !'

दत्ता बाबू की साँस भीतर ही खिंची रह गई। दा साहब ने पैनी नज़र से देखते हुए कहा, 'फिर आपका अख़बार तो अश्लीलता के आरोप पर बंद हुआ था। सो भाई...।' बात अधूरी ही छोड़ दी दा साहब ने।

दत्ता बाबू की नज़रें ज़मीन पर और मन गड्ढे में। फिर भी किसी तरह साहस बटोरकर बोले, 'जी, वो झूठा आरोप था...असल में हमारे अख़बार ने...अब मैं...।'

'खैर, छोड़िए। जो कुछ हुआ उस पर टीका-टिप्पणी करना अच्छा लग सकता है, पर उचित नहीं है। उस सबके लिए मैंने बुलाया भी नहीं है आपको। बेहतर यह है कि अब मौक़ा मिला है...लोगों ने भरोसा करके कुछ ज़िम्मेदारियाँ सौंपी हैं तो उन्हें अच्छी तरह निभाएँ। पूरी लगन और निष्ठा के साथ। हम लोग भी...।' क्षणांश का विराम देकर, एक-एक अक्षर पर जोर देते हुए वाक्य पूरा किया, 'आप लोग भी।'

शब्दों में तो ऐसा कुछ नहीं था, पर पता नहीं दा साहब के लहजे में कुछ था या उनकी नज़रों में कि एकदम सकते में आ गए दत्ता बाबू। मन-ही-मन याद करने की कोशिश करने लगे कि कहाँ क्या गुनाह हो गया ! पर दा साहब ने तुरंत ही उबार लिया। बड़े सहज भाव से पछा, 'अब तो गला घुटने का अहसास नहीं होता है आपको ? किसी तरह का कोई अंकुश तो नहीं महसूस होता अपनी बात कहते समय ?'

'जी नहीं...बिलकुल नहीं।' पर इतनी-सी बात कहते समय भी आवाज घुटी-घटी ही निकल रही थी दत्ता बाबू की ! सहज नहीं हो पा रहे थे।

'खुलकर टिप्पणी कीजिए। हम गलती करें तो खुलकर निंदा कीजिए हमारी भी।

दत्ता बाबू टुकर-टुकर दा साहब का मुँह ही ताकते रहे।

'मैं तो भाई, कबीर के दोहे का क़ायल हूँ कि 'निन्दक नियरे राखिए'। प्रशंसक से निन्दक ज़्यादा हितैषी होता है हमेशा। आपको सत्पथ पर रखता है। आदमी एक बार इस गुर को समझ ले तो हमेशा के लिए भटकने से बच जाए। पर स्वभाव है आदमी का-प्रशंसा ही अच्छी लगती है उसे।' हँस पड़े दा साहब, तो दत्ता बाबू ने भी राहत की साँस ली। नहीं, ऐसी कोई ख़ास बात नहीं, बेकार ही इतना सिटपिटा गए थे वे।

तभी फ़ोन की घंटी बज उठी। दा साहब ने चोंगा उठा लिया, 'हूँ ? कौन सिन्हा ? हाँ बोलो...।'

हूँ...हूँ...अच्छा !' चेहरा कुछ तनने लगा दा साहब का। 'देखो, भाई, तुम मामले की तह तक जाओ और दूध को दूध और पानी को पानी करो ! यह काम है तुम्हारा। समझे ?'

हूँ...हूँ...!'

'देखो सिन्हा, मैं चाहता हूँ कि घटना की सही-सही तहक़ीक़ात हो। कोई क्या कहता है, इसकी चिंता मत करो। मेरे कहने की भी चिंता मत करो। बस अपना फ़र्ज़ निभाओ, ईमानदारी और सच्चाई के साथ !'

'सो तो होगा, इसे कौन रोक सकता है ? और देखो, किसी अफ़सर को भेजकर फिर से बयान लेने को कहो। सुना है, लोगों ने डर के मारे सही बयान नहीं दिए।'

फिर आवाज़ में हल्की-सी सख्ती लाकर कहा, 'पुलिस के सामने जनता को अधिक सुरक्षित महसूस करना चाहिए...आतंकित नहीं !

जनता यदि डरती है तो कलंक है यह पुलिसवालों के लिए। मेरे अपने लिए भी। यह मैं बरदाश्त नहीं करूंगा।' फिर आदेश देते-से बोले, ‘जाइए, जैसे भी हो उन्हें भरोसा दीजिए...निडर बनाइए कि वे सच बात कहें।

'.....'

‘ऐसी घटनाएँ घटें और पुलिस ठीक-ठीक पता न लगा पाए तो मतलब क्या हुआ पुलिस का ? इससे तो बेहतर है कि आप और हम इस्तीफ़ा देकर बैठ जाएँ।

'नहीं...नहीं ! अपना दोष दूसरों पर मढ़ने से काम नहीं चलेगा। जनता बयान नहीं देती तो क्यों ? कौन ज़िम्मेदार है इसके लिए ?... नहीं...नहीं, मैं बहाने नहीं, काम चाहता हूँ। पिछली बार की बात बरदाश्त कर गया, पर इस बार यदि मुजरिम नहीं पकड़ा गया तो मैं सज़ा आपको दूंगा, अपने को दूंगा, समझे ?'

'हाँ, यह हुई न कुछ बात !...अच्छा, तुम एक काम करो। कल शाम को फ़ाइल लेकर मेरे पास आओ, मैं खुद देखूगा। इन छोटी-छोटी बातों को लेकर गाँववालों में तनाव हो, यह ठीक नहीं। तीन-चार दिन में मैं भी जा रहा हूँ वहाँ...बात करूँगा लोगों से ! पर जाने से पहले पूरी जानकारी होनी चाहिए वाक़िये की।'

दा साहब ने फ़ोन रख दिया। और दोनों हथेलियों में अपना सिर थाम लिया। लगा जैसे किसी गहरी चिंता में डूब गए हों।

दत्ता बाबू बेचारे इस दौरान अजीब-से पशोपेश में बैठे रहे। समझ ही नहीं पा रहे थे कि उनका यहाँ बैठे रहना सही भी है या नहीं ? और नहीं है, तो जाएँ भी कैसे ?

पर कुछ ही क्षणों में दा साहब ने अपना चेहरा उठाया। क्षण-भर पहले के तनाव, परेशानी और सख़्ती का कहीं नामोनिशान भी नहीं था। वही सहज-संयत भाव। शांत-गंभीर मुद्रा।

'डी.आई.जी. सिन्हा का फ़ोन था,' बड़ी लापरवाही से दा साहब ने कहा।

दत्ता बाबू के चेहरे पर असमंजस का जो भाव पुता हुआ था उसमें कौतूहल और आ मिला।

‘जी, कोई ख़ास बात ?' बातचीत से अनुमान तो लगा लिया था दत्ता बाबू ने, फिर भी पूछा, पर पूछते ही एक विचित्र-से संकोच में भी पड़ गए। पता नहीं, यहाँ बैठकर यह पूछना उनके अधिकार की सीमा में है भी या नहीं ?

दा साहब की नज़रें जाकर शून्य में टँग गई और दत्ता बाबू असमंजस में बैठे रहे। थोड़ी देर में दा साहब अपने में लौटे और दत्ता बाबू के प्रश्न का सूत्र पकड़कर ही बोले, 'ख़ास क्या...वही सरोहावाली वारदात...मालूम होगा आपको तो ?'

‘जी हाँ, जी हाँ, वो बिसेसर नाम के किसी नौजवान की हत्या का मामला...।'

‘हत्या का मामला ?' चुभती-सी नज़र से देखा दा साहब ने तो दत्ता बाबू बीच से ही थम गए।

'हत्या के प्रमाण मिल गए आपको ?' सख्त-सी आवाज़ में पूछा दा साहब ने।
'नहीं, वो वहाँ के लोग...।'

'लोग नहीं, विरोधी पार्टी के लोग। यही तो कह रहे हैं डी. आई. जी. कि घटनावाले दिन के सारे बयानों से नतीजा कुछ ऐसा निकल रहा है कि लड़के ने आत्महत्या की है और सुकुल बाबू के लोग दूसरे दिन से ही वहाँ चिल्लाते फिर रहे हैं कि हमें इस हत्या का जवाब चाहिए। अभी कोई घंटा-भर पहले सभा करके धुआँधार भाषण दे दिया सुकुल बाबू ने। पुलिस की रिपोर्ट आई नहीं, उनकी रिपोर्ट आ गई !'

दत्ता बाबू थोड़े असहज हो चले। फिर भी खैर मनाते रहे कि 'मशाल' का अंक अभी नहीं निकला। कल निकलनेवाला है और उसमें भी हत्या की ही बात लिखी हुई है। बल्कि हेडलाइन ही है वह।

'ठीक है भाई, तुमको चुनाव जीतना है...पर लोगों की शांति और आपसी सद्भावना पर तो मत जीतो। होगा क्या, गाँव में पहले ही तनाव है, और बढ़ जाएगा। आपस में ही मार-काट मचेगी। और इस सबका परिणाम ? पिसेगा बेचारे गरीबों का तबका। संपन्न लोग तो जैसे-तैसे बच ही जाते हैं-पैसे के ज़ोर से, ताक़त के ज़ोर से। मरता तो गरीब ही है न ? नहीं...नहीं...।'

दा साहब की आत्मा जैसे चीत्कार कर उठी, 'यह तो गरीबों की क़ब्र पर अपना महल खड़ा करने की बात हो गई।'

दा साहब की आवाज़ दुख और क्षोभ में भीग उठी। चेहरे पर भी विषाद की हलकी-सी छाया पुत गई। दत्ता बाबू ने भी प्रत्युत्ता में दा साहब के चेहरे से थोड़ा-सा विषाद लेकर अपने चेहरे पर पोत लिया और 'त्...त्...' करके अपनी चिंता प्रकट कर दी।

'दुहाई गरीबों की सब देते हैं, पर उनके हित की बात कोई नहीं सोचता। जनता को बाँटकर रखो...कभी जात की दीवारें खींचकर, तो कभी वर्ग की दीवारें खींचकर ! जनता का बँटा-बिखरापन ही तो स्वार्थी राजनेताओं की शक्ति का स्रोत है। कुछ गलत कह रहा हूँ मैं ?'

दत्ता बाबू ने बड़ी मुश्किल से थूक निगला। बेचारे समझ ही नहीं पाए कि किन शब्दों में दा साहब की इन ऊँची-ऊँची बातों का समर्थन करें !

पर दा साहब को उनके समर्थन की अपेक्षा भी नहीं थी। गहरी निष्ठा से उपजी हुई बातें बाहरी समर्थन की मोहताज नहीं होतीं। कभी-कभी पराकाष्ठा में दा साहब कुछ-कुछ दार्शनिक हो जाते हैं।

'लेकिन मैं क्यों किसी के विवेक-अविवेक पर टिप्पणी करूँ ? बस, अपने कर्त्तव्य पर चल सकूँ और अपनी आत्मा की आवाज़ को कभी अनसुना न करूँ, यही बहुत है मेरे लिए। गीता से एक यही तो सीख ली है मैंने।'

और आँख मूंदकर मन-ही-मन जैसे गीता को नमस्कार किया दा साहब ने। दुबारा जब आँख खुली तो न चेहरे पर परेशानी थी, न विषाद, न आरोप। लगा, जैसे गीता ने क्षण-भर में ही सब-कुछ पोंछकर उनकी अपनी गरिमा लौटा दी उन्हें। वही सौम्य, शांत, संयत चेहरा।

सारे प्रसंग को स्थगित करके उन्होंने नए सिरे से दत्ता बाबू के साथ जोड़ा अपने को।

'खैर, छोड़िए। आप से तो मैं पूछ रहा था कि अब तो किसी तरह की कोई पाबंदी...कोई अंकुश तो नहीं महसूस होता आप लोगों को ? होता हो तो साफ़ कहिए। साफगोई का आदर करता हूँ मैं।'

दत्ता बाबू कुछ कहते, उसके पहले ही दा साहब फिर चालू हो गए, 'पिछली सरकार ने कुछ अख़बारों को विज्ञापन न देने का आदेश दे रखा था सरकारी महकमों में। सही बात कहने का साहस दिखलाया था इन अख़बारों ने। उसी की सजा थी यह शायद। पर भाई मेरे, साहस को तो पुरस्कृत होना चाहिए। मैंने वे सारी पाबंदियाँ हटा दी हैं। अख़बारों पर किसी तरह की भी पाबंदी हो, प्रजातंत्र की हत्या है यह।'

दा साहब एक क्षण रुके। अपनी बात की प्रतिक्रिया देखने के लिए दत्ता बाबू की ओर देखा। दत्ता बाबू चेहरे पर अनंत श्रद्धा-संभ्रम लपेटे बैठे थे। उसी भाव से लिपटा एक वाक्य निकला, 'जी, इस बात को कौन नहीं जानता ? हम लोग तो बहुत-बहुत शुक्रगुज़ार हैं आपके...।'

नहीं...नहीं, शुक्रिया की कोई बात नहीं। यह तो कर्त्तव्य था मेरा। इसे तो करना ही था ' फिर ज़र। चेतावनी के स्वर में बोले, 'आपके अख़बारों को पूरे हक़ मिल गए, अब आप लोगों को पूरा कर्त्तव्य भी निभाना चाहिए अपना-देश के प्रति, समाज के प्रति और ख़ास करके इस देश की गरीब जनता के प्रति। बहुत भारी ज़िम्मेदारी होती है अख़बारनवीसों के कंधों पर। और मैं चाहता हूँ कि उसके प्रति पूरी तरह सचेत हो...आप...।'

और 'आप' कहने के साथ ही दा साहब ने गरदन को हल्का-सा आगे करके ऐसी नज़रों से देखा कि दत्ता बाबू को लगा, जैसे नज़रों से ही ज़िम्मेदारी की पोटली सरकी और दत्ता बाबू के कंधों पर लद गई।

'जी...सही फ़रमाया है आपने।' फिर ज़िम्मेदारी के बोझ के नीचे दबे-दबे ही पूछा, 'जी, मेरे लायक कोई हुक्म ?'

क्या ?' कुछ इस तरह पूछा दा साहब ने जैसे कोई बहुत ही अपरिचित और अनसुना-सा शब्द सुन लिया हो-हलकी-सी सख्ती के साथ बोले, 'दूसरों के हुकुम पर चलकर अपना वजूद रख सकेंगे आप ? मैंने हकम देने के लिए नहीं, केवल आपका कर्त्तव्य बताने के लिए बुलाया था आपको यहाँ।' फिर आवाज़ को थोड़ा मुलायम बनाकर कहा, 'चाहता हूँ, कम-से-कम इस भाषा को भूल जाएँ आप लोग।'

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