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उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


सक्सेना ने एक बार ऊपर से नीचे तक उसका मुआयना किया और फिर अपनी कार्रवाई शुरू की। नाम, उम्र और पेशे की ख़ानापूरी करने के बाद पहला प्रश्न आया, 'तुमने बिसेसर की लाश किस समय देखी ?'

‘जी यही कोई भोर साढ़े चार-पाँच का समय रहा होगा।'
'उस समय तुम क्या करने गए थे उधर ?'
‘जी, दिशा-फरागत के लिए उसी रास्ते से जाना पड़ता है।'

हूँ ऽऽ..तुम्हें दूर से कैसे पता लग गया कि पुलिया पर लेटा हुआ आदमी मरा हुआ है ?'

'नहीं, बिलकुल पता नहीं लगा, साहब ! लग रहा था जैसे कोई सो रहा है। पुलिया के नीचे नाला है ना...मुझे लगा कि इस आदमी ने कहीं करवट ली तो गिर पड़ेगा नाले में...जाकर चेता हूँ। पास जाकर देखा कि अरे यह तो बिसू है। बिलकुल ही नहीं लग रहा था कि मरा हुआ है। मरने की बात तो तब पता लगी जब जगाने के लिए मैंने उसे छुआ।

हूँऽऽऽ।' क़लम चल रही है सक्सेना की। खुद ही लिखेंगे सारे बयान बिलकुल अपने हाथ से।

मैं तो भला करने गया था सरकार, और मैं ही फँस गया। पर सच कहता हूँ साहब, इस सारे मामले में मेरा कोई क़सूर नहीं। मुझे तो न बिसू से कुछ लेना-देना, न बिसू की मौत से।

जितनी बात पूछी जाए, उसी का जवाब दो,' लिखते-लिखते ही सक्सेना ने कहा।

'हाँ, ज्यादा बकवास की जरूरत नहीं।' थानेदार ने घुड़का तो सक्सेना ने डंडे के हलके-से इशारे से उसे चुप करा दिया। संकेत पाते ही थानेदार सहमकर अपने में सिमट गया।

'बिसू को जानते थे तुम ?'

‘जी, गाँव में सभी तो एक-दूसरे को जानते हैं।' बड़ी कातरता और बेबसी से जोगेसर ने कहा, मानो बिसू को जानना भी कोई अपराध हो।

'किस तरह का लड़का था वह ?'

'अरे एकदम सिरफिरा, साहब। हम तो कहें कि सारे गाँव के लिए बला था ससुरा।' सक्सेना ने 'सिरफिरा' को रेखांकित किया।

'सिरफिरा से तुम्हारा क्या मतलब ? पागल था ?' सक्सेना ने नज़रें जोगेसर के चेहरे पर गड़ाकर पूछा। नज़रों के पैनेपन से ही हकबका गया जोगेसर। गले से आवाज ही नहीं निकली।

'बोलो, बोलो।' सक्सेना ने हौसला बँधाते हुए पूछा, 'पागल लगता था तुमको वह ? पागलपन के आसार नज़र आते थे तुमको उसमें ?'

‘और क्या पागल तो था ही, सरकार। आप ही सोचिए, जिसका दिमाग ठीक होगा वह कुछ काम-धाम नहीं करेगा...धंधा-रोज़गार नहीं करेगा ? सो सब कुछ नहीं। वहाँ हरिजन-टोला में घूमा करता था आवारों की तरह। यह किसी समझदार और अच्छे आदमी का काम है भला ?'

'पागल' और 'आवारा' रेखांकित।

'जब तुमने लाश देखी तो आसपास किसी आदमी को भी देखा था...घूमते-टहलते या और कुछ करते हुए ?'

'नहीं साहब, किसी को नहीं देखा ! निपट सन्नाटा था वहाँ।'

'कोई चीज़ देखी वहाँ ! जैसे कोई डंडा, चाकू, पिस्तौल या ऐसी कोई चीज़ जिससे कि मारा जा सके आदमी को।'

‘नहीं साहब, हमने कुछ नहीं देखा। हम क्यों छानबीन करेंगे इतनी ?'

'अच्छा, लाश को देखने के बाद तुमने क्या किया ?'

'क्या करता साहब, मैं तो एकदम डर गया। उलटे पैरों लौटकर उसके बाप को खबर दी।' फिर जैसे अपने को ही कोसते हुए बोला, 'बेकार ही अपने को फँसाया, चुपचाप आगे बढ़ जाना चाहिए था। पर डर के मारे...'

थानेदार ने आँखों से ही घूरा तो वाक्य अधूरा ही छूट गया। 'उसके बाप के घर जाते समय रास्ते में तुम्हें कोई नहीं मिला ?' 'नहीं साहब, कोई नहीं मिला। वह रास्ता थोड़ा सुनसान ही रहता है।'

हूँऽऽ!' कुछ सोच में पड़ गए सक्सेना। दो क्षण चुप रहकर वे केवल जोगेसर को घूरते रहे। नज़र के इस पैनेपन से जोगेसर को भीतर-ही-भीतर कँपकँपी छूटने लगी। उसने अपनी नज़रें ज़मीन पर गाड़ दी, पर उसके बावजूद वह अपने चेहरे पर सक्सेना की नज़र की चुभन महसूस करता रहा और उसके पैर थरथराते रहे।

अच्छा यह बताओ, तुम्हारी जानकारी में गाँव में उसकी दुश्मनी थी किसी से ?'

जोगेसर के मन में तो आया कि कह दे, ‘आधा गाँव तो दुश्मन बना रखा था ससुरे ने...इसको उससे लड़ाना, उसको इससे लड़ाना, और काम ही क्या था उसका ? अच्छा-भला काम करते मजदूरों को भड़काया करता था सारे दिन।' पर जैसे ही नज़र सक्सेना की नज़रों से मिली, आवाज़ जैसे भीतर ही भिंच गई। बोला ही नहीं गया कुछ।

'सच-सच बोलो और साफ़-साफ़ बोलो। डरने की कोई बात नहीं। गाँव में किसी से दुश्मनी थी उसकी ?'

सक्सेना की तरफ़ से आश्वासन मिलते ही जोगेसर के मन में एक क्षण को जोरावर का नाम कौंधा ज़रूर, पर अदृश्य लाठियों ने टिकने नहीं दिया इस नाम को। हिम्मत बाँधकर इतना ही कहा, 'हमने कहा न साहब, हमें उसके बारे में नहीं मालूम। ऐसे आवारा लोगों से हम तो दूर ही रहते हैं, साहब...बहुत दूर !'

'हूँऽऽ ! तो तुम्हारी जानकारी में गाँव में उसका कोई दुश्मन नहीं था?'

'हाँ, साहब, हमें नहीं मालूम। मैं तो वैसे भी दूसरों के मामले में पड़ता ही नहीं। परचून की छोटी-सी दुकान है। बस घर से दुकान-दुकान से घर, यही कुल जमा जिंदगी है और अपन खश हैं अपनी जिंदगी से। चैन से खाता और चैन से सोता हूँ। मैं तो कहता हूँ साहब, लोग अपने-अपने धंधों से लगे रहें तो कैसा अमन-चैन हो जाए सब तरफ़ ! सब अपनी-अपनी सुलटो भाई ! पागल कुत्ते ने काटा है, जो दूसरों की बात में टाँग...।'

कुछ नोट करते-करते सक्सेना का डंडा हवा में हिला और जोगेसर की ज़बान की लगाम खिंच गई।

एक मिनट सक्सेना यों ही शून्य में देखता रहा, फिर कहा, 'अच्छा, अब तुम जा सकते हो।'

पर गया नहीं जोगेसर। हाथ जोड़कर रिरियाता हुआ बोला, 'हम आपसे फिर कहते हैं सरकार, इस मामले से हमारा कोई लेना-देना नहीं। आप तो हमारे माई-बाप हैं, आपसे झूठ नहीं बोलेंगे। हम एकदम बेक़सूर हैं। अब आप ही सोचिए साहब, हम नियम से पूजा-पाठ करनेवाले आदमी...आप हमारा विश्वास करिए...।'

संकेत पाते ही थानेदार ने धीरे से बाँह पकड़कर जोगेसर को बाहर किया। पर बाहर जाते-जाते भी उसने बड़ी ही कातर और याचना-भरी नज़रों से सक्सेना को देखा !

थोड़ी देर तक सक्सेना कुछ लिखते रहे। जैसे ही उन्होंने फ़ाइल पर से नज़र ऊपर उठाई, थानेदार ने चेहरे पर ढाई-इंची मुस्कान लपेटकर बरफ़ का ठंडा पानी पेश किया ! पानी पीकर गिलास वापस थमाते हुए उन्होंने पूछा, 'कैसा आदमी है ये जोगेसर ?'

‘एकदम गऊ, सर ! बहुत भला और शरीफ़ आदमी है। लड़ाई-झगड़ा, दंगा-फ़साद सबसे दूर। थोड़ा डरपोक ज़रूर है ! जब से सुना...।'

'हूँ ऽऽ !' सक्सेना ने अंकुश लगा दिया।

‘महेश शर्मा को बुलाओ।'

थोड़ी देर बाद महेश शर्मा हाजिर हुए। शहरी लिबास, शहरी अदा ! सक्सेना ने पहले ऊपर से नीचे तक महेश शर्मा को अपनी नज़र में समेटा, फिर पूछा, 'आप यहाँ के तो नहीं मालूम पड़ते, मिस्टर शर्मा ?'

'जी नहीं, मैं दिल्ली से आया हूँ।'

'किस सिलसिले में ?' सक्सेना के चेहरे पर आश्चर्य-मिश्रित कौतूहल उभर आया।

‘अपने रिसर्च-प्रोजेक्ट के सिलसिले में। गाँव में क्लास-स्ट्रगल और कास्ट-स्ट्रगल !'

सक्सेना की क़तई दिलचस्पी नहीं है इस विषय में। बात बीच में ही तोड़कर पूछा, 'कब से हैं आप यहाँ ?'

'कोई डेढ़ महीना हुआ। 'बिसेसर से कैसे परिचय हुआ आपका ?'
'अपने काम के सिलसिले में हम गाँव के अलग-अलग लोगों से मिलते थे-तभी हुआ !' .
'हम लोग कौन ? क्या और लोग भी आपके साथ हैं ?'

'जी हाँ, एक और साथी भी है-अखिलन रामचंद्रन !'

'वो कहाँ हैं ?

'माँ की बीमारी का तार पाकर वह घर चला गया।'

'हूँ ! सुनते हैं, बिसू आपके घर रोज़ आया करता था। शामें उसकी आपके घर ही गुज़रती थीं।' अपनी नज़रें महेश के चेहरे पर गड़ा दी सक्सेना ने !

'जी, रोज़ तो नहीं, पर हाँ, अकसर आया करता था।' नज़रों के पैनेपन से थोड़ा असहज हो आया महेश।

'किस तरह की बातें किया करता था वह आप लोगों से ?'

थोड़ा असमंजस में पड़ गया महेश। समझ ही नहीं पाया कि बिसू की बातचीत के विषयों को दो पंक्तियों में समेटकर कैसे बताए।

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