उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
|
0 |
महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
'मैं पूछ रहा हूँ, क्या बातचीत होती थी आप लोगों के बीच ?'
‘जी, बात यह है कि वह बहुत सेन्सिटिव था..एक्स्ट्रा सेन्सिटिव ! और बहुत सोचता था ! यहाँ इस तरह के किसी आदमी से मुलाक़ात होगी, यह तो हम सोच भी नहीं सकते थे। इट वाज़ रियली...।'
'मिस्टर महेश, यह मेरा प्रश्न नहीं है और मैं अपने प्रश्न का जवाब चाहता हूँ।' आवाज़ में थोड़ी सख्ती घोलकर सक्सेना ने कहा तो एक क्षण को सिटपिटा-सा गया महेश ! फिर अपने को सँभालकर कहा, 'कोई एक विषय तो होता नहीं था उसकी बातचीत का। असल में वह बहुत परेशान रहता था...बहुत दुखी और अकसर उसी की बात किया करता था।
क्या थी उसकी परेशानी...उसका दुख ? वही तो जानना चाहता हूँ मैं ? कोई निजी कारण था उसके दुख का...आई मीन पर्सनल ?'
'पर्सनल ?' कुछ इस भाव से पूछा महेश ने मानो इस शब्द का अर्थ ही न समझ पाया हो !
'हाँ-हाँ, पर्सनल ! आपने बताया न कि वह एक्स्ट्रा सेन्सिटिव था...और वह बेकार भी था।' फिर एक क्षण रुककर अपनी बात पूरी की, 'वह जवान था और उसकी शादी नहीं हुई थी। हो सकता है, कभी किसी लड़की...'
'अरे, नहीं-नहीं सर, एकदम नहीं !' तपाक से बातचीत बीच में ही काट दी महेश ने ! फिर आवाज़ को बहुत धीमी करके पर दृढ़ता के साथ बोला, 'इस तरह का लड़का वह था ही नहीं, सर !'
इस बार सक्सेना ज़रा मुसकराए, 'लड़कियों से प्रेम करनेवाले लड़के किसी खास तरह के होते हैं क्या ?'
महेश केवल नकारात्मक भाव से सिर हिलाता रहा।
'किस तरह का लड़का था वह ?'
बड़ी असहाय-सी नज़रों से महेश ने सक्सेना को देखा जैसे समझ ही नहीं पा रहा हो कि क्या बताए ? फिर धीरे से बोला, 'कहने को तो कोई ख़ास बात नहीं। नथिंग वेरी स्पेशल...नथिंग रोमांटिक अबाउट हिम ! बहुत ही मामूली आदमी ! गाँव का एक गरीब लड़का जो दो जून की रोटी भी माँ-बाप या दोस्तों के माथे ही खाता था।'
सक्सेना बहुत गौर से महेश का चेहरा देखते रहे-एकटक ! उनके चेहरे की प्रश्नवाचक मुद्रा वैसी ही बनी हुई थी मानो बिसू के बारे में जो असली बात जानना चाहते हैं, वह तो आ ही नहीं रही है।
‘फिर भी कहीं कुछ था, साहब... आप यदि एक बार मिलते-उससे बात करते न...।'
'नहीं मिला हूँ, तभी तो पूछ रहा हूँ कि क्या था वह कुछ ?'
महेश एक क्षण चुप रहा, फिर एकदम सर झुकाकर बोला, 'नहीं साहब, शब्दों में मैं नहीं बाँध पाऊँगा ! बहुत मुश्किल है...।'
‘कमाल है ! आप रिसर्च करने आए हैं...थीसिस लिखकर देंगे और साथ उठने-बैठने वाले एक आदमी के बारे में दो लाइन भी नहीं कह सकते !'
फिर आवाज़ को बहुत सख्त और सर्द बनाकर पूछा, 'आपके इस तरह कतराने का कोई ख़ास अर्थ लगाया जाए तो ? आप समझ रहे हैं न मेरी बात ?'
एक बड़ी ही दयनीय-सी कातरता उभर आई महेश के चेहरे पर, जिसमें भय से अधिक अपनी बात न कह पा सकने की असमर्थता छिपी हुई थी।
‘मेरा प्रश्न अभी भी वहीं है, मिस्टर महेश ! किस बात को लेकर परेशान रहता था बिसू ?' और उन्होंने अपनी नजरें महेश के चेहरे पर गड़ा दीं !
वैसे तो इस पूरे सेट-अप को लेकर ही वह परेशान रहता था, पर पिछले महीने आगजनी की जो घटना घटी, उसने तो उसे बिलकुल ही बौखला दिया। ही वाज़ नॉट इन हिज़ प्रापर सैन्सिज़ !'
हूँऽऽ।' एक लंबी हुंकार के साथ अंतिम वाक्य रेखांकित हो गया था !
'उसका कहना था कि पूरे-का-पूरा मामला जान-बूझकर दबा दिया गया है। झूठी तसल्ली देने के लिए बेचारे कांस्टेबल को सस्पेंड कर दिया गया। मामूली जुर्म करनेवाला सज़ा पा गया और असली मुजरिम के ख़िलाफ़ कुछ नहीं...कभी कुछ होगा भी नहीं।'
एक क्षण ठहरकर बात पूरी की महेश, ने, 'बस, इसी को लेकर वह तिलमिलाता रहता था। उसका कहना था-यह थोड़े-से आदमियों के मरने-भर की ही बात नहीं है, महेश बाबू...समझ लीजिए कि पूरी-की-पूरी बस्ती का हौसला ही मर गया। आठ महीनों तक रात-दिन समझा-समझाकर इस लायक बनाया था कि छाती ठोंककर अपना हक़ माँग सकें...अब बहुत दिनों तक ये लोग अपने हक़ के लिए लड़ने का हौसला नहीं जुटा पाएँगे !'
'हूँऽ !' फिर एक दूसरा प्रश्न दागा-
'लड़का नक्सली था ?'
'नहीं, नक्सलियों की तो आलोचना करता था।'
'आलोचना ?' इसमें प्रश्न से अधिक अविश्वास की ध्वनि थी।
'उनके काम करने के तरीक़े को वह गलत मानता था।'
'उसका अपना काम करने का तरीक़ा क्या था ?'
'काम ! काम तो शायद वह कुछ करता ही नहीं था !'
'क्यों, सुना है हरिजनों और खेत-मजदूरों को मालिकों के ख़िलाफ़ भड़काया करता था। नक्सली भी तो यही सब करते हैं।'
'भड़काया नहीं करता था, सर...उन्हें केवल अवेयर करता था अपने अधिकारों के लिए। जैसे सरकार ने जो मज़दूरी तय कर दी है वह ज़रूर लो...नहीं दें तो काम मत करो। पर झगड़ा-फ़साद या मार-पीट के लिए वह कभी नहीं कहता था। फिर एक क्षण रुककर बोला, 'इसी बात में वह शायद नक्सलियों से अलग भी था।'
हूँऽऽ!' सक्सेना एक क्षण चुप रहे। फिर बात को दूसरी ओर से घुमाकर पूछा, 'अच्छा, यह बताइए कि जब वह अपनी परेशानी की बात आप लोगों को बताया करता था तो आप लोग क्या कहते थे उसे ?'
'हम ?' थोड़ा रुका महेश। फिर हिचकिचाते हुए बोला, 'देखिए सर, बात यह है कि हम लोगों को गाँव की समस्याओं, घटनाओं और गाँव के लोगों के साथ इन्वॉल्व होने की अनुमति नहीं है। हमारे काम की पहली शर्त ही यह होती है कि हम सारी बातों से एकदम तटस्थ रहेंगे।'
सक्सेना के चेहरे पर हल्की-सी शिकन उभरी। बात को साफ़ करते हुए महेश ने फिर कहा, 'मैं ठीक कह रहा हूँ। हमें फ़ार्म में भरकर देना होता है यह सब ! इसी बात को लेकर तो बिसू बहत नाराज़ रहता था हमसे !
'नाराज़ क्यों ?
'केवल नाराज़ ही नहीं, लड़ता था बाक़ायदा हमसे कि आप जैसे पढ़े-लिखे लोग खाली तमाशबीन ही बनकर बैठे रहेंगे तो इन गरीबों की लड़ाई कौन लड़ेगा ? जहाँ दिन-दहाड़े इतना जुलुम होता हो वहाँ कोई कैसे अलग-थलग बैठकर ख़ाली कागज़ पोतता रह सकता है ?' एकाएक महेश की आवाज़ भरी गई। पर जल्दी ही अपने को साधकर उसने बात पूरी की, 'अपनी मजबूरी हम उसे कभी नहीं समझा सके।'
हूँ !' थोड़ी देर तक कुछ सोचते रहे सक्सेना ! फिर असली मुद्दे पर आए, ‘सुना है, जिस रात को वह मरा उस दिन शाम को वह आपके पास आया था। ठीक बात है यह ?'
'उस दिन नहीं, उसके एक दिन पहले आया था। उस दिन शाम को तो में अखिलन को गाड़ी पर बिठाने के लिए स्टेशन गया था और लौटने में ही मुझे रात हो गई थी।'
'क्या बातें की थीं उसने उस दिन ?'
‘बहुत उत्साहित था उस दिन। कह रहा था कि बहुत भाग-दौड़ करके, जैसे-तैसे उसने बहुत सारे प्रमाण जुटा लिए हैं उस आगजनी की घटना के। यहाँ पुलिसवालों के हवाले बिलकुल नहीं करेगा, बल्कि दिल्ली जाकर जैसे भी होगा, जहाँ से भी होगा, फिर से खुलवाएगा मामले को।' एक क्षण ठहरकर महेश ने फिर कहा, 'दोनों बाँहें झिंझोड़कर याचना करता रहा हमसे कि कम-से-कम इस मामले में तो हम उसकी मदद करें, उसके साथ दिल्ली जाएँ। पर हम...।' होंठ काटकर आँसू पी लिए महेश ने।
'क्या प्रमाण जुटाए थे ?'
थोडी देर में अपने को साधकर जैसे-तैसे जवाब दिया, 'वह सब हमने नहीं पूछा, सर ! बताया न आपको...।'
'आपने न पूछा हो, पर उसने अपनी तरफ़ से कुछ बताया हो !'
'नहीं !' स्वर भीग आया महेश का।
सक्सेना एकटक देखते रहे महेश के चेहरे को। फिर पूछा, “माना कि एक स्टूडेंट की हैसियत से ऐसे वाक़यात से अपने-आपको बिलकुल अलग रखना है, फिर भी एक व्यक्ति की हैसियत से तो आप कुछ कह सकते हैं। आपकी राय में बिसू की मौत का कारण क्या हो सकता है ?'
'नहीं सर, बहुत मुश्किल है कुछ भी कहना।' फिर एक क्षण रुककर बोला, 'बस इतना ही कह सकता हूँ कि बहुत सदमा लगा उसकी मौत से...एक भीतर तक हिला देनेवाला सदमा ! समझ लीजिए सर कि हम सब लोगों के जिंदा रहने पर एक बड़ा-सा प्रश्नचिह्न लगाकर वह मर गया', और एकाएक महेश की आँखों में आँसू छलछला आए। फूट पड़ा वह।
'बी काम, मिस्टर महेश...बी काम।' सक्सेना ने तसल्ली दी।
कमीज़ की बाँहों से आँखों की कोरों को पोंछते हुए महेश ने कहा, 'एक्सक्यूज़ मी सर, इस विषय में मैं और कोई बात नहीं कर सकूँगा।'
'ठीक है मिस्टर महेश, इस समय आप जा सकते हैं। ज़रूरत होने पर बुलवा लिया जाएगा।
झटके से महेश पलटा और बरामदे से उतरकर अहाता पार करता हुआ पगडंडी पर चला गया। सक्सेना एकटक दूर होती हुई महेश की आकृति को ही देखते रहे और थानेदार अगले आदेश की प्रतीक्षा में बुत बना खड़ा रहा।
थोड़ी देर बाद सक्सेना ने जैसे ही थानेदार की ओर देखा-बड़े अदब से झुककर उसने पूछा, 'अब थोड़ा रेस्ट हो जाए, सर ? चाय का एक राउंड ?'
‘अभी नहीं !' और सक्सेना फिर जैसे अपने में ही डूब गए।
महेश की बातों से फैली गमगीनी को दूर करने के लिए थानेदार ने कहा, 'सर, ये शहर से आए लोग न गाँव को समझें, न गाँव की बात समझें। इनकी बात को अहमियत मत दीजिए। खानापूरी होनी थी, हो गई। जुमा-जुमा आठ दिन तो हुए आए। इनकी बात का क्या ?'
हीरा को बुलवाओ।' सक्सेना के आदेश ने थानेदार की बात को बीच में ही काट दिया।
थानेदार ने आँख से ही चौकीदार को इशारा किया तो वह बाहर को लपक लिया। थोड़ी देर में हीरा लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे कमरे तक आया। छोटा भाई गनेसी उसे थामे हए साथ चल रहा था। पर जैसे ही ये लोग बरामदे पर चढ़े, थानेदार ने रोका, 'बस, सिर्फ हीरा अंदर आएगा। कित्ती बार समझाया था...।'
आने दो सरकार ! बिसुआ की मौत ने बहुत थका दिया है दद्दा को। मेरे रहते थोड़ा हौसला रहेगा।
'हौसले को क्या करना है ? यहाँ कोई...।'
‘आने दो उसे भी !' सक्सेना ने थानेदार की कड़क आवाज़ को वहीं रोक दिया। सिटपिटाकर चुप तो हो गया थानेदार, पर भीतर-ही-भीतर एक वजनी गाली भी उभरी सक्सेना के लिए। ‘स्साला, गाँव में ही बेइज़्ज़ती कर रहा है मेरी जब से। यह तो दो दिन में चलता बनेगा. ..थानेदारी तो मुझे ही करनी है इनके सर पर।' लेकिन ज़हर का यह घूँट भीतर ही ठेलकर आवाज़ में शहद घोला और बहुत नरमी से बोला, 'आओ...आओ, तुम भी आओ ! देखा, सर कितना ख़याल रखते हैं सब लोगों का !'
दोनों भीतर आकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए। सक्सेना कुछ देर तक हीरा के भाव-शून्य चेहरे को देखते रहे, फिर बोले, 'बैठ जाओ बाबा, तुम बैठकर ही बयान दो।' और फिर बड़ा दिलासा देते हुए बोले, 'देखो, जो कुछ पूछा जाए, साफ़-साफ़ कहना। डरने की कोई बात नहीं है-सब बात सच-सच कहो !'
'हम झूठ काहे बोली, सरकार ? जो कहब सच ही कहब !'
'हाँ, सच कहने से ही तो सारी बात का पता लगेगा न !'
'अब पता लगाकर भी का हुई सरकार ! हमार बिसुआ तो चला गवा।'
और हीरा ने अपनी पनीली आँखें ज़मीन में गाड़ दीं। सक्सेना दो मिनट ख़ामोश रहे। थोड़ा सहज हो ले हीरा ! फिर उन्होंने बयान लेना शुरू किया। आरंभिक खानापूरी करने के बाद पूछा, 'बिसेसर तुम्हारा बेटा था ?'
'जी सरकार, सबसे बड़ा बेटा !'
'उसकी उम्र ?'
‘एक बीसी और आठ बरस ! भादों का ही तो जनम रहा, सरकार !'
'कुछ पढ़ा हुआ था ?'
'कुछ ! अरे बहुत पढ़े रहा, सरकार ! चौदह किलास पास। सहर भेजिके पढ़ावा रहा। मेहनत-मजूरी कीन...रूखी-सूखी खाई पर अपने बिसू को बहुत पढ़ावा रहा, साहेब !'
|