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उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


एक क्षण रुककर वह फिर बोला, 'बिसू का बारे मा बहुत सोच रहा सरकार...न जाने कउन-कउन सपना देखा रहा...बड़ा आदमी बनिहै...कुर्सी पर बइठ के काम करिहै पर...।' आवाज़ भरी गई हीरा
की। गरदन झटककर बड़े हताश भाव से बोला, 'सब धरा रहिगा।'

'क्या काम करता था ?'

'कुछौ नहीं !'

'कुछ नहीं ? अट्ठाइस साल का जवान आदमी और काम-धाम कुछ नहीं करता था ?' सक्सेना के ललाट पर सलवटें उभरी और आवाज़ में हलकी-सी जिज्ञासा।

'पहिले तो हियें गाँव में आपन इसकूल खोले रहा। लरिकन, बड़न सबका पढ़ावत रहा...अउर न जाने का-का समझावत रहा।'

'क्या समझाया करता था ?' नज़र में हलका-सा पैनापन उतर आया सक्सेना की।

'अब हम उई सब बातें का समझीं, सरकार ! हम तो खुरपा अउर . फरुहा वाले मजूर ठहरे। चौदह किलास पास वाले की बातें हमारी समझ में का आय सकी ?'

'हूँ! कौन-कौन आता था उसके स्कूल में ?'

‘बतावा न सरकार, गाँव का सबै लरिका-लरिकिनी आवत रहैं। बड़ा लोगवा आवत रहैं। हरिजन-टोला मा तो खुदै जायके पढ़ावत रहा। बहुतै सौक रहा पढ़ावै का...पर बाद मा तो सब छुटिगा।'

'क्यों ?'

'जेहल चला गवा रहै न ! चार साल मा सब मटियामेट होइगा ! लौटे के बाद फिर पहिले जस इसकूल जमवे नहीं भा।'

'जेल क्यों गया था ?'

'का जानी सरकार ! बस एक दिन अइसे ही पकरि लै गए।'

'अरे कुछ तो किया होगा।...लड़ाई-झगड़ा, दंगा...मार-पीट... ?'

'नहीं, नहीं !' एकदम उछलकर हीरा बीच में ही बोला, 'ऊ सब-कुछ नहीं। हमार बिसु कौनौ दिन काहू से मारपीट नहीं किहिस ! झूठ नाहीं बोलत सरकार आपसे...गुस्सा तो ओहिका बहुत आवत रहा...आँख लाल हुइ जात रही अंगारा जस...पर हाथ तो आज तक काहू पर नहीं उठाइस रहा, सरकार !'

'तो फिर किसलिए हुई जेल ?'

'सो तो आप लोग जानौ, सरकार ! आप लोग तो पकरि लै गए रहो।'

सक्सेना ने थानेदार की तरफ़ देखा। थानेदार ने ज़रा-सा आगे झुककर धीरे-से कहा, 'नक्सली था, सर !'

सक्सेना, थानेदार की ओर ही देखते रहे, कुछ इस भाव से मानो थानेदार की बात से महेश की इस बात, 'नक्सलियों की तो वह आलोचना करता था' का तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हों ! थोड़ी देर बाद एक लंबी हुंकार के साथ नज़र फिर हीरा के चेहरे पर टिका दी, 'कितने दिन की सज़ा हुई थी ?'

'सजा तो कौनौ भई नहीं, सरकार ? कौनौ मुकदमऔ नहीं चला। बस, एक दिन भिनसारे आए अउर बाँधि ले गए। दुई महीना तक तो हमका पतौ ही नहीं लगा सरकार कि कहाँ है हमार बिसुआ। बडै जी कलपा हमार...बहुत छटपटाएन हम। ओकर महतारी तो खानौ-पीना तक छोड़ दिहिस रहै !'

सक्सेना को पूरी तरह विश्वास हो जाए कि बिसू एकदम बेगुनाह था, हीरा ने भर्राई आवाज़ में एक बार फिर दोहराया, 'सच कही सरकार, हमार बिसू कौनौ दिन जुलुम नाहीं कीन्हा रहा, कौनौ गलत कामौ नाहीं कीन्हा रहा।' फिर एकाएक याचना-भरे स्वर में उसने पूछा, 'आपै बताओ सरकार...काहे लै गवा रहै हमार बिसुआ को ? बेगुनाह का जेहल भैजै काऔ कौनौ कानून होत है का ?'

'कितने दिन रहा जेल में ?' सक्सेना खट-से बात को वापस लाइन पर लाए।

‘पूरा चार बरस रहा, सरकार ! जैसे एक दिन बाँध के लै गए रहै, वही तरै एक दिन छोड़ो दिहिन !'

'नई सरकार ने छोड़ा न ?'

‘हाँ सरकार, तबै छुटमल रहा ! हम तो बड़ा जस गाइत हैं नई सरकार का। हमार बिसू घर तो आवा ! अउर दा साहब तो देवता आदमी हैं, सरकार ! हम गरीबन का कइसा मान दिहिन ! ऊ दिन हमार घरै आ...हमका अपने सँग लिवाय लै गए...नहीं तो को पूछत है गरीबन का दुख-दर्द...'

हीरा का गला भर्रा गया, कुछ दुख से पर उससे अधिक कृतज्ञता से। सक्सेना भी कुछ क्षण चुप रहे। हीरा को दा साहब की गरिमा में पूरी तरह डूबने का मौक़ा दिया !

'जेल से छूटने के बाद क्या करता था बिसू ?'

'का करत, सरकार ? एक-दुई महीना तो पड़ा रहा। न काहू से बोलब न चालब ? न कहूँ आउब न जाब। बस, गोड़न में मुँह दिए बइठा रहत...जो खटिया पे लेटिगा तो लेटिके आसमानै ताकत रहत !...जो खाय का कहौ तो खाय लै...न कहौ तो भूखै...'

थानेदार ने चुप रहने का इशारा किया तो सक्सेना ने रोक दिया, 'नहीं-नहीं, बोलने दो।' एक-एक शब्द लिखते जा रहे थे हीरा की बात का वह।

'हमका तो लगतै नहीं रहा कि ये हमार वही बिसुआ है। अरे का बताई सरकार, बड़ी चुस्ती-फुर्ती रही वाहिके सरीर मा ! मुला सब निचुड़ गई ?'

हीरा चुप हो गया। सक्सेना कुछ देर हीरा के बोलने की प्रतीक्षा करते रहे, फिर पूछा, ‘पर कुछ तो करता होगा...आख़िर दिन कैसे गुजारता था।'

'का करता, सरकार ? बस बहुत बेचैन रहता रहा ! रात-रात भर टहरा करता। जाने कउन दुख लागि गवा रहै ?'

तुरंत रेखांकित।

'इसका मतलब कमाता-धमाता कुछ नहीं था ! कोई काम-धंधा, रोज़गार ?'

'पहिले तो इसकूलै मा लरिका लोग कुछ दइ देत रहे-जितना जेहिका परि जाए पर इधर तो हरिजन टोलै माँ जियादह जात रहा... ऊ बिचारे का देइहैं, सरकार। उनका तो अपनै पेट भरब मुसकिल !'

'तुम लोग कुछ कहते नहीं थे। जवान आदमी निकम्मा बैठा रहे । और बूढ़े माँ-बाप मजदूरी करें।

'का कहत, सरकार ! हाँ, महतारी लड़त रही ! छोटे-छोटे लरिकन का पेट काटि के पढ़ावा अउर अब न कछू करै न धरै। तब हिम्मत रही साहब...अब हाथ-पाँव नाहीं चलत एही से महतारी बकत रही... कोसत रही।' फिर भर्राये गले और सँधी हुई आवाज़ में कहा, ‘पर जबसे गवा है, आँखिन से आँसू नहीं टूटत। रोए-रोए के आधी होइ गई है। सब दिन अपने को कोसत है-दैया रे ! हमहिन लड़ि-लड़ि के अपने बिसू को मार डाला। दुइ-दुइ रोटीन का तरसाय दीन। बहुत कलपती है, सरकार ! वाहिकेर दुख नाहीं देखा जात।'

गला भिंच गया हीरा का और आँखों की कोरों से दो बूंदें ढुलककर झुर्रियों में ही बिला गईं।

सक्सेना ने बड़ी मुस्तैदी से एक-एक शब्द लिखा और फिर सबको रेखांकित किया। दो क्षण रुककर अगला प्रश्न पूछा, 'माँ जब लड़ती थी तो बिसू क्या कहता था ? कभी घर छोड़ने की बात...भाग जाने की बात...या कोई ऐसी...?'

'नाहीं सरकार, भागत काहै ? ई गाँव तो बहुतै पियारा रहा ओकर। ऊ तो हमेस कहत रहा, थोड़े दिनौ अउर रुकि जाव अम्मा...फिर तुमको कौनो बात की सिकायत न हुई ! का जानी सरकार, वाहिके मन में का रहै ? मन की मनै मा लैके चला गवा !'

हीरा का गला फिर भर्रा आया। सक्सेना साहब कुछ देर तक चभती-सी निगाहों से हीरा को देखते रहे, फिर अगला प्रश्न फेंका, 'तुम कहते हो, बिसू ने कभी किसी से मार-पीट नहीं की कहीं बाहर। उसकी बेकारी को लेकर क्या कभी घर में कोई ऐसा झगड़ा हुआ, जिसमें मारपीट हुई हो... ?'

पूछने के साथ ही सक्सेना ने अपनी नजर में और अधिक पैनापन घोल लिया, पर इस नज़र से एकदम बेख़बर हीरा बीच में ही बोल पड़ा, 'अरे नाहीं-नाहीं साहेब कब्बो नाहीं...एकौ बार नाहीं। आज तलक घर मा कब्बो मारपीट नहीं भई। घर मा तो कोऊ छुइसि तक नाहीं वहिका ? दुइनौ छोटे भाई बहुतै प्यार करत रहैं...बहुतै मानत रहैं बिसू दादा का ?'

हूँ!' जैसे कुछ विचार में पड़ गए सक्सेना साहब ! फिर हीरा के चेहरे पर उसी तरह आँखें गड़ाकर पूछा, 'जानते हो, जब उसकी डॉक्टरी जाँच हुई तो उसके शरीर पर कई जगह मार-पीट के निशान थे ! कलाइयों और टखनों में तो ऐसे निशान कि जैसे कभी गहरे घाव लगे हों। और तुम कहते हो कि उसकी कभी किसी से मार-पीट ही नहीं हुई...तब शरीर के वे निशान ?'

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