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उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


कुछ इस भाव से पूछा सक्सेना ने मानो बहुत मासूमियत में लपेटकर कही गई हीरा की बातों से धोखा नहीं खाएंगे वह। पर हीरा का ध्यान न सक्सेना की नज़रों के पैनेपन पर था, न बात की तह तक पहुँचने वाले लहजे में। वह तो जैसे अपनी ही रौ में बोले चला जा रहा था।

'ऊ निसान तो सरकार जेहल से छूटि के जब आबा, तबै के हैं। जब आवा रहै न साहब, तब कलाई और टखनन पर घाव रहै...उनसे खून और मवादी आवत रहा। घी अउर हरदी के फाहे रखि-रखि के बड़ी मुसकिल से घाव ठीक किहिस वहिकी महतारी। चार साल तक जेहल मा हथकड़ी-बेड़ी नहीं खोली गई रहै हमरे बिसू के हाथन-पावन से। सरीर पर बहुतै मार लगाई रही सायद...सारे सरीर पर जखमै-जखम रहे-बाहर-भीतर सब जगह।' एक क्षण रुककर फिर उसी तरह काँपते हुए स्वर में बोला, 'बहुतै मुलायम रही खाल हमरे बिसू की साहब... बहुतै मुलायम !'

और घुटनों में सिर देकर हीरा फूट-फूटकर रोने लगा। गनेसी ने भाई को दिलासा देने के लिए पीठ पर हाथ रखा और सक्सेना साहब ने पास खड़े कांस्टेबल को इशारा किया कि पानी पिलाए।

बिजली की फुर्ती से कांस्टेबल पानी का गिलास लाया और बड़े अदब के साथ उसने सक्सेना के सामने पेश किया।

'मुझे नहीं, हीरा को पिलाओ।' गिलास गनेसी ने लिया और इंतज़ार करने लगा कि दद्दा थमें तो पानी दे। इसी बीच थानेदार ने झुककर झिझकते हुए पूछा, 'अब थोड़ा रेस्ट हो जाए, सर ? एक-एक चाय ? यह भी इस बीच चाय-पानी कर लेगा।

थानेदार को यही लग रहा था कि कितनी भाग-दौड़ करके तो उसने गरमागरम इमरतियों का इंतजाम किया था और यह एस.पी. साला ऐसा काम का सगा बना हुआ है मानो इसने काम रोका तो दुनिया रुक जाएगी। सऽऽब ठंडी हो गई होंगी ? एक गाली उभरी उसके मन में।

'ठीक है, ले आओ !' फिर हीरा को संबोधित करके, 'तुम्हारे पास भी कुछ खाने-पीने को है या नहीं ?'

जवाब दिया गनेसी ने, 'है सरकार, बाँध के लाए रहे।'

नहीं है तो एक दुकान है वहाँ बाहर चाय की। ले लेना वहाँ से कुछ। जाओ, बाहर जाओ। कुछ चा-वा पी लो, मन थोड़ा थिर हो जाएगा।

बात खत्म करते ही सक्सेना की घूरती हुई नजर से थानेदार की नज़र मिली तो अपनी आवाज़ की सख्ती से खुद ही थोड़ा सकपका गया। तुरंत चेहरे पर मुलायमित घोलकर कहा, 'देहात के लोग थाना-कचहरी आते हैं सर, तो खाना तो बाँधकर लाते ही हैं। देर-अवेर तो हो ही जाती है इन कामों में।

थानेदार को यह डर लग रहा था कि कहीं हीरा और गनेसी को भी यहीं चाय पीने के लिए न कह दें। इन गाँववालों के लिए मन में बड़ा प्रेम फूट रहा है न एस.पी. साहब के ! ज़रूर यह भी कोई चक्कर होगा ससुरा-वरना पुलिसवाला आदमी इतना लिजलिजा नहीं होता... गाँव का हो, चाहे शहर का। आया है तब से लगा रखी है-इन्हें रोको मत, इन्हें घुड़को मत...सख्ती से पेश मत आओ, जितनी बकवास करें करने दो ! जरा-सा बोलते ही कैसा नजरों से दाग देता है कि जीभ तालू से ही चिपककर रह जाती है। लगता है जैसे यहाँ बयान लेने नहीं, आरती उतारने बुलाया है सबको ! ये तो अपने चल देंगे, गाँव में कैसी-कैसी गालियाँ उछलेंगी उसके नाम, वही जानता है ! आगे तो उसे ही सँभालना है। सबेरे बिंदा के न आने से जो एक घबराहट हो रही थी, वह अब खशी में बदलने लगी। ठीक कर देगा बिंदा, दो-चार गाली बक देगा तो धरी रह जाएगी यह नरमी और यह शहरातीपन। तब देगा, कैसे नहीं करते हैं सख्ती !

'देखो. मैं चीनी नहीं लेता।' किनारे की मेज पर चाय ढालते हुए कांस्टेबल को आदेश दिया सक्सेना ने। प्लेट में इमरतियाँ जमाते थानेदार के हाथ वहीं रुक गए !

'अरे सर, यह क्या ? मैंने तो आपके लिए स्पेशल मिठाई का इंतज़ाम किया था। इधर गाँव में कहाँ मिलती है मिठाई ? वो तो सरपंच साहब ने आपक...।'

'डाइबिटीज़ का मरीज़ हूँ न...मना है चीनी !' सक्सेना ने कोई खास तवज्जह नहीं दी-न स्पेशल इंतज़ाम को, न सरपंच को। जेब से स्वीटेक्स की छोटी-सी डिबिया निकाल ली। साथ ही एक सिगरेट सुलगाने के बाद सिगरेट-केस थानेदार की ओर बढ़ाया। बढ़िया ब्रांड की सिगरेट देखकर मन लपलपाया तो बहुत, पर अदब ने हाथ नहीं बढ़ाने दिया।

नहीं सर, बस आप ही पीजिए।' कृतज्ञता में आकंठ डूबकर कहा थानेदार ने।

'क्या बात है, सिगरेट नहीं पीते ! अच्छा चाय तो लो अपनी।' और खट-से सिगरेट-केस बंद करके सक्सेना ने वापिस रख लिया।

एक बार और तो कहता, एकदम समेट ही लिया-मन में उभरा, पर 'जी सर' कहकर अदब से चाय का प्याला उठा लिया और बड़े संकोच से चूँट भरने लगा।

चाय की चुस्कियाँ और सिगरेट के कश खींचते हुए सक्सेना कुछ सोचने लगे। सिगरेट से निकले हुए धुएँ के गोरख-धंधे में उनका मन ऐसा उलझ गया कि मानो वे कमरे से ऊपर उठ गए हों।

थानेदार की इच्छा हो रही है कि एस.पी. साहब उससे कुछ बातें करें। गाँववालों के बारे में ही कुछ पूछे-इस केस के बारे में ही उसकी राय जानें-आख़िर पहली बार तो उसने ही लिए हैं सारे बयान।

'गरम कुछ ज़्यादा ही है यह जगह।'

लो, ये तो मौसम पर चालू हो गए ! खैर किसी पर बात करें, उसे तो जवाब देना ही है।

'जी, वो बात यह है सर, कि चारों तरफ़ खुले मैदान-ही-मैदान हैं। पेड़-वेड़ तो हैं नहीं ज़्यादा; सो बस, लू के सपाटे चलते रहते हैं।'

'हूँ।' सक्सेना फिर चुप ! आख़िर थानेदार ने ही हिम्मत करके अपनी ओर से बात चलाई।

'सर, हीरा के बाद जिसका बयान होना है न-बिंदा, वो तो आया नहीं ! आएगा भी नहीं। मैंने आपसे अर्ज किया न, एक ही सिरफिरा आदमी है वह। बहुत ही ख़तरनाक !'

'ख़तरनाक ?' बहुत ही पैनी नज़रों से देखा सक्सेना ने, मानो इस शब्द का अर्थ जानना चाहता हो। इस नज़र से एक क्षण को हकबकाया थानेदार, पर फिर इतनी देर से घुमड़ती हुई बात सरका ही दी-

'जी, गाँव में जितने झगड़े-फसाद होते हैं न, सब इन्हीं लोगों की वजह से। सच पूछे तो बिसू भी ऐसा ही था, सर ! खुद तो कुछ करना-धरना नहीं, बस काम करनेवालों को भड़काना सारे दिन।

उलटी-सीधी बातें...।'

'हूँ !' बात बीच में ही तोड़ दी सक्सेना ने एक छोटी-सी हंकार उछालकर। थोड़ी देर चुप रहा थानेदार, फिर धीरे से पूछा, 'उसका फिर कैसे होगा, सर ? आप कहें तो...।'

'देखते हैं अभी।' सक्सेना कोई परेशानी ही महसूस नहीं कर रहे।

अजब आदमी है यह भी। इसमें देखने को क्या रखा है ? कोई तमाशा है यह भी ! कहें तो अभी पकड़वाकर बुला लें उसे। वैसे कोई आसान काम नहीं है उसे लाना। पर ऐसे टेढ़े आदमियों को ठीक करना वह खूब जानता है। एक बार मौक़ा तो दें उसे भी अपना कमाल दिखाने का। पर ये हैं कि अपनी ही धुन में बैठे हैं। बयान तो उसे भी आए दिन लेने ही पड़ते हैं...देहात-गाँव में कुछ-न-कुछ लगा ही रहता है... पर ऐसा बेतुकापन तो उसने न देखा, न जाना। कहीं कोई कड़क ही नहीं ! वर्दी के साथ-साथ शरीर में थोड़ा कलफ़ लगाकर आ जाते तो ठीक था।

'काम शुरू किया जाए,' कप एक तरफ़ सरकाकर सक्सेना ने कहा, 'बुलवाओ हीरा को !'

'यस्सर !' तपाक से आदेश को सरकाया थानेदार ने, पर मन में कहीं उभरा-घिस्सू कहीं का !

थोड़ी ही देर में हीरा और गनेसी फिर हाज़िर। दोनों आकर पहले की जगह बैठ गए।

सक्सेना थोड़ी देर तक दोनों को देखते रहे एकटक। फिर बात को बिलकुल नए सिरे से शुरू किया-

अच्छा, यह बताओ, गाँव में उसकी दोस्ती किस-किससे थी ! किन लोगों के बीच उठता-बैठता था बिसू?'

'अइसे तो सबहीं के साथ उठत-बइठत रहा, सरकार ! पर हाँ, खास दोस्त तो बिदै रहा। भइयन मा भी अइसा पिरेम न मिलि है आपको।'

'कौन है यह बिंदा ?' थानेदार से इतनी गाथा सुनने के बाद भी सक्सेना ने इस तरह पूछा जैसे पहली बार सुन रहे हों यह नाम।

'रुक्मा का घरवाला, पहिले शहर मा रहत रहा।'

'इस गाँव का रहनेवाला नहीं है ?' सक्सेना के ललाट पर हलकी-सी शिकन उभर आई। कहीं जेल-वेल का साथी तो नहीं ? थानेदार उसके ख़तरनाक होने की बात कह ही चुका है अभी।

“नाहीं। सहर मा रहत रहा...हुँदै नौकरी करत रहा। लेकिन जब रुक्मा का बाप मरिगा तो रुक्मा लै आई बाप की खेती सम्हारै के खातिर। अउर कोई बाल-बच्चा तो नहीं रहा उहिके। रुक्मे अकेले बिटिया रही अउर बीस बीघा की खेती रही। कुआँ, गाय, बैल, भेंस...अमराई...।'

'यह रुक्मा कौन है !'

'अरे वहिकेर घरवाली, सरकार ! एही गाँव केर लड़की...बिटिया जस।'

हीरा ने कुछ इस भाव से कहा, मानो इतनी जगत-विख्यात बात भी नहीं जानते सक्सेना साहब।

'बहुत अच्छी लड़की है, सरकार ! बिसू का तो बहुतै मानत रही। पिरान देती रही वहि पर तो।'

“हूँऽऽ!' एक लंबी हुंकार के साथ सक्सेना ने यह वाक्य अपने भीतर उतार लिया।

'उहै के इसकूल मा पढ़ती रही न सरकार, बस तबै से...।' 'बिसु के स्कूल में पढ़ती थी ?'

'हाँ-हाँ, तब सादी कहाँ भई रहै...तउन पढ़त रही। बहुत हुसियार रही पढ़े मा। बिसवो बहुत मान रहा...बहुत नेह रहा वहि पर बिसू का।'

'हूँऽ !' बात कुछ और गहरे उतरी।

'जब बिसू का जेहल लइगे...बहुत रोई। बिसू की माई की तरह कलपत रही साहब रुक्मा...खाब-पियब सब छोड़ दिहिस रहै।'

हूँ!' बात ताल में जाकर जम गई और बयान की हर पंक्ति रेखांकित होती चली गई।

'शादी कब हुई रुक्मा की ?'

'बस यही कौने तीन बरस।'

'बहुत रो-धोकर की शादी या खुशी-खुशी कर ली ?'

'अरे सरकार...रोउती तो है ही बिटिवै सादी के समै। महतारी का घर छोड़त करेजवा बहुत कसकत है बिटियन का। फिर यहिके तो महतारिउ नाहीं रही, सरकार ! बाप का घर वही देखत रही...मोह तो होते है।

'शादी करके शहर में चली गई या गाँव में ही रही ?'

‘सादी के बाद कउन गाँव में छोड़त, सरकार ? गई तो सहर ही, पर उहाँ एको दिन मन लागे नहीं सरकार उहिका।'

'तो गाँव चली आई ?'

'अउर का ! बाप की बीमारी मा आई तो फिरकै गइवै नहीं। साफ कहि दिहिस बिंदा से...मैं अब सहर न अइहौं। आवै का होइ तो बिंदा आवै, नहीं तो रहै अपना सहर मा...ऊ अब बाप की खेती देखिहै। बस, फिर बाप के मरे पै बिंदाऔ गाँव आइ रहा।'

तल में बैठी बात पर मुहर लग गई।

'तो बिसू की जान-पहचान कैसे हुई बिंदा से ? वह तो जेल में रहा होगा उस समय ?'

'जेहल से छूट के जब आवा तब भई, सरकार ! जब बिसू छुटिके आवा तो बहुतै खुस भई रहै रुक्मा।'

रुक्मा की खुशी की याद क्षण-भर के लिए हीरा के चेहरे को भी हुलसा गई।

'फिर ?'

'फिर का सरकार, जेहल से छूट के बाद जौन बहुत गुमसुम, बहुत चुप रहता रहा हमार बिसुआ, तौन रुक्मा रोजै बिंदा के लेइके आवत रही बिसुआ से बोले-बतियावै। वही ठीकौ किहिस बिसुआ का।'

हूँ।' लिखना ख़त्म हुआ तो एक क्षण पेन को मेज़ पर टकोरते रहे सक्सेना-जैसे कुछ सोचने लगे हों। फिर पूछा-

तो इसका मतलब यह हुआ कि बहुत पुरानी दोस्ती नहीं थी बिंदा और बिसू की...जैसे बचपन की दोस्ती होती है !'

'नहीं, ऊ तो रुक्मा से रही। बिंदा से तो यहै छ-सात महीने केर आय। मुदा गर आप देखत सरकार तो जान परत जानो बचपन की नहीं, पिछले जनम की दोस्ती आए। जरूर पिछले जनमै का संजोग रहा होई सरकार... नहीं तो अइसा पिरेम... ?'

'अच्छा, कभी लड़ते भी दोनों आपस में ?' 'अरे खूब लड़त रहै, सरकार। मार जोर-जोर से लड़त रहै।'

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