उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
|
0 |
महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
एकाएक हीरा के झुर्रियों-भरे चेहरे पर वात्सल्य की तरलता झलकने लगी मानो सामने ही बिसू-बिंदा लड़ रहे हों।
'किस-किस बात पर लड़ते थे ?' प्रश्न पूछने के साथ ही सक्सेना ने अपनी निगाह पैनी और सूंघने की शक्ति को तेज कर लिया।
'न जाने कउनी-कउनी बातन पर ! अइसी बतकही-अइसी बतकही कि बस्स। बिंदा पढ़े-लिखे है न सरकार...फिर सहर का रहवैया...अब हम का उनकी बातन का समझ सकति हैं, सरकार बतियात-बतियात जो लड़ परै तो लड़ते रहत...।'
'अच्छा, यह बताओ, रुक्मा अपने आदमी के साथ खुश है ?'
'बहुत खुस्स है, सरकार ! एक बेटवौ है डेढ़ बरस का।'
'हूँऽऽ!' दो मिनट चुप रहकर कुछ सोचते रहे सक्सेना। फिर उन्होंने कुछ लिखना शुरू किया और हीरा जैसे बिसू की उन पुरानी यादों में खोया रहा।
कोई पाँच मिनट तक कुछ लिखते रहे सक्सेना। फिर बात को दूसरी ओर घुमाते हुए पूछा-
'अच्छा, अब यह बताओ, गाँव में दुश्मनी थी उसकी किसी से ?'
हीरा चुप !
'किसी से लड़ाई या दुश्मनी थी उसकी ? डरो नहीं...बोलो।'
इस प्रश्न के साथ ही थानेदार ने कुर्सी पर बैठे-बैठे अपना धड़ थोड़ा आगे को निकाल लिया। अब ज़रूर कोई-न-कोई नाम टेप देगा यह बुड्ढा। डर तो किसी का रह नहीं गया है !
'का बताई, सरकार...दुश्मनी तो नाहीं मुदा'...फिर हिचकिचाने लगा हीरा, पर सक्सेना की सच कहने को उकसाती हुई मुद्रा से हौसला पाकर कह दिया, 'जोरावर सिंह और मालिक लोग वहि से बहुत नाराज़ रहत रहे।'
'मालिक लोग कौन ?'
'अरे येई, सरकार...जेहिके बड़े-बड़े खेत हैं। सरपंच साहबो बहुत नाराज रहत रहे।'
‘क्यों रहते थे नाराज़ ?'
'अरे अब का बताई, सरकार...बस बचपना रहा हमार बिसुआ का। ऊ सरकार, खेत पै काम करै वाले मजूरन से कहत रहा कि इत्ती कम मजूरी पे काम ना करौ। मजूरी बढ़ावै की खातिर लड़ौ। बेगारी न रो-उधारी पै इत्ता-इत्ता सूदौ न देव। येई सब ऊ लोगन का बुरा लगत हा सरकार !' फिर एक क्षण रुककर बोला, 'अउर ठीकौ है सरकार, हजरन का भड़क जाए से...खेतन मा नुकसान जउन हो रहा, ओकर फौन सहिहै ? बिना मजूरन कहीं खेती हुई सकै है, सरकार ?'
थानेदार के शरीर में जैसे लहरें उठने लगीं-यह बताने के लिए कि बिस् मजदूरों को उपद्रव करने के लिए कैसे-कैसे भड़काया करता था और कितना नुक़सान होता था खेत मालिकों का ! न तुम्हारे पास जमीन, न तुम्हें मजदूरी करनी...फिर मालिक-मजदूरों के बीच आने की ज़रूरत ? पर हिम्मत नहीं पड़ी कुछ भी कहने की।
'हूँऽऽ। कभी मार-पीट भी हुई इन लोगों से इस बात को लेकर ? कोई धमकी-वमकी दी गई उसे ?'
नाहीं सरकार...मारपीट कबौ नहीं भै। हम तो बहुत समझावत रहे बिसुआ का, पर हमारी एकौ नाहीं मानत रहा। जोरावरौ समझावत रहा...धमकातौ रहा कि देख रे बिसुआ...तू जो हमरे मजूरन का हड़काइ है तो जेल भिजवाय देब। बिसुऔ खूब बहस करत रहा...खूब झगड़ा करत रहा जोरावर से...पर मार-पीट तो कबौ नाहीं भइल, सरकार ! हम सच कहित है आपसे। बिसुआ को कोऊ हाथौ नाहीं लगावत रहा, सरकार...कौनौ दिन नाही...।'
अंतिम वाक्य पर थानेदार के तनाव एकाएक ढीले हो गए-समर्थन के-से स्वर में।
‘जी सर...कभी कोई मार-पीट नहीं हुई।'
'हूँऽऽ,' और थानेदार की मुहर लगे हीरा के वाक्य को रेखांकित कर दिया सक्सेना ने। फिर पूछा, 'अच्छा, यह बताओ कि जिस दिन उसकी लाश मिली, उससे एक दिन पहले उसका किसी से झगड़ा हुआ था या कोई कहा-सुनी हुई थी...घर में...बाहर या जोरावर से ?'
'नाहीं सरकार, काहू से नाहीं। इधर तो ऊ लड़बै छोड़ दिहिस रहै। जब से हरिजन टोला मा आगजनी भई न सरकार...तब से ऊकाहू से लड़बौ नाहीं करा । बऽस, भीतर-भीतर कलपत रहा। बहुत रोवा रहा उइ दिन सरकार, बहुत रोवा रहा। कबौ-कबौ तो रात-भर छटपट-छटपट करै, सरकार ! अब का बताई, बहुत रिसियावत रहा कि उत्ता बड़ा कांड हुई गवा और कौनौ के नाहीं धरा पुलिस !'
फिर एक क्षण रुककर बोला, 'बहुत दरद रहा ऊका मन में।'
'हूँ... ! अच्छा, क्या करता रहा था उस दिन वह ? कहाँ-कहाँ गया...किस-किससे मिला ?'
'दुपहर तई तो बिंदा कने रहा, सरकार ! वहि के खेत पर। फिर बिंदा तो शहर चला गया और ऊ घरै आवा। संझा का फिर निकरिगा तौन रात कै आवा। न जानी कहाँ गवा रहा, सरकार ? हम तो कबौ पूछतै नाहीं रहे, सरकार !'
‘रात में जब लौटा तो उसकी तबीयत ठीक थी ?'
'ठीक रही, सरकार !' 'खाना खाया था ?'
‘खाना तो ऊ संझा का खातै नाहीं रहा, सरकार ! जेहल से छूटें के बाद से पेट बहुत खराब रहत रहा...दुइ टैम का खानौ नाही हजम होत रहा।
'तुम्हारे सामने सोया था घर में ?'
'हाँ सरकार, बाहर खुलन मा तो सोवा रहा।'
'रात में उसे बाहर जाते या घर में किसी को आते देखा ?'
'नाहीं सरकार !'
'किसी तरह की कोई आवाज़, बातचीत या शोरगुल कुछ सुना, जैसे कोई बिसू को उठाकर ले जा रहा हो या कि... ?'
'नाहीं सरकार, कुच्छौ नाहीं देखा-सुना हम तो। हमरे आगे तो अच्छी तरा सोवा अउर भोरै आई के जोगेसर साहू बताइन कि पुलिया पर लहास परी है। कब गवा..कइसे गवा-कुच्छौ पता नाहीं। इ मुदा नींद...।'
गला भर्रा गया और हीरा की आवाज़ सैंध गई।
एक क्षण सक्सेना रुके, फिर पूछा-
'तुमको क्या लगता है...कैसे मौत हुई बिसू की ?' पूछने के साथ ही नज़रें हीरा के चेहरे पर गड़ा दी सक्सेना ने। थानेदार ने भी उचककर गरदन ज़रा-सी आगे को निकाल ली।
थरथराते गले से ही बोला हीरा, 'हम का बताई सरकार...पर अपन मौत नहीं मरा हमार बिसू। जरूरै कोऊ मरवाइस है हमार बचवा का।'
बोल तो कुछ नहीं पाया, पर तनाव से चेहरा बुरी तरह खिंच गया थानेदार का।
‘किसी पर शक है तुम्हें ?' बिना किसी लाग-लपेट के सीधा प्रश्न दागा सक्सेना ने।
थानेदार की गरदन थोड़ी और आगे निकल आई।
'बोलो, डरो नहीं...किसी पर शक है तो नाम बताओ उसका।'
'हम का बताई सरकार...पर सारा गाँव...।' एक क्षण के लिए फिर रुका हीरा।
'बोलो-बोलो...बताओ...।' हिम्मत बँधाई सक्सेना ने।
'सारा गाँव जोरावर सिंह का नाम लेई रहा है, सरकार !'
इस बार चुप नहीं रहा थानेदार। इतनी देर की कुलबुलाहट निकल ही आई आख़िर । पर सक्सेना साहब पर नज़र पड़ते ही अपने को साधा और समझाने के लहजे में बोला, 'अपनी बात बोलो, बाबा अपनी बात। गाँववालों की बात गाँववाले कहेंगे। तुमको...'
हाथ के एक हलके-से झटके से थानेदार की लगाम खींच दी सक्सेना ने। थानेदार भीतर-ही-भीतर ऐंठकर रह गया और मन-ही-मन सक्सेना की सात पुश्तों का तर्पण कर डाला।
'तुम्हें भी शक है जोरावर पर ?'
'हम का सक कर सकें, सरकार ! आँखिन से देखे बिना कइसे केहिका नाम लइलें ? अउर अब नाम लेइके होइवे का, सरकार ? हमार बिसू तो चला गवा...हमार पाला-पोसा जवान लड़िका...अरे हमार बचवा...' और घुटनों में सिर देकर फूट-फूटकर रोने लगा हीरा। गनेसी ने फिर पीठ सहलाई और कांस्टेबल ने सक्सेना के इशारे पर फिर पानी का गिलास थमा दिया।
सक्सेना कुछ लिखने लगा और थानेदार मन-ही-मन भुनभुनाने लगा-बयान के नाम पर बुड्ढे से पुरान बँचवा रहा है पिछले चार घंटे से और उसने एक वाक्य बोल दिया तो इशारे से ऐसी लंगी लगाई कि आधी बात मुँह में ही घुटकर रह गई। अपने ही हलके में गीदड़ बनाकर रख दिया इस ससुरे एस.पी. ने ! ऐसे पुचकार-पुचकारकर बयान लोगे तो कही-अनकही सब कहेंगे ही ये लोग। गाँववालों से पाला नहीं पड़ा लगता है इनका कभी। जानते नहीं कि जरा-सी शह मिलते ही सीधे खोपड़ी पर सवार होते हैं ये लोग। जूते की नोंक पर ही ठीक रहते हैं। अभी तो बिंदा जाने और क्या गुल खिलाएगा !
फ़ाइल से सिर उठाकर सक्सेना ने कहा, 'अच्छा बाबा, अब तुम जाओ।' फिर जैसे उसे सांत्वना देते हुए बोले, 'देखो, हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करेंगे...खूब अच्छी तरह छानबीन करेंगे...बस, थोड़ा धीरज रखो। ज़रूर पता लगाएँगे कि आख़िर मौत कैसे हुई बिसू की ?'
सक्सेना के इस आश्वासन से ही थानेदार के गले में जैसे कुछ फँसने लगा।
उठते हुए हीरा उखड़े-उखड़े स्वर में बोला, 'बड़ी मेहरबानी सरकार आपकी।' फिर एक गहरा निःश्वास छोड़कर बोला, 'मुदा अब पता लगाइन के का होई ? हमार बिसू तो लौट के आवे से रहा। अब न आवै का बिस्...अब तो बस चले गवा...' और कर्ते की बाँह से आँखें पोंछता, गनेसी के हाथों में थमा धीरे-धीरे हीरा बाहर हो गया।
हीरा के जाते ही सक्सेना ने अपना सिर कुर्सी की पीठ पर टिका दिया और आँखें मूंद लीं। लगा जैसे वे एकाएक बहुत थक गए हैं। थानेदार उनके अगले आदेश की प्रतीक्षा करता रहा। थोड़ी देर बाद सक्सेना सचेत हुए, कलाई उठाकर घड़ी देखी, फिर सोचते हुए बोले, 'बिंदा का बयान अब कल के लिए ही रख लेते हैं। आया भी नहीं है वह, और...।'
'वह तो कल भी नहीं आएगा, सर ! आदमी तो मैं आज फिर भेज दूँगा आप कहेंगे तो, पर वह आएगा नहीं। बुलाने पर न आए तो हथकड़ी डालकर ला सकते हैं, पर उसे डर नहीं किसी बात का। मैंने कहा न सर-बहुत ख़तरनाक...।'
'ठीक है, कल ही देखेंगे।' बिंदा के खतरनाकपने से तनिक भी विचलित हुए बिना सक्सेना ने कहा और फिर अपने साथ आए कांस्टेबल को आदेश दिया कि कागज़-फ़ाइल समेटे, और एकदम उठ खड़े हुए।
'यह क्या सर, खाना ?'
'खाना यहाँ नहीं।'
'यह कैसे हो सकता है, सर... ? खाने का पूरा इंतज़ाम किया है आपके लिए। वैसे भी शहर पहुँचते-पहुँचते बहुत अबेर हो जाएगी। गर्मी . भी तो कितनी है, सर...तबीयत-वबियत...।'
'नहीं, कोई ख़ास देर नहीं होगी...चालीस मिनट में पहुँच जाएँगे। खाने के बाद निकलना तो और भी मुश्किल होगा।'
तो थोड़ा आराम कर लीजिए, सर ! खाने का इंतज़ाम तो पंचायतघर में है...सोने का सरपंच साहब के यहाँ हो जाएगा ! बहुत खुश होंगे सरपंच साहब, सर !'
सक्सेना एक क्षण चुप होकर कुछ सोचने लगे। थानेदार और उत्साह में आ गया- 'चलिए सर, पाँच मिनट में पहुँच जाते हैं। दो-ढाई मील तो है कुल। सर, बहुत खुशी होगी हम सबको, और गाँववालों को भी, यदि आप भोजन यहीं करेंगे तो। बयान लेने के लिए आप खुद आ रहे हैं, इससे कैसी खशी की लहर फैली है गाँव में...आप अपनी आँखों से एक बार देख भी लेंगे तो...।'
ढेर सारा आग्रह सँजोकर एक तरह से गिड़गिड़ा ही रहा है थानेदार।
'नहीं भाई, आज तो नहीं हो सकेगा। कुछ ज़रूरी काम भी है।' फिर उसे जैसे तसल्ली देते हुए कहा, 'अभी तो दो-तीन दिन तक रोज़ ही आना है। एक दिन खाना भी हो जाएगा।'
कागज़-फ़ाइल सिमट गए तो सक्सेना बरामदे में आए। उन्होंने वहीं से देखा-दूर पेड़ के नीचे छितराया हुआ लोगों का समूह इस समय हीरा-गनेसी के इर्द-गिर्द सिमट आया है। एक हलकी-सी मुसकान उनके होंठों पर फैल गई...। फिर धीरे-धीरे दो सीढ़ियाँ उतरकर वे अहाते में आए। थानेदार भी ताबेदारी-मुद्रा में लेफ्ट-राइट करता हुआ साथ चला। जीप में बैठकर सक्सेना ने कहा, 'देखो, बिंदा के पास आदमी भेजने की ज़रूरत नहीं। मैं अपना आदमी भेजूंगा उसके पास।'
और थानेदार इस बात को पूरी तरह समझे न समझे तब तक एक और आदेश मिला-अफ़सरी-मुद्रा और सख्त आवाज़ में लिपटा हुआ, 'बिंदा के बयान के समय कमरे में कोई नहीं रहेगा...सिर्फ मैं और वह !' और खटाक-से जीप स्टार्ट हो गई।
भीतर उभरी एक वज़नी गाली को वापस ठेलकर मशीनी ढंग से एक ज़ोरदार सैल्यूट मारा थानेदार ने और जब तक जीप सरक नहीं ली, उसी पोज़ में खड़ा रहा।
धूल उड़ाती हुई जीप जैसे अहाते के बाहर हुई तो सारे शरीर को एकदम ढीला छोड़कर, बगल के डंडे को पूरी ताक़त के साथ दो-तीन बार हवा में भाँजा, फिर मुड़ा और सामने पड़े ढेले को ज़ोर की लात जमाई–'बिंदा के साथ अकेले में बयान लेगा...सूअर की औलाद।'
कल जब से सरोहा से लौटे हैं सक्सेना, एक अजीब-सी ऊहापोह में पा रहे हैं अपने को। डी.आई.जी. ने बुलाकर जब यह काम सौंपा था तो थोड़ा आश्चर्य हुआ था सक्सेना को। वैसे किसी गाँव में जाकर बयान लेना कोई इतना महत्त्वपूर्ण काम नहीं है। साधारणतः एस.पी. जाते भी नहीं ऐसी वारदातों के लिए-गाँव का थानेदार ही निपट लेता है। पर इस समय सरोहा साधारण गाँव नहीं है, इसलिए वह काम भी बहुत महत्त्वपूर्ण हो उठा है ! इतना महत्त्वपूर्ण कि गृहमंत्री दा साहब ने खुद बुलाकर हिदायत दी।
'सुना है, आतंक जगानेवाला पुलिसी रवैया नहीं है तुम्हारा ! बहुत अच्छी बात है, मैं क़दर करता हूँ इसकी। इसलिए तुम्हें सौंपा भी गया है यह काम। एक बार फिर से बयान लो लोगों के और इस तरह पेश आओ कि हिम्मत और हौसला जागे लोगों का और वे अपनी बात कहें...बिना झिझक और डर के कहें। हमें लोगों का विश्वास जीतनाहै।'
रोम-रोम पुलकित हो उठा था सक्सेना का और कृतज्ञता में डूबा हुआ 'यस सर' बड़ी तपाक से निकला था।
'सख्ती किसी के साथ नहीं हो और किसी तरह की भी नहीं हो।' इस आदेश के साथ अपनी बात का समापन किया था दा साहब ने तो सक्सेना के अपने मन में बड़ी हिम्मत और हौसला जागने लगा। लौटे तो वह बेहद खुश ! बस दा साहब का एक ही वाक्य रह-रहकर मन में गूंजता रहा। आज तक अपने इस अपुलिसी रवैये की कीमत ही चुकाते आए हैं बेचारे, पर आज कोई क़दर करनेवाला तो मिला ! और मिला है तो अपने को इस लायक़ सिद्ध करके ही दिखाएँगे !
आज की इस चूहा-दौड़ में इतने पीछे पड़ गए हैं सक्सेना कि अब तो अपने लिए किसी तरह की उम्मीद करना भी छोड़ दिया है। अभी-अभी सरकारी नौकरी की सारी सुविधा-सुरक्षा को चुनौती देते आई.जी. के तबादले की ख़बर ने पुलिस-विभाग में खलबली मचा दी। यों सबको ही अपनी-अपनी नौकरी अधर में लटकी हुई दिखने लगी है आजकल, पर मौक़ा मिलते ही एक सीढ़ी ऊपर चढ़ जाने की जी-तोड़ कोशिश करने से कोई नहीं चूकता। एक सक्सेना ही हैं, जिन्होंने अपने मन को समझा रखा है कि वे एस.पी. हैं और रिटायर होने तक भी शायद एस.पी. ही बन रहें। क्या करें, मजबूरी है उनकी, या कहना चाहिए कि यह सीमा है उनकी कि सबको प्रसन्न करनेवाला लोच है ही नहीं उनके व्यक्तित्व में। इसीलिए दा साहब के इस वाक्य ने अतिरिक्त रूप से पुलकित ही नहीं किया था, बल्कि मन में एक उम्मीद भी जगा दी थी सक्सेना के !
लौटकर डी.आई.जी. को बताईं सारी बातें तो बिना कोई ख़ास प्रतिक्रिया ज़ाहिर किए इतना ही कहा-
'बहुत गौर से सारे केस को देख चुका हूँ मैं, और रिपोर्ट भी क़रीब-क़रीब तैयार ही है-इट्स ए क्लीयर केस ऑफ़ सुसाइड। आप यह रिपोर्ट देख लीजिए, कोई छोटा-मोटा चेंज करना हो तो कर दीजिए। वैसे खास ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन बयान सबके लीजिए और पूरे लीजिए। गाँववालों को पूरी तरह तसल्ली हो जानी चाहिए कि कोई बात अनकही नहीं रही।' तो सारा उत्साह बुझ गया था सक्सेना का ! जब रिपोर्ट तैयार ही है तो फिर जाकर उन्हें करना ही क्या है ! मात्र ब्लॉटिंग-पेपर की तरह लोगों की कही बातें सोखकर ले आना है। वह भी इस तरह कि निष्कर्ष निकले-'इट्स ए क्लीयर केस ऑफ़ सुसाइड !'
चेहरे का बुझापन छिपा नहीं रह सका डी. आई. जी. से। अपने आदेश में हलका-सा संशोधन करते हुए कहा, 'अगर कोई नई बात निकलती है...समथिंग वेरी इम्पॉर्टेट, दैन वी विल कन्सिडर !'
आदेश और उसका संशोधन-दोनों का मतलब समझते हैं सक्सेना ! ठीक है, इस बार यही करके आएँगे वे। हमेशा अगर-मगर में फँसा उनका मन सामने आए अवसरों को इसी तरह ठुकराता आया है। पर उस सबसे हुआ क्या, यही न कि वे खुद ही सबकी ठोकरों में पड़े हैं आज। लेकिन इस बार वे वही करेंगे जो उनसे कहा है दा साहब ने, डी.आई.जी. ने। शाम को अकेले में बैठकर दो पैग चढ़ाए सक्सेना ने और मन में उग आए सारे मलाल की ऐसी-की-तैसी कर दी। बात को कहीं से घुमा दो, कैसे भी मोड़ दो और जो चाहे निष्कर्ष निकाल लो...बाएँ हाथ के खेल हैं ये सब पुलिसवालों के लिए। मन को सब ओर से निर्द्वद्व बनाकर ही कल वे सरोहा के लिए चले थे। लेकिन हीरा का बयान लेकर लौटे तो भीतर जाने कैसा ममत्व जागने लगा ! महेश का यह वाक्य-'बस समझ लीजिए सर, हम सब लोगों के जिंदा रहने पर प्रश्नचिह्न लगाकर वह मर गया'-उसके अपने सामने जाने कितने प्रश्नचिह्न लगाकर खड़ा हो गया। हीरा के इस वाक्य ने-“बहुतै मुलायम रही हमार बिसुआ की चमड़ी...बहुतै मुलायम'-चमड़ी पर दो दिन पहले चढ़ाए गए पलस्तर को झाड़कर फेंक दिया। नहीं, बिसू ने आत्महत्या नहीं की। आत्महत्या वह कर ही नहीं सकता था, इसीलिए शायद उसकी हत्या की गई। जो भी हो, अब वे इस मामले की तह तक पहुँचेंगे, बाद में जो भी हो, जैसा भी हो। लेकिन सवेरे-सवेरे सरोहा के लिए रवाना होने से पहले डी.आई.जी. का फ़ोन आया-
'आई मस्ट कांग्रेच्यूलेट यू, सक्सेना ! कल के तुम्हारे काम का, तुम्हारे व्यवहार का बड़ा अच्छा रिएक्शन हुआ है गाँववालों पर। लोग बहुत खुश हैं।'
फिर एक क्षण ठहरकर आवाज़ को थोड़ा धीमा करके कहा, 'और दा साहब भी ! गो अहेड !'
'थैक्यू सर !' लाइन काटी और साथ ही थोड़ी देर पहले का संकल्प भी जैसे कहीं से कटने लगा। तो दा साहब के पास उनके काम की और गाँववालों की प्रतिक्रिया की रिपोर्ट पहुँच गई ! वे अच्छी तरह जानते हैं कि बहुत चुस्त है दा साहब का विभाग। प्रांत के किस कोने में कहाँ क्या हो रहा है, इसकी विस्तृत जानकारी रहती है उन्हें। दा साहब खुश हैं और यदि वे खुश ही बने रहे तो उनकी अपनी जिंदगी में खुशियाँ आने में देर नहीं लगेगी। पर तभी उनके सामने हीरा का कातर चेहरा उभर आया-महेश की नम आँखें उभर आईं। ‘ओ गॉड', और उन्होंने सायास सारी बातों को परे सरकाया और उठकर तैयार होने लगे।
रास्ते में वे बिंदा की बात ही सोचते रहे। वह आज भी नहीं आया होगा तो ? सख्ती नहीं करनी है, पर उसे लाना तो है ही। थानेदार के हिसाब से वह ख़तरनाक आदमी है और हीरा के कहे अनुसार बिसू का ख़ास दोस्त। अच्छा किया जो कल उन्होंने थानेदार को फिर से बुलाने के लिए मना कर दिया।
वे आज अपना आदमी भेजेंगे।
|