उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
पर ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ा। जैसे ही उनकी जीप थाने के अहाते में घुसी, थानेदार ने एक कड़कदार सैल्यूट ठोंका और होंठों पर ढाई-इंची मुस्कान फैलाकर सूचना दी, 'बिंदा आ गया है, सर ! कल मैं खुद गया था उसके पास और वो डाँट पिलाई कि सिर के बल चला आया आज। आप भी ज़रा सख्ती से पेश आइए। वैसे मेरी डाँट से काफ़ी सीधा हो गया है सर, फिर भी कुछ भरोसा नहीं इसका...।' फिर ज़रा हिचकते हुए कहा, 'मैं सोचता हूँ बयान के समय मेरा रहना ठीक ही होगा, सर...थोड़ा काबू में रहेगा।'
सक्सेना ने जवाब कुछ नहीं दिया, केवल एक बार चुभती-सी निगाह से थानेदार को देखा और फिर दूर बैठे झुंड की ओर नज़रें घुमा लीं। कल की तरह आज भी काफ़ी लोग थे और सब जैसे इसी ओर देख रहे थे। सक्सेना ने वातावरण में कुछ भाँपने की कोशिश की, पर ऐसा विशेष कुछ लगा नहीं। आश्वस्त हुए सक्सेना और भीतर आकर कुर्सी पर जम गए। आज जिन लोगों के बयान होने थे-उनके नामों पर एक सरसरी-सी नज़र डाली और आँख के इशारे से आदेश दिया कि कार्रवाई शरू की जाए। चौकीदार बिंदा के नाम की गुहार लगाता हुआ बाहर दौड़ गया तो सक्सेना ने कहा, 'आप सब लोग बाहर बैठेंगे, बिंदा का बयान में अकेले में लूंगा।' दोनों कांस्टेबल तपाक से हुक्म-अदायगी की मुद्रा में खड़े हो गए, पर थानेदार ने हिम्मत करके फिर कहा, 'सर, देख लीजिए वो-बहुत टेढ़ा...।'
टेढ़े आदमियों को सीधा करना जानता है सक्सेना, आप जाइए !' आवाज़ में कोई ख़ास सख्ती नहीं थी, फिर भी भीतर-ही-भीतर तिलमिला उठा थानेदार। उसे समझ क्या रखा है एस.पी. ने... थानेदार है गाँव का आखिर, और उसे इस तरह दुत्कारा जा रहा है, जैसे भीड़ में जुट आए लौंडों-लपाड़ों को दुत्कारा जाता है ! कमरा छोड़ते समय एक झूठी मुसकान तक वह अपने होंठों पर नहीं खिला सका; बस गुस्से के मारे उसकी मूंछ का बायाँ कोना फड़कता रहा।
चौकीदार के साथ बिंदा आया। साथ में बाईस-चौबीस साल की एक औरत भी। दुआ-सलाम कुछ नहीं, पत्थर की तरह सख्त चेहरा लिए दरवाजे पर खड़ा है बिंदा। सक्सेना कुछ क्षण तक एकटक देखते रहे बिंदा को-साँवला चेहरा, तीखे नाक-नक्श और गठी हुई देह। चेहरे पर न किसी तरह का भय, न क्रोध...सिर्फ़ एक अनासक्ति। सक्सेना से नज़र मिलते ही थड़ाक-से थूक दिया बिंदा ने, तो चौकीदार ने हड़काया, 'ऐ क्या करता है साहब के सामने ?'
'क्यों, थूकना मना है क्या ?'
चौकीदार कुछ और कहता या करता उससे पहले ही सक्सेना ने कहा, 'भीतर आओ', और हाथ के डंडे से ही चौकीदार को बाहर जाने का इशारा किया।
'यह भी आएगी ! छोड़ नहीं रही है मुझे एक मिनट के लिए अकेला !' फिर मन-ही-मन में भुनभुनाते हुए बोला-खा जाएगा जैसे मुझे कोई।
'औरत है तुम्हारी ?'
इस बार औरत ने स्वीकृति में सिर हिलाया और चेहरे पर एक याचना-भरी कातरता उभर आई उसके। थोड़ा-सा सरककर वह बिंदा से एकदम सट-सी गई।
'ठीक है, आने दो इसे भी !'
'बिंदा ही नाम है तुम्हारा ?'
'बिंदेश्वरी प्रसाद !' आवाज़ में कड़क और एक-एक अक्षर पर ज़ोर।
पता नहीं क्यों, सक्सेना को बिंदा का यह लहजा अच्छा लगा-अपने लिए चुनौती-सा !
'कल तुम्हारा बयान होना था और तुम नहीं आए, क्यों ?'
बिंदा कुछ कहता उसके पहले ही रुक्मा बोली, 'सरीर ठीक नहीं था इनका। ताप चढ़ा था, कैसे आते... ?'
‘मत झूठ बोल ! डर पड़ा है किसी का ?' डपट दिया बिंदा ने, फिर सीधे सक्सेना की ओर देखकर कहा, 'हाँ, नहीं आया। क्या होगा बयान लेकर ? क्या रखा है इस नाटकबाज़ी में ? निकलेगा तो वही जो दा साहब कह गए हैं।'
'फिर आज क्यों आए ?' थोड़ा-सा व्यंग्य घुल गया सक्सेना की आवाज़ में तो एकदम भड़क उठा बिंदा, 'आज भी नहीं आता अगर काका ने सौगंध न दिलवाई होती तो।'
'कौन काका ?'
'हीरा काका ! नहीं जानते ? आप सब लोगों के तो समधी बने हए हैं आजकल ! जिसे देखो वही धोती की लाँग उठाए चला जा रहा है उनके पास।' सामने वाले को तिलमिला देनेवाली नफ़रत भरी है बिंदा के स्वर में, पर सक्सेना पर जैसे कोई प्रतिक्रिया ही नहीं हुई। बड़े ही सहज भाव से पूछा, 'जानते हो कि सरकारी बुलावे पर न आना जुर्म है?"
'जुर्म !' एकाएक लपट-सी कौंधी बिंदा की आँखों में, ‘जुर्म की पहचान रह गई है आप लोगों को ? बड़े-बड़े जुर्म आप लोगों को जुर्म नहीं लगते। ज़िंदा आदमियों को जला दो...मार दो...यह सब जुर्म नहीं है न आपकी नज़रों में ?' आँखों के डोरे सुर्ख हो आए और कनपटी की नसें फड़कनें लगीं बिंदा की। रुक्मा ने उसके आवेश पर अंकुश लगाने के लिए कसकर उसकी बाँह पकड़ ली। भय से उसका चेहरा ज़र्द पड़ने लगा ! पर सक्सेना के चेहरे पर फिर भी कोई विकार नहीं आया।
'है ! इसीलिए तो यहाँ बैठकर तहक़ीक़ात कर रहा हूँ।'
'तहक़ीक़ात क्यों कहते हैं, कहिए बेवकूफ़ बना रहे हैं सबको !' और बिंदा का चेहरा और स्वर बुझ-सा गया। याचना-भरे स्वर में उसने कहा, 'क्यों झूठमूठ गाँववालों के साथ मज़ाक़ कर रहे हैं ? दा साहब से लेकर आप तक की शतरंज में आज बिसू की मौत का मोहरा फ़िट बैठ रहा है; इसीलिए इतने ज़ोर-ज़ोर से तहक़ीक़ात हो रही है-बड़े प्यार से बुला-बुलाकर बयान लिए जा रहे हैं ! पर होना-जाना कुछ नहीं है।' फिर एकाएक आवाज़ को सप्तम स्वर पर ले जाकर चिल्लाया, 'क्या हो गया है आप सब लोगों को...कोई ईमान-धरम नहीं रह गया है किसी का भी...लानत है सब पर !'
'बिंदा !' सख्ती और कठोरता में लिपटी एक अफ़सरी आवाज़ गॅजी, 'याद रखो यह थाना है, पागलखाना नहीं।'
दोनों में कोई भेद रहने दिया है आप लोगों ने ? थाने में जो कुछ होता है, उसका सिर-पैर या कोई तुक समझ में आता है आप लोगों को ?' आवेश के मारे सारा बदन थरथरा गया बिंदा का।
सक्सेना के चेहरे की नसें तन गईं, ललाट पर गहरी सलवटें उभर आईं। सख्त आवाज़ में कहा, 'यह बकवास बंद करो और होश में आकर जवाब दो।'
सक्सेना की इस फटकार से रुक्मा धाड़ मारकर रो पड़ी और उसने कसकर बिंदा की बाँह पकड़ ली-'न बोलो...न बोलो !'
एक झटके से उसे परे धकेला बिंदा ने और उसी पर बरस पड़ा, 'मत टसुए बहा, हरामज़ादी ! मेरे भीतर सुलगती आग इन आँसुओं से ठंडी हो गई तो सबकी तरह जनख़ा हो जाऊँगा मैं भी। अभी तो मुझे इन सबसे निपटना है...एक-एक से।'
भीतर इतना शोर-शराबा सुनकर थानेदार अपने को रोक नहीं पाया। बड़ी मुस्तैदी से भीतर घुसा। सुलगती आँखों से बिंदा को देखा और फिर बड़ी विनम्रता से बोला, “सर, मैंने आपसे पहले ही कहा था न....।'
'कोई ख़ास बात नहीं, आप बाहर बैठिए !'
भीतर-ही-भीतर तिलमिला गया थानेदार। बिंदा के चीखने-चिल्लाने से मन में खुशी की जो लहर दौड़ी थी, इस आदेश से वह ठंडी पड़ गई। मन-ही-मन उभरा...स्साला, सचमुच का ही ज़नखा लगता है यह तो ! देहातियों की गालियाँ खा रहा है बैठा-बैठा ! मेरे सामने इतनी बकवास करता तो टाँगें चीर कर रख देता इस हरामखोर की !
रुक्मा ने कसकर अपने होंठ भींच लिए और सक्सेना एकटक बिंदा के चेहरे को देखता रहा...उसकी कनपटियों की फड़कती हुई नसों को देखता रहा ! दो मिनट तक एक अजीब-सा सन्नाटा छाया रहा कमरे में !
'बिंदा, मैं तुम्हारे साथ शराफ़त से पेश आ रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि तुम भी शराफ़त से ही पेश आओगे। अफ़सरी रौब और गरिमा में लिपटे इस वाक्य में ऐसा कुछ था कि बिंदा ने नज़रें उठाकर सक्सेना के चेहरे पर टिका दीं, पर बोला वह कुछ नहीं !
'बिसू तुम्हारा दोस्त था न, ख़ास दोस्त ?'
'नहीं, दुश्मन था !'
'दुश्मन ?'
'और नहीं तो क्या, जो आदमी बीच में ही दगा दे जाए उसे दोस्त कहेंगे आप ?' यह वाक्य कहते-कहते चेहरे का तनाव और आक्रोश जाने कहाँ धुल गया और एक अजीब-सी मायूसी पुत गई बिंदा के चेहरे पर।
'ओह !' एक नामालूम-सी मुस्कान फैल गई सक्सेना के चेहरे पर।
'तुम चाहते हो कि बिसू की मौत का असली कारण पता लगे ?'
'मेरे चाहने से क्या होता है-जोरावर की रखैल इस थानेदार ने रिपोर्ट तैयार करके दे ही दी है। भरी सभा में दा साहब भी कह गए कि बिसू ने आत्महत्या की है। 'मशाल'वालों ने छाप भी दिया। बस, आप लोगों के लिए तो बात ख़त्म हो गई ! पर मैं नहीं मान सकता...मरते दम तक नहीं मान सकता कि बिसू...।' बात को अधूरा छोड़कर नकारात्मक भाव से सिर हिलाने लगा बिंदा।
'कारण ?'
'कारण ?' एकटक सक्सेना के चेहरे की तरफ़ देखते हुए बिंदा ने कहा, 'जो जिंदगी को इतना प्यार करता हो...अपनी ही नहीं, हर किसी की जिंदगी को...वह आत्महत्या करेगा ? नहीं साहब, नहीं...नहीं ! उसे मारा गया है !'
‘पर किसने मारा ? क्यों मारा ?'
बिंदा की आँखों में फिर कुछ दहकने लगा और कनपटी की नसें फड़कने लगीं, 'क्योंकि वह जिंदा था ! जिंदा रहने का मतलब समझते हैं न आप ? लोग भूल गए हैं जिंदा रहने का मतलब, इसीलिए पूछ रहा हूँ।'
एक क्षण रुका बिंदा। सक्सेना एकटक उसका चेहरा देखते रहे, उसके आवेश को देखते रहे और बिंदा उसी रौ में कहता रहा-
'और जो जिंदा हैं, वे अब जी नहीं सकते अपने इस देश में। मार दिए जाते हैं, कुत्ते की मौत ! जैसे बिसू को मार दिया गया ! सोच-सोचकर ही दिमाग की नसें फटने लगती हैं।' और सचमुच ही बिंदा ने दोनों हाथों से कसकर अपना माथा पकड़ लिया।
रुक्मा बिंदा की पीठ सहलाने लगी और बड़ी याचना-भरी दृष्टि से उसने सक्सेना की ओर देखा। भीतर-ही-भीतर उभर आई खीझ पर जैसे-तैसे नियंत्रण पाकर सक्सेना ने कहा-
'देखो बिंदा, कहने-सुनने में ये बातें बहुत अच्छी लग सकती हैं, सुननेवालों के जज्बात भी उभार सकती हैं, पर मैं पुलिस का आदमी हूँ। मेरे लिए इनका कोई मतलब नहीं...क़ानून के सामने यह निरी बकवास है, समझे ! हमें ठोस प्रमाण चाहिए, उसके बिना हम कुछ नहीं कर सकते। बिना प्रमाण के कोई बेगुनाह और निर्दोष आदमी पकड़ लिया जाए तो ?' लेकिन अंत तक आते-आते उनकी खीझ उभर ही आई।
तो क्या पकड़े नहीं जाते निर्दोष आदमी ? पाँच साल पहले बिस को किस गुनाह पर पकड़ा गया था ?' सक्सेना की आँखों में आँखें डालकर बिंदा ने पूछा।
'ज़रूर कोई कारण रहा होगा।' कहने को सक्सेना ने कह दिया, पर उन्हें खुद लगा जैसे उनकी आवाज़ से कड़क गायब हो गई है।
'कारण तो सबका ही निकल आता है, साहब ! बेगुनाहों को
पकड़ने का भी और गुनहगारों को छोड़ने का भी। यही तो न्याय है आप लोगों का। इसीलिए तो कहता हूँ कि यह सब...।'
बहुत कह लिया, अब कहो मत, बल्कि कुछ मदद करो हमारी।' और मात्र इस वाक्य से उन्होंने सचमुच ही बिंदा के बोलने पर अंकुश लगा दिया।
कोई दो मिनट ख़ामोश रहने के बाद स्वर को बिलकुल बदलकर और आँखों को बिंदा के चेहरे पर गड़ाकर सक्सेना ने पूछा, 'जिस रात बिसू की मौत हुई, उस दिन दोपहर को वह तुम्हारे घर गया था ?'
'हाँ।'
'तुम्हें मालूम है कि उसके बाद कहाँ गया था ?'
'हाँ, वह अपने घर गया था और मैं शहर।'
'शहर तुम किसलिए गए थे ?'
'बीज और खाद खरीदना था। मंडी में कुछ वसूली भी करनी थी।'
'खाना उसने तुम्हारे यहाँ खाया था ?'
'हाँ, दिन का खाना वह अकसर मेरे साथ ही खाता था। बदले में वह घंटे-दो-घंटे मेरे खेत पर काम भी कर दिया करता था। मेरे मना करने पर भी मानता नहीं था।'
'हूँऽ। खाना तुमने भी उसके साथ खाया था, या अकेले उसने ही खाया था ?'
'मेरे बिना उसके गले से कौर ही कहाँ उतरता था, साहब !'
'अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारी और उसकी दोस्ती तो बहुत पुरानी नहीं थी। हीरा ने बताया कि आठ महीने पहले वह जेल से छूटकर आया, तभी तुम्हारा परिचय हुआ उससे, फिर इतनी निकटता...इतनी आत्मीयता...?' नज़रों में एक खास तरह का पैनापन उभर आया सक्सेना की। पर उससे एकदम बेख़बर बिंदा ने कहा-
‘महीनों से क्या होता है साहब, यह तो मन मिलने की बात है। हमको तो खरा आदमी मिल जाए तो एक दिन में उसके गुलाम हो जाएँ। देखने को भी मिलता कहाँ है आजकल ख़रा आदमी ?' फिर रुक्मा की ओर देखकर बोला-
‘यह जो औरत है न साहब, बेहद बदज़बान और बदमिज़ाज है। कोई आदमी बरदाश्त नहीं कर सकता ऐसी औरत को। पर मैं करता हूँ। बरदाश्त ही नहीं, आदर करता हूँ, साहब ! बाहर से भीतर तक कुंदन की तरह खरी। बिसू की असली चेली है। पर कैसी सहम गई है बिसू की मौत के बाद से !'
इन सब बातों में खास दिलचस्पी नहीं है सक्सेना की। बात को दूसरी ओर मोड़ते हुए उन्होंने पूछा, 'उस दिन जब तुम्हारे यहाँ आया था, क्या बातें की थीं उसने ? वह दुखी या परेशान था ? किसी से कुछ कहा-सुनी या झगड़ा हुआ था उसका ?'
'मुझसे झगड़ा किया था।'
'तुमसे ? किस बात पर ?' ललाट पर सलवटें उभर आईं सक्सेना के।
'दिल्ली चलने के लिए। जब से उसने आगजनी के घटना के प्रमाण जुटाए, वह पागलों की तरह पीछे पड़ा हुआ था दिल्ली चलने के लिए। मैं यही कहता था कि अब कुछ नहीं होने का...जब सरकार ही सारी बात को दाब-ढाँक रही है तो मेरे-तेरे भाग-दौड़ करने से क्या होगा ? जैसी यहाँ की सरकार, वैसी दिल्ली की सरकार। हमने तो सबको देख लिया साहब, एक वह शराबी सरकार थी, एक यह पिशाबी सरकार...ससुरे सब एक से...।'
'बिंदा !' सक्सेना ने अंकुश लगाया इस अनर्गल प्रलाप पर। वापस लाइन पर आते हुए बिंदा बोला, 'कहा न साहब, बस एक ही धुन थी उसको–'जब तक असली मुजरिम को नहीं पकड़वा दूंगा मैं चैन से नहीं सो सकूँगा, विंदा-पर किसी ने ऐसा सुलाया उसे साहब कि अब तो वह चाहकर भी नहीं उठ सकता।'
फिर एक गहरी निःश्वास छोड़कर बोला, 'वह तो सो गया साहब, पर अपनी सारी बेचैनी मुझे दे गया। अब जब तक असली मुजरिम को पकड़वाने की उसकी आखिरी इच्छा को पूरी नहीं कर देता, मैं चैन से नहीं सो पाऊँगा...।' पहली बार स्वर भीग गया बिंदा का।
'क्या प्रमाण जुटाए थे उसने ? अगर ऐसे प्रमाण हैं तो पुलिस को दो। वह नए सिरे से सारे मामले को...।'
'नहीं, कुछ नहीं करेगी यहाँ की पुलिस...कभी कुछ नहीं करेगी।
करना होता तो पहले ही नहीं करती ?'
‘कैसी बातें करते हो, बिना प्रमाण के कर ही क्या सकती है पुलिस ?'
क्यों, क़ानून और पुलिस के हाथ तो बहुत लंबे होते हैं ! केवल गरीबों को पकड़ने के लिए ?'
क़ानून के लिए अमीर-गरीब कुछ नहीं होता,' डपटते हुए सक्सेना ने कहा।
'झूठ बात है यह, सरासर झूठ।' एकदम चीख पड़ा बिंदा और उसकी आँखों के डोरों में फिर सुर्जी उभर आई, ‘सीने पर हाथ रखकर पूछिए अपने-आपसे कि कितनी सच्चाई है आपकी बात में !'
इस प्रश्न से भीतर-ही-भीतर क्षण-भर को असहज हो आए सक्सेना, पर मन का भाव चेहरे पर नहीं आने दिया। निहायत अफ़सरी लहजे में इतना ही कहा, 'बिसू के मामले में तुम कोई ऐसा प्रमाण या संकेत दे सकते हो, जो हमें आगे बढ़ने में मदद दे सके ?'
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