उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
बिंदा एकटक सक्सेना के चेहरे को देखता रहा मानो समझने की कोशिश कर रहा हो कि जो कुछ सक्सेना कह रहे हैं वे मात्र शब्द हैं या उनका कोई अर्थ भी है ? फिर धीरे से बोला-
'उस दिन शाम को आठ बजे पुत्तन की दुकान पर चाय पी थी बिसु ने। कोई दो लोग उसके साथ थे। पुत्तन कहता है, उसने उन आदमियों को कभी गाँव में नहीं देखा ! कौन थे वे आदमी...कहाँ से आए थे...क्यों आए थे ? थानेदार ने बयान तक नहीं लिया है पुत्तन का और आप कहते हैं कि असलियत का पता...!'
‘मत बोलो...मत बोलो...!' एकाएक बिंदा की बाँह झकझोर-झकझोर कर रुक्मा रोने लगी, 'नहीं साहेब, इन्हें कुछ नहीं मालूम ! ये तो उस दिन यहाँ थे ही नहीं। बस, आप अब इन्हें छोड़ दो। इन्हें किसी ने कुछ कर-करा दिया तो मैं कहाँ... ?'
'चुप कर ! बुक्का मत फाड़।' बाँह छुड़ाने की कोशिश करते हुए बिंदा ने फटकारा।
'नहीं, मैं चुप नहीं करूँगी...में नहीं बोलने दूंगी...कुछ भी...साहेब, हम पर रहम करो...।'
थानेदार हिम्मत करके फिर भीतर घुस आया, ‘सर !'
‘पानी पिलाओ इन लोगों को और मुझे भी।'
रुक्मा ने पानी भी नहीं पिया। हाथ जोड़-जोड़कर यही रिरियाती रही, ‘इनसे कुछ मत पूछो, साहेब...इन्हें...अब छोड़ दो। हमें कुछ नहीं मालूम !'
‘जानते हैं साहब, बिसू इसके लिए भगवान था बिलकुल । वह मरा है तो ऐसे रोई है जैसे यह भी जिंदा नहीं रहेगी अब ! और बिसू की मौत के बारे में आज मुझे कुछ सोचने नहीं दे रही है।'
रुक्मा के आँसुओं ने जैसे बिंदा के सारे तैश और आवेश को धो दिया। बहुत ही कातर स्वर में बोला, 'ऐसा आतंक आपने कहीं देखा नहीं होगा, साहब ! लोगों के घर, ज़मीन और गाय-बैल ही रेहन नहीं रखे हुए हैं जोरावर और सरपंच के यहाँ, उनकी आवाज़ और जबान तक बंधक रखी हुई है। कोई चूं तक नहीं कर सकता है। उसकी आवाज़ में फिर आक्रोश घुलने लगा और कनपटी की नसें फड़कने लगीं। गुस्से में वह कह उठा-'मन करता है, फावड़ा लेकर दो टुकड़े कर दूँ जोरावर के, फिर चाहे फाँसी पर ही लटक जाऊँ !'
मत बोलो ऐसी बात...भगवान के वास्ते मत बोलो। इन्हें जाने दो, साहेब !' और रुक्मा सचमुच ही बिंदा की बाँह खींचकर उसे दरवाजे की ओर घसीटने लगी।
थानेदार उम्मीद कर रहा था कि कम-से-कम इस बेहूदगी पर तो सक्सेना भड़केंगे ही, या उसे ही कुछ करतब दिखाने का आदेश मिलेगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्होंने बिंदा से केवल इतना ही कहा, 'ठीक है, आज तुम जाओ ! पर तुम्हें कल फिर आना होगा। और हो सके तो अकेले ही आना।'
‘और क्या, यह थाना है कोई सैरगाह नहीं कि कोई भाई को लिए चला आ रहा है तो कोई लुगाई को।' और फिर बड़े अदब से सक्सेना के सामने पानी पेश करके पूछा, 'चाय अभी लेंगे सरकार या एक बयान और हो जाए उसके बाद ?'
'दूसरा बयान ज़रा ठहरकर लूँगा। आप तब तक बाहर बैठिए, ज़रूरत होने पर बुला लूँगा।'
थानेदार के जाते ही सक्सेना ने शरीर को इस तरह ढीला छोड़कर कुर्सी के हवाले किया मानो बड़ी देर से वे एक भयंकर तनाव के बीच में रहे हों।
जिन लोगों के बयान होने थे उस सूची में पुत्तन का नाम कहीं नहीं था। उन्होंने वह नाम जोड़ा, कुछ और बातें नोट की और फिर कुर्सी की पीठ पर सिर टिकाकर आँखें मूंद लीं। बिंदा और रुक्मा चले गए हैं, लेकिन फिर भी उसकी आवाज़, उसका चेहरा, उसका तेवर जैसे वे अपने आसपास ही महसूस कर रहे हैं।
इसके बाद तीन बयान और हुए, पर बयान के नाम पर मात्र खानापूरी। बने-बनाए प्रश्न और उनके बने-बनाए उत्तर जो इस मामले को न आगे ले जा सकते हैं न पीछे...केवल मामले की फ़ाइल को थोड़ा और भारी-भरकम बनाने में सहायक हो सकते हैं। मन कहीं से उखड़ गया था सक्सेना का और वे कोशिश करके भी उसे जमा नहीं पा रहे थे।
आख़िर अपनी कचहरी बर्खास्त की सक्सेना ने। आज चाय भी नहीं पी और समय से कुछ पहले ही चल दिए। चलने से पहले सक्सेना ने आदेश दिया थानेदार को, ‘कल चाय की दुकानवाले पुत्तन को भी बयान के लिए बुला लेना।'
'पुत्तन को ?' इस तरह पूछा थानेदार ने मानो इस नाम का कोई तुक नहीं समझ में आ रहा हो उसके, ‘वह तो चाय की दुकान करता है, सर !
'मैंने भी तो यही कहा है-चाय की दुकानवाला पुत्तन। बहुत ज़रूरी है।' और खट्-से वे उठ खड़े हुए।
'ठीक है सर,' और वह सक्सेना के पीछे-पीछे जीप तक चला आया। आज जब चाय भी नहीं पी तो खाने के लिए कहने की हिम्मत भी नहीं हुई थानेदार की। इस बिंदा ससुरे ने मिज़ाज बिगाड़ ही दिया साहब का आख़िर।
व्हील पर नहीं बैठे सक्सेना, बगलवाली सीट पर बैठे और जब जीप स्टार्ट होकर अहाते के बाहर निकल आई तो अपना सिर सीट की पीठ पर टिका दिया उन्होंने।
पैंतालीस मिनट की वह ड्राइव अजीब-सी बेचैनी में ही काटी उन्होंने। पर बेचैनी किस बात को लेकर है, वे खुद नहीं समझ पाए। बिंदा की इन भावुकता-भरी बातों से बेचैन होनेवाली उम्र और मानसिकता वे बरसों पीछे छोड़ आए हैं। पुलिसवालों के लिए वैसे भी इस तरह की बातें मात्र लफ़्फ़ाज़ी के और कोई अहमियत नहीं रखतीं। बहुत बार, बहुतों से सुने हैं इस तरह के अनर्गल प्रलाप उन्होंने। बातों में नहीं, पर उसके चेहरे में ज़रूर कुछ ऐसा है जो सक्सेना को बेचैन बनाए हुए है। बिंदा का चेहरा फिर उनकी आँखों में उभर आया और एकाएक ही बरसों पुराना दिनेश उनके सामने आ खड़ा हुआ। सचमुच दिनेश से कितना मिलता है इसका चेहरा और इतनी देर से बिंदा नहीं...बिंदा की बातें नहीं, वरन् अतीत की असंख्य परतों के नीचे दबा हुआ दिनेश ही उन्हें परेशान कर रहा था शायद।
बयालीस के दिन आँखों के आगे उभर आए। क्या उमंग, क्या जोश था उन दिनों में ! हड़तालें, जलस और नारों के बीच ही दिन गुज़रते थे और रात को नींद में भी भुजाएँ फड़कती रहती थीं और मुट्ठियाँ हवा में उछल जाती थीं। एक बार वे और दिनेश सेक्रेटेरियेट पर तिरंगा लगाने का संकल्प लेकर निकले थे। दूसरी मंज़िल तक पहुँच भी गए थे कि अचानक गोली चलने की आवाज़ सुनकर वे भाग आए...बिना इस बात की परवाह किए कि पीछे दिनेश अकेला रह जाएगा। पुलिस का डर था या प्राणों का मोह, जिसने सोचने ही नहीं दिया कि दोनों साथ निकले हैं, साथ क़दम बढ़ाया है, तो अंत तक साथ ही रहना चाहिए। दिनेश पकड़ा गया था और इतनी पिटाई हुई थी उसकी कि सारी पसलियाँ चकनाचूर हो गई थीं। एक सप्ताह तक अस्पताल में रहकर वह मर गया था। दीवार से सिर फोड़-फोड़कर कितना रोए थे वे...कितना कोसा था अपने को...कैसी-कैसी धिक्कार और लानत भेजी थी अपने खुद के नाम ! कितने दिनों तक एक भयंकर अपराध-बोध के नीचे घुटा-घुटा और मरा-मरा महसूस करते रहे थे ! लेकिन तब से लेकर आज तक-उनके भय और उनके मोह का दायरा बढ़ता ही गया और हर बार वे भीतरी उमंग और जोश में आकर आगे बढ़ते हैं, पर ऐन मौके पर कभी भय से तो कभी मोह से मैदान छोड़कर भाग खड़े होते हैं-लंबे समय तक पश्चात्ताप की आग में झुलसने के लिए।
जीप शहर में घुसी तो उन्होंने कहा, 'ऑफ़िस नहीं, सीधे घर ही चलो।' ड्राइवर ने गाड़ी बाईं तरफ़ मोड़ दी।
असमय घर आया देख सक्सेना की पत्नी घबरा गई। कुछ हो-हवा तो नहीं गया ? इन गाँववालों का कुछ भरोसा नहीं, आए दिन तो ऐसी वारदातें सुनने को मिलती रहती हैं। झपटकर वे बाहर निकलीं-सामने सक्सेना को सही-सलामत देखा तो आश्वस्त हुई–'आज इतनी जल्दी कैसे आ गए ?'
'ऑफ़िस नहीं गया, सरोहा से सीधा यहीं आ गया।'
सिर्फ़ शरबत पिया और अपने ठंडे-अँधेरे बेडरूम में पहँचे। पत्नी से बिना विशेष कुछ बातचीत किए आँखें मूंदकर चुपचाप लेट गए।
दो दिन के बयानों से बाहर की दुविधा एकदम समाप्त हो गई थी। यह आत्महत्या का नहीं, हत्या का मामला है। ए क्लीयर केस ऑफ़ मर्डर। पर सारी दुविधा भीतर सिमट आई थी। उन्हें डी.आई.जी. के आदेश पर चलना है, या अपनी रिपोर्ट खुद तैयार करनी है ? बिंदा की जिन बातों को भावुकता-भरी बातें समझकर वे टालते रहे थे वे ही बातें हथौड़े की तरह उनके भेजे पर ठुकने लगीं।
काफ़ी देर तक अपने को ही कुरेदते रहने के बाद उन्होंने भीतर-ही-भीतर निर्णय कर लिया-निर्णय नहीं संकल्प किया कि जो भी हो, जैसा भी हो, वे इस मामले की तह तक जाएंगे और इस वारदात का रेशा-रेशा उधेड़कर रख देंगे। केवल यही नहीं, बिंदा के पास जो प्रमाण हैं उनमें कुछ दम हुआ तो पुलिस की फ़ाइलों में गड़ी उस घटना को भी खोद निकालेंगे।
शाम को उन्होंने डी.आई.जी. को फ़ोन पर बताया कि गर्मी के मारे भयंकर सिर-दर्द होने की वजह से सरोहा से वे सीधे घर आ गए। साथ ही यह भी कि पहली रिपोर्ट तो उन्हें बदलनी ही पड़ेगी, शायद शुरू से आख़िर तक। मामला बिलकुल दूसरी दिशा में जा रहा है।
'अच्छा ?' आश्चर्य में लिपटा बेहद ठंडा-सा स्वर सुनाई दिया और फिर एक आदेश कि 'जाने के पहले कल ज़रूर मिल लेना और बयान की फ़ाइल रात तक किसी के हाथ भिजवा दो...आई वान्ट टु गो धू इट।
पर डी.आई.जी. की इस सख्त और ठंडी आवाज़ ने सक्सेना के थोड़ी देर पहले किए संकल्प को कहीं से भी ठंडा नहीं होने दिया। नहीं, इस बार वे दिनेश को अकेला नहीं छोड़ेंगे। साथ देंगे अंत तक !
आज इतवार है, पर दा साहब के दैनिक कार्यक्रम में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। रोज़ की तरह पौ फटने से पहले ही वे गीली दूब पर निकल आए हैं। इसी समय पांडेजी आते हैं उनके पास। इधर पिछले कुछ दिनों से तो नियम-सा बन गया है यह। अलग-अलग मोर्चे पर होनेवाली गतिविधियों से परिचित करवाते हैं पांडेजी, और अगले दिन का कार्यक्रम तय होता है। अपनी सजगता और व्यवहार-कुशलता से पांडेजी एकदम दाहिने हाथ बन गए हैं दा साहब के। लगन और निष्ठा से आदमी कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता है, यह देखना हो तो पांडेजी को देखे कोई। दा साहब खुद उदाहरण की तरह पेश करते हैं इनका नाम सबके सामने। कहने को कोई भी पद-ओहदा नहीं पर बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान तोपनुमा हस्तियाँ पांडेजी की कृपा-दृष्टि के लिए आगे-पीछे घूमती रहती हैं। अपने इस महत्त्व के प्रति पूरी तरह सजग रहने के बावजूद किसी तरह का गर्व या व्यवहार में अक्खड़ता नहीं है इनके, इसीलिए बहुत लोकप्रिय हैं सबके बीच !
आजकल दा साहब के दिन का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा सवेरे का यह आधा घंटा ही होता है, जिसमें वे पांडेजी के साथ विचार-विमर्श करते हैं। यह समय सोच-समझकर ही तय किया है, दा साहब ने ! सवेरे मन-मस्तिष्क एकदम तरोताज़ा रहते हैं और गंभीर-जटिल बातें भी सहज होकर ही मन में उतरती हैं। पर इसके बावजूद दा साहब ने एक आदेश दे रखा है पांडेजी को कि कभी तीन-चार मसलों पर एक साथ बातचीत करनी हो तो हमेशा पहले हलके-फुलके मसले से ही बात शुरू करें। गंभीर बातें ऐसा जकड़ लेती हैं दिमाग को कि फिर मामूली बातों में भी काम नहीं करता कभी-कभी। और आजकल तो दस-दस मोर्चे एक साथ सँभालने पड़ रहे हैं। कभी सोचा भी नहीं था कि चुनाव की यह मामूली-सी लड़ाई इतने मोर्चों पर लड़नी पड़ेगी उन्हें। वैसे शायद स्थिति इतनी विकट नहीं होती, पर बिसू की मौत को मोहरा बनाकर अनेक अवांछित तत्त्व उभर आए हैं। आज तो जिसे देखो वही बिसू के नाम का हथियार भाँजता चला आ रहा है-वे फिर अपनी ही पार्टी के लोचन और राव हों या विरोधी पार्टी के सुकुल बाबू ! उन्हें तो सभी से निपटना होता है। वैसे एकाएक परेशान नहीं होते दा साहब, फिर भी हर समय सजग और चौकन्ना तो रहना ही पड़ता है और हर क्षण की यह अतिरिक्त सजगता थका देती है आदमी को।
पौ फटने से काफ़ी देर बाद तक भी जब पांडेजी नहीं आए तो दा साहब भीतर आ गए। ज़रूर कहीं फँस गया होगा, या यह भी हो सकता है कि रात को लौट ही नहीं पाया हो सरोहा से। प्रतीक्षा में समय बरबाद करने से लाभ ? सो वे नहाने घुस गए। पर नहाकर निकले तो पांडेजी को प्रतीक्षा करते पाया ! आश्वस्त हुए दा साहब। स्नेह से पूछा, 'चाय के लिए बोल दिया या कहूँ ?'
पर पांडेजी जवाब देते उसके पहले ही नौकर एक ट्रे में चाय और एक गिलास दूध लेकर घुसा तो दा साहब ने मुस्कराकर कहा-
'वाह, पांडे का छोटे-से-छोटा काम भी बिलकुल चुस्त-दुरुस्त। ढील नहीं रहती कहीं भी।' आजकल पांडेजी की प्रशंसा का कोई भी मौक़ा छोड़ते नहीं दा साहब।
तहमद की तरह लिपटी हुई धोती को ठीक से पहनकर मसनद पर टिककर बैठते हुए दा साहब ने पूछा, 'हाँ, तो अब सुनाओ !'
दा साहब की ओर दूध का गिलास बढ़ाकर अपने कप में चाय डालते हुए पांडेजी ने सबसे पहले सूचना दी, 'अगले सप्ताह होनेवाली सुकुलजी की रैली बहुत ज़ोरदार होने जा रही है। समझ लीजिए, पचहत्तर-अस्सी हज़ार आदमी इकट्ठा हो जाएँगे।'
'हूँ !' कुछ सोचने लगे दा साहब।
'आप कहें तो दो दिन के लिए बसों और ट्रकों के आने पर पाबंदी लगा दी जाए ?'
'नहीं !' तत्काल गरदन हिलाई दा साहब ने, 'अनुचित होगा यह। मात्र रैली के लिए ऐसी पाबंदी लगाना अनैतिक है, बल्कि कहूँगा गैरक़ानूनी है।' फिर एक क्षण रुककर बोले, ‘पुलिस का पूरा प्रबंध होना चाहिए और सख्त हिदायत के साथ कि किसी तरह की भी अशोभनीय घटना न घटे। प्रजातंत्र में प्रदर्शन पर रोक नहीं लगा सकते।' ऐसी बातों में किसी तरह की कोई दुविधा नहीं रहती दा साहब के मन में।
‘सोच लीजिए ?' चुनाव के क़रीब इतनी बड़ी रैली होने का मतलब क्या होता है ? असर तो पड़ता ही है हवा का रुख बदलने में ?'
'सुकुल बाबू का अनुमान कुछ...।'
'सुकुल बाबू का नहीं, यह मेरा अनुमान है, जिसे कम करके ही रखा है मैंने। देखिएगा, एक लाख आदमी ही जुटेगा उस दिन !'
'अच्छा ?'
'दो समय का खाना और पाँच रुपया प्रति व्यक्ति तय हुआ है। बच्चों के लिए भी दो-दो रुपए दिए जाएँगे। लोगों का क्या है, मजदूरी नहीं की और मौज कर ली पूरे कुनबे ने बच्चों के पैसे और खाना मुफ़्त !'
'राजनीतिक स्वर और आदमी के वोट की कीमत को पाँच रुपए पर उतार दिया जाए, बड़ी शोचनीय स्थिति है यह। पर किया क्या जा सकता है ?'
'मैं मौजूदा संकट की बात कर रहा हूँ। क्या इस रैली को रोका जा सकता है किसी तरह, या रोका जाना चाहिए ?'
'तुम चाहते हो, हम भी उनके स्तर पर उतर आएँ ? मेरे लिए यह संभव नहीं। पर इसमें परेशान होने की क्या बात है ? किराए की रैलियाँ और प्रदर्शन तो सुकुल बाबू ने पिछले चुनाव में भी बहुत करवाए थे, उन सबसे हुआ क्या ? हम तो अपने ठोस कार्यक्रमों को पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से चलाएँगे। मात्र चुनाव जीतना नहीं, इस वर्ग की स्थिति सुधारना हमारा लक्ष्य है। घरेलू-उद्योग-योजना की पहली किश्त पहुँच गई लोगों के पास ? जिनके पास नहीं पहुंची है, उनके पास पहुँचा दो।'
इस काम की रिपोर्ट तो रोज़ ही देते हैं पांडेजी, सो उसे दोहराने की जरूरत नहीं समझी उन्होंने। दा साहब की बात से अपने लिए जो निष्कर्ष निकाला, सिर्फ उसे दोहरा दिया, 'तो रैली में किसी तरह की कोई बाधा या अड़चन डालने की कोशिश न की जाए ?'
नहीं !' इस तरह के अपने निर्णयों पर हमेशा अडिग ही रहते हैं दा साहब ! तब दूसरी बात उठाई पांडेजी ने-
'राव और चौधरी कोई महत्त्वपूर्ण मंत्रालय चाहते हैं अपने लिए। वित्त-मंत्रालय और उद्योग-मंत्रालय पर नज़र है उनकी ! दे सकेंगे आप ? दे दें तो आने को तैयार ही बैठे हैं।'
‘क्या ऽ?' दा साहब को जैसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ तो पांडेजी ने अपनी बात दोहरा दी।
'आदमी जब अपनी सीमा और सामर्थ्य को भूलकर कामना करने लगे तो समझ लो, पतन की दिशा में उसका क़दम बढ़ गया। मूर्ख हैं दोनों ! और चौधरी, उसकी क्या औक़ात भला ! जो मिला है उसके लायक़ भी नहीं है वह तो।'
मैंने उन्हें नौ बजे आपसे मिलने के लिए कह दिया है।' फिर एक क्षण रुककर बोले, 'लेकिन राव को ज़रूर कुछ-न-कुछ देना होगा ! मैंने खूब बारीकी से सारी स्थिति देख ली। बापट और मेहता के आ जाने के बाद भी हमारी स्थिति बहुत मज़बूत नहीं होती, डावाँडोल-सी रहती है। लोचन तो अपनी जगह अडिग है ही, उससे तो कोई बात ही नहीं हो सकती। हाँ, राव निकल आता है तो फिर लोचन के पाँव तले भी जमीन नहीं रहेगी।' स्थिति शीशे की तरह साफ़ कर दी पांडेजी ने।
'हूँ ऽ ! बात करके देखते हैं !'
'वैसे इनमें और लोचन में भी कुछ खींचतान-सी चल रही है। कल पहलेवाला-सा तेवर नहीं था राव की बात में। इसलिए बहुत मुश्किल नहीं होगा और बहुत झुकना भी नहीं पड़ेगा।'
'सौदेबाज़ी पर टिके संबंधों में कहीं स्थायित्व हो सकता है भला ? और इन बातों पर नाजायज़ तरीके से झुकना मेरा उसूल नहीं। तुम चिंता मत करो, इस मामले से मैं निपट लूँगा।' आश्वस्त किया दा साहब ने।
‘आपके रहते किसी को भी चिंता करने की ज़रूरत रहती है भला ?'
'यह भाषा मुसाहिबों को शोभाती है, तुम्हें नहीं, और मुसाहिबगिरी का ज़माना अब गया।' तुरंत टोक दिया दा साहब ने तो हलके-से खिसिया गए पांडेजी !
इन दो हलके-फुलके मामलों को निपटाने के बाद थोड़ा गंभीर मसला रखा पांडेजी ने, 'यह सक्सेनावाली बयानबाज़ी बहुत महँगी पड़ गई हमको। सारे गाँव का वातावरण खराब कर दिया है इसने। बिसू के सीधे-सपाट केस में भी जाने क्या-क्या तिकड़म निकालकर रोज़ गाँव जाते रहे हैं सक्सेना। बिला वजह की सनसनी और असंतोष ! एक वह बिंदा, वैसे ही करेला...ऊपर से चढ़ने को नीम मिल गया। पिछले तीन दिनों में चार तो वारदातें हो गई हैं मारपीट की...सबमें बिंदा।'
बहुत गौर से सुन रहे हैं दा साहब सारी बातचीत !
‘सुना है, कुछ प्रमाण-व्रमाण लेकर दिल्ली जा रहा है बिंदा, और सक्सेना ही दिशा दिखा रहे हैं उसे। चुनाव के समय इन सारी बातों का उठना... ! सुकुल बाबू के लोग हैं कि इस बात का जोर-शोर से प्रचार करने में लगे हैं।'
बिंदा का नाम मन में उतर गया दा साहब के और अपने भाषणवाले दिन का व्यवहार भी याद आया। पर उस पर कोई टिप्पणी नहीं की। केवल इतना ही कहा, 'सुना है। मैंने खुद फ़ाइल मँगवा ली है सक्सेना की, और डी.आई.जी. से कह दिया है कि वे मामला अपने हाथों में ले लें।'
‘बात केवल इतनी ही नहीं है। जोरावर बहुत बिगड़ा हुआ है इस सबसे। सक्सेना ने सरपंच और जोरावर के बयान बड़ी सख्ती से लिए और व्यवहार भी अच्छा नहीं रहा इन लोगों के साथ। सक्सेना को भेजने का निर्णय ही गलत रहा।'
हो जाता है कभी-कभी ऐसा भी। डी.आई.जी. ने कहा था कि सक्सेना का रवैया...।'
'अब स्थिति यह हो गई है कि...।' दा साहब की बात को बीच में ही काटकर आज के सबसे महत्त्वपूर्ण मसले को रहस्योद्घाटन की तरह पेश किया-
‘जोरावर खुद खड़ा हो रहा है।'
'क्या ?' सचमुच चौंके दा साहब ! वैसे साधारणतः पांडेजी जो ख़बरें लाते हैं, उनमें से क़रीब अस्सी प्रतिशत ख़बरें दा साहब के पास किसी-न-किसी रूप में पहले ही पहुँच चुकी होती हैं। पर इस बात का तो कहीं से भी आभास तक नहीं मिला। विश्वास नहीं हो रहा दा साहब को।
'यह कैसे हो सकता है ? इतना बड़ा निर्णय ले लिया बिना मुझे वताए, बिना मुझसे पूछे ? आश्चर्य !'
'कल रात दो घंटे तक सिर खपाया है उसके साथ बैठकर,' अपनी बात की सच्चाई का प्रमाण दे दिया पांडेजी ने, 'आज शाम को मिलने आ रहा है आपके पास। रात यहीं रहेगा और कल अपना नामांकन-पत्र भरेगा। परसों अंतिम तारीख़ है फ़ार्म भरने की।'
दा साहब सचमुच विचलित हो गए इस बात से। पर जल्दी ही साध लिया अपने को।
'यह सब काशी का करिश्मा है। जो थोड़ी-बहुत कसर रही होगी, वह सक्सेना ने पूरी कर दी। यों इस घरेलू-उद्योग-योजना से भी बहुत नाराज़ है जोरावर।'
'हूँ!' और मन उनका काशी के करिश्मे में उलझ गया।
'लेकिन जोरावर अपने पैंतीस प्रतिशत वोटों को लेकर जीतने से तो रहा। हरिजन या पिछड़ी जातियों का तो एक वोट भी उसे नहीं मिलता, फिर तुक क्या रहा खड़े होने में ? कुछ समझ नहीं आता।'
बात सचमुच दा साहब के भी कुछ समझ में नहीं आ रही। जोरावर भी कोई मोल-भाव करना चाहता है क्या उनसे ? पर किस तरह का ? उसकी जान बचाने के लिए जो कुछ किया है दा साहब ने, उसकी क़ीमत तो उसे चुकानी ही चाहिए। सो यह क़ीमत चुका रहा है वह ? पर आज किसको क्या कहो, नैतिकता किसी में रह भी गई है ?
'उसके खड़े होने का सीधा फायदा होगा सकल बाबू को।'
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