उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
दो और चार वाले इस सीधे-से हिसाब पर टिप्पणी करना बेकार लगा दा साहब को। उन्होंने केवल इतना ही पूछा, 'तुमसे क्या बात हुई उसकी ?'
'यही सब उसे बाक़ायदा समझाया। पर उस जाट आदमी के कुछ समझ में आए तब न ! एक ही रट लगाए हुए है...खेती-बाड़ी बहुत कर ली, अब हम राजनीति करेंगे थोड़ी।'
'हूँ!' एक लंबी हंकार के साथ समस्या को भीतर उतार लिया दा साहब ने। थोड़ी देर बाद अपने भीतर से उबरे तो काफ़ी सजग हो चले थे। चेहरे पर छायी परेशानी की हलकी-सी झलक भी दूर हो चुकी थी। बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में पूछा, 'और कोई बात ?'
'नहीं।'
'लखन के क्या समाचार हैं ? उसे सँभालते रहना। घबराता बहुत जल्दी है। दो दिन से आया भी नहीं।'
'काफ़ी उत्साह में है। भाषण-वाषण अच्छा दे देता है आजकल । अब चुनाव तक के लिए सरोहा में जमा दिया है उसे। लोगों में कुछ-कुछ जगह भी बना रहा है अपनी।'
‘अच्छी बात है यह तो। लोगों के बीच ही नहीं, लोगों के मन में जगह बनाना ही असली उद्देश्य है हमारा।'
'तो अब चलूँ !' घड़ी देखते ही पांडेजी ने उठने की मुद्रा बनाई।
दा साहब ने हलके से सिर हिलाकर स्वीकृति दी और पांडेजी के जाने के बाद योगासन करने के लिए वे अपने शयन-कक्ष में चले गए।
ठीक नौ बजे अपने घरेलू-दफ़्तर में ही राव और चौधरी का स्वागत किया दा साहब ने, 'आओ, आओ !' और जब दोनों बैठ गए तो बिना किसी भूमिका के एकदम सीधे ही बात शुरू की-
आप पाँच मंत्रियों ने त्यागपत्र देने का फैसला किया था। उनमें से दो ने तो अपना विचार छोड़ दिया। लिखित पत्र भी भेज दिया है मेरे पास !' सामने पेपरवेट के नीचे फड़फड़ाते कागज़ की ओर इशारा किया दा साहब ने। आवाज़ में मुख्यमंत्री वाली गरिमा भी है और कड़क भी। फिर अपनी नज़रें राव के चेहरे पर गड़ाते हुए पूछा, 'अब आप लोगों का क्या इरादा है ?'
दा साहब की बात की कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं हुई राव के चेहरे पर। कल ही उन्हें सूचना मिल चुकी थी कि बापट और मेहता ने अपना क़दम वापस खींच लिया है। लेकिन क्या समझौता हुआ है, यह नहीं जान सके थे इसलिए पूछा, 'क्या दिया है आपने उन लोगों को ?'
लेन-देन की बात तो शायद आप लोग करने आए हैं। कीजिए !'
दा साहब को कुपित होते हुए कम ही लोगों ने देखा होगा, पर जब होते हैं तो उनका स्वर और तेवर सामनेवाले को भीतर तक थरथरा देने की क्षमता रखते हैं। स्वर में आवेश क़तई नहीं होता, पर इस हद तक का ठंडापन कि सुननेवाला जम जाए पूरी तरह। राव की कंजी आँखों की चमक बुझने-सी लगी और चौधरी राव का मुँह देखने लगा ! आखिर राव ने हिम्मत करके कहा-
'देखिए दा साहब, इधर पिछले कुछ महीनों से जिस तरह की स्थितियाँ चल रही हैं, मंत्रिमंडल का सदस्य होने के नाते उसकी जिम्मेदारी तो हम पर भी आती ही है। मगर उन सब बातों को हम अपना समर्थन क़तई नहीं दे सकते-बल्कि विरोध करते हैं। आखिर हमारे भी तो कुछ...।'
सिद्धांत हैं।' बड़ी नाटकीय मुद्रा में दा साहब ने राव का वाक्य पूरा किया। फिर थोड़े सख्त लहजे में कहा- 'यह लोचन की भाषा उसी के लिए रहने दो। तुम्हारे मुँह पर ज़रा भी नहीं सोहती।'
भीतर-ही-भीतर कट गया राव। लोचन बाबू के अति-आदर्शवादी रवैये से थोड़ी परेशानी तो हो ही रही थी, फिर भी उन्हें जैसे-तैसे साधकर रख रहे थे, पर बापट और मेहता तो एकदम लंगी लगाकर ही चल दिए। औंधे मुँह तो अभी भी नहीं गिरे हैं, पर थोड़ा लड़खड़ा तो गए ही। वरना आज से एक सप्ताह पहलेवाली स्थिति होती तो दा साहब वाली कड़क उनकी अपनी आवाज़ में होती और दा साहब सामने बैठकर रिरियाते होते। यह लोचन बाबू का आदर्शवाद ले डूबा हम सबको। इसी वजह से बापट-मेहता गए, और ज़रा लचक नहीं रखी अपने भीतर तो हम भी कहीं नहीं रहेंगे। फिर भी अपने को भरसक नियंत्रित करके राव ने कहा, 'यह तो आप मानेंगे कि जब मंत्रिमंडल बना था तो हमारे साथ पूरा न्याय नहीं हुआ था। लेकिन उस समय स्थिति की माँग ऐसी थी कि हम चुप कर गए। अब आप मंत्रिमंडल को रि-शफ़ल करने की बात सोच ही रहे हैं तो कम-से-कम इस समय तो हमें हमारा ड्यू मिल ही जाना चाहिए।'
'क्या है आपका ड्यू ?' सीधा-सा प्रश्न रखा दा साहब ने।
राव की कंजी आँखों में फिर चमक कौंध गई। पता नहीं, कितने पर पटाया है दा साहब ने बापट और मेहता को ! अपने लिए क्या माँगे, एकाएक कुछ समझ नहीं पाए राव। एक क्षण सोचकर जवाब दिया-
'लोचन भैया, मेरे और चौधरी के समर्थक आज भी आपके मंत्रिमंडल के सामने संकट खड़ा कर सकते हैं। बापट और मेहता से कोई ख़ास फ़र्क नहीं हुआ है, सारी स्थिति में। उनके समर्थकों की संख्या ही कितनी थी भला?'
काँइयाँपन उभरने लगा राव की आँखों में।
'भाव बढ़ा रहे हो अपना ?' दा साहब ने भी उतने ही काँइयाँपन से पूछा। वैसे स्वभाव में दूर-दूर तक काँइयाँपन नहीं है दा साहब के। उनके भव्य और गरिमामय व्यक्तित्व को शोभा ही नहीं देती है यह अदा। पर कभी-कभी अपनानी पड़ती है मजबूरी में।
'नहीं, केवल अपनी स्थिति साफ़ कर रहा हूँ।' संक्षिप्त-सा उत्तर राव ने भी दिया।
'स्थिति नहीं, अपनी माँग साफ़ करो तो ज़्यादा बेहतर होगा।'
फिर पशोपेश में पड़ गए राव। दा साहब का रुख भी बहुत अनुकूल नहीं लग रहा था और स्थिति भी पहले जैसी पुख्ता नहीं रही, इसलिए सीधे-सीधे अपनी माँग रखने की हिम्मत नहीं हो रही है। बात को लाइन से उतारकर थोड़ा-सा घुमाया राव ने-
'सुकुल बाबू की रैली बहुत ज़ोरदार होने जा रही है। इस दिशा में हम लोगों को कुछ करना चाहिए, वरना चुनाव पर इसका...कुछ सोचा है आपने ?'
व्यंग्य-भरी एक हलकी-सी मुस्कराहट दा साहब के होंठों पर फैल गई।
'ओढ़े हुए सिद्धांत ही इतनी जल्दी साथ छोड़ देते हैं।' फिर एक क्षण रुके और राव के खिसियाहट-भरे चेहरे पर नज़र गड़ाए-गड़ाए बात पूरी की-
'चाहूँ तो इन्क्वायरी भी बिठा सकता हूँ कि रैली के नाम पर पानी की तरह बहाया जानेवाला यह रुपया कहाँ से आया ? पर नहीं, यह घटियापन मैं करूँगा नहीं। राजनीति मेरे लिए स्वार्थनीति नहीं है और चाहता हूँ कि मेरे साथ काम करनेवाले लोग भी इस बात को अच्छी तरह समझ ले।'
राव का चेहरा बुझने लगा। पाँव के नीचे पुख्ता ज़मीन हुए बिना ऐसी धार नहीं आ सकती थी दा साहब की आवाज़ में। लगता है, अपना पक्ष पूरी तरह मज़बूत कर लिया है दा साहब ने। तब क्या कहें वह ?
'तुमने अपनी माँग नहीं रखी ?' बात को वापस लाइन पर ले आए दा साहब, पर राव सचमुच ही लाइन से उखड़ा हुआ महसूस कर रहे हैं। झिझकते हुए कहा, 'आप हमें हमारा ड्यू ज़रूर दीजिए।'
'ड्यू ? हूँ, अब दा साहब ने बात का सिरा अपने हाथ में लिया, 'लोचन से क्या आश्वासन मिला था ?' प्रश्न पूछने के साथ ही उनकी आँखों में एक ख़ास पैनापन उभर आया, जिसके सामने आदमी आसानी से झूठ नहीं बोल सकता।
'लोचन भैया ने ब्लैंक चेक दे दिया है हमें। समझ लीजिए, गृह और वित्त सुरक्षित ही हैं हमारे लिए।'
दा साहब हँसे और थोड़ी देर तक हँसते ही रहे। उस हँसी में उपहास था, विनोद था, या व्यंग्य-समझ नहीं पाए राव।
जिसके एकाउंट में कुछ हो ही नहीं, वही बड़े खुले हाथ से बाँट सकता है इस तरह के ब्लैंक चैक !' फिर एकदम गंभीर होकर समझाने के लहजे में बोले-
'देखो राव और चौधरी, राजनीति में तुम लोग बच्चे हो अभी। आदमी की पहचान भी नहीं तुमको।' फिर एक क्षण रुककर बोले, 'उम्र में लोचन भी कोई ज़्यादा नहीं है तुमसे, पर आदर्श और सिद्धांतों की आड़ में राजनीतिक दाँव-पेंच खेलना खूब जानता है। इसीलिए कभी सम्मान नहीं जगा पाया मैं उसके लिए अपने मन में।'
अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए उन्होंने राव के चेहरे पर नज़रें गड़ा दीं। पर वहाँ कोई खास प्रतिक्रिया थी नहीं था तो हलका-सा अविश्वास का भाव। उसे ही मिटाने के लिए दा साहब ने बात आगे बढ़ाई-
‘सुकुल बाबू की विधान सभा में जब विधायक था तो उसने हवा का रुख़ भाँप लिया था और समझ लिया कि जल्दी ही दिन पूरे होनेवाले हैं अब सुकुल बाबू के। झट से त्यागपत्र दिया और विद्रोह की मुद्रा अपनाकर खड़ा हो गया। बाद में विद्रोह की क़ीमत वसूल की और यहाँ शिक्षा-मंत्री बन गया। अब सुकुल बाबू से मोल-भाव और हमसे विरोध चल रहा है उसका। जिसके सारे सिद्धांत और आदर्श-सारा विरोध और विद्रोह मात्र अपना भाव बढ़ाने के लिए हो, उसके लिए किसी तरह का सम्मान या सद्भाव नहीं रहता मेरे मन में।'
'सुकुल बाबू के साथ वे क्यों जाएँ ? इस पार्टी में रहकर वे ज़रा-सी होशियारी बरतें और चाहें तो मुख्यमंत्री बन सकते हैं।' लोचन की आदर्शवादिता को लेकर चाहे जितना भी मलाल हो राव के मन में, पर दा साहब के इस आरोप ने सचमुच कहीं बुरी तरह आहत किया उनको; चुप नहीं रह सके वह।
क़तई बुरा नहीं माना दा साहब ने राव की इस बात का, बल्कि हँसे। महज़ विनोद में लिपटी हँसी... अपने साथ रखकर हवा में खूब ऊँचे तक उड़ना सिखा दिया है लोचन ने तुम लोगों को भी। देखो भाई, मैं बहुत ऊँचे तक तो नहीं ले जा सकता, पर जहाँ तक ले जाता हूँ, वहाँ खड़े होने के लिए कम-से-कम पाँव के नीचे ज़मीन ज़रूर देता हूँ। मेरे साथ चलनेवालों के सामने औंधे मुँह गिरने का ख़तरा क़तई नहीं रहता। अब तुम सोच लो।'
एक तरह से समझौते का हाथ बढ़ा दिया दा साहब ने तो अपनी तरफ़ से अब राव की बारी है।
पर राव और चौधरी, दोनों चुप।
'देखो, अनुशासन मेरे मंत्रिमंडल की पहली और अनिवार्य शर्त है। लोचन के रवैये से मैं ही नहीं, अप्पा साहब तक बहुत दुखी और परेशान हैं। आख़िर हमें उसे बर्खास्त करने का निर्णय लेना ही पड़ा। कल पत्र चला जाएगा।' एक क्षण रुके दा साहब और फिर बात का समापन करते हुए कहा-
‘शिक्षा-मंत्री का पद खाली हो रहा है। राव, तुम सँभालो इस भार को। लोचन ने वैसे भी कोई संतोषजनक काम किया नहीं इस क्षेत्र में। मेरे हिसाब में सबसे महत्त्वपूर्ण है यह पद-भावी पीढ़ी का निर्माण करने का सारा दायित्व इसी मंत्रालय पर है। स्वीकारो इस चुनौती को।'
भावी पीढ़ी का निर्माण करने की दिशा में राव का कोई विशेष उत्साह नहीं। उसका ध्यान तो अपनी पीढ़ी पर भी नहीं, केवल अपने पर टिका हुआ है। फिर भी इस प्रस्ताव पर बिना किसी तरह की प्रतिक्रिया जाहिर किए अपनी कंजी आँखों को गोल-गोल घुमाते हुए राव
ने पूछा, ‘और चौधरी के लिए ?'
'वे जहाँ हैं, फ़िलहाल वहीं रहें...करना चाहें तो वहीं बहुत कुछ है करने को। वैसे भी में चुनाव के पहले तो कोई परिवर्तन नहीं कर रहा।'
अंतिम वाक्य दा साहब ने कुछ इस तरह कहा कि उसमें बात का समापन भी था और उन दोनों के लिए उठने का संकेत भी।
चौधरी का चेहरा एकदम ही बुझ गया। जब से आया, एक शब्द भी वह नहीं बोला था और दा साहब की इस बात से तो उसकी आवाज़ भी कुंद हो गई। उठते-उठते राव ने हिम्मत करके पूछ ही लिया, 'बापट और मेहता को आख़िर आप... ?'
'अभी कुछ नहीं दिया।' बात को पूरा भी कर दिया और जवाब भी दे दिया दा साहब ने और फिर हलके-से मुसकराकर कहा, 'कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो केवल समझाने-भर से समझ जाते हैं। पर कुछ ज़िद्दी बच्चे ऐसे भी होते हैं जो मनचाही चीज़ लिए बिना मानते ही नहीं।'
राव हलके-से खिसिया गए। मन तो हुआ कहें, ‘मनचाही चीज़ कहाँ मिल रही है, पर चुप ही रहे। बापट और मेहता केवल बातों से मान जाएँ, विश्वास नहीं होता इस पर। हाँ, यह हो सकता है कि भविष्य के लिए कोई आश्वासन मिला हो। पर वह खुद क्या करे ? केवल इतना ही कहा, 'कल तक सोचकर जवाब दूंगा।'
'प्रशासनिक लोगों में तुरंत निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए। यही तो विशेषता होती है उनकी। खैर, देख लो।'
राव और चौधरी के जाने के बाद दा साहब ने अप्पा साहब को फ़ोन किया, 'लोचन की बर्खास्तगी के लिए राज्यपाल को पत्र भेज रहा हूँ। मंत्रिमंडल में अब वह नहीं रहेगा, पार्टी के बारे में आप तय करें। राव से भी अभी बात हो गई...सब ठीक ही है।'
'लोचन के बारे में भी यदि एक बार फिर से सोच लेते।' कुछ झिझकता-सा स्वर सुनाई दिया अप्पा साहब का।
'नहीं अप्पा साहब, अनुशासन भंग करनेवाले को साथ लेकर चलना मुश्किल होगा मेरे लिए।' अंतिम निर्णय सुना दिया दा साहब ने। उधर से भी फिर कोई आग्रह नहीं हुआ। केवल इतना ही सुनाई दिया, 'बधाई।' पर दा साहब को लगा कि शब्द ही बधाई का है, स्वर और भाव तो शायद बिलकुल विपरीत ही थे।
जोरावर। उम्र चालीस साल। छः फुटा गठीला शरीर। घनी-नुकीली मूंछों और अपेक्षाकृत मोटे-गदराए होंठों ने एक ख़ास ही तेवर दे रखा है उसके व्यक्तित्व को। टेरीकॉट या रॉ-सिल्क का ढीला-ढाला कुर्ता और पाजामा स्थायी वेशभूषा है उसकी। गले में काले धागे में बँधा तावीज और सोने की मोटी-सी जंजीर। दोनों हाथों की उँगलियों में चाँदी में जड़े रंग-बिरंगे नगीनों की अंगूठियाँ। आधे से ज्यादा सरोहा जोरावर का ही है और वह पूरे सरोहा का बेताज बादशाह। लेकिन व्यक्तित्व में आभिजात्य की बू तक नहीं है कहीं भी, है तो केवल एक दर्प-भरा उद्धत अहंकार। पिता की बड़ी इच्छा थी कि शहर जाकर ऊँची पढ़ाई करे जोरावर, पर गाँव के मिडिल स्कूल से आगे बढ़ा ही नहीं। स्कूल में भी वह इस तरह जाता था मानो विद्यार्थी नहीं, मालिक हो वहाँ का। और सच पूछो तो मालिक था भी। बाप की मिल्कियत उसके सिर चढ़कर ही बोलती थी।
जब दा साहब की कोठी में घुसा जोरावर तो रत्ती ने उठकर स्वागत किया, 'आइए-आइए जोरावरजी !!
'दा साहब ?'
‘अप्पा साहब से मिलने गए हैं, आ जाएँगे पाँच तक।'
'जमना बहन तो होंगी ?'
'वे अस्पताल गई हैं किसी बीमार को देखने के लिए। दोनों साथ ही लौटेंगे। पर आप बैठिए न...साढ़े चार बज ही गए हैं।'
और रत्ती ने पारिवारिक लोगों के लिए बैठने का ड्राइंग-रूम खोल दिया। पंखा और कूलर चला दिए। इस घर में परिवार के सदस्य की तरह ही समझा जाता रहा है जोरावर।
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