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उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


दा साहब आए तो कुछ इस भाव से स्वागत किया जोरावर का, मानो उसके अप्रत्याशित आगमन से आश्वस्त हो आए हों कहीं, ‘बड़ा अच्छा किया कि तुम आ गए...वरना मैं बुलाने ही वाला था। आज पांडे आया ही नहीं, वरना उसी के हाथ संदेश भेजता।' थोड़ा-सा झूठ बोल गए दा साहब । बोलना पड़ता है कभी-कभी परिस्थिति के दबाव से। जोरावर कुछ कहता उसके पहले ही उन्होंने पूछा, 'शरबत-वरबत कुछ पिया या नहीं ?' फिर पत्नी की ओर देखकर बोले, 'आम और शरबत भिजवाओ जोरावर के लिए।

अभी पांडेजी से मुलाक़ात नहीं हुई है इसलिए...वरना आज इस तरह के आत्मीयता-भरे स्वागत की कोई उम्मीद नहीं थी जोरावर को।

बाहर रत्ती को कुछ आदेश देकर भीतर आए दा साहब और जोरावर की बगल में बैठ गए।

'आज सवेरे से तुम्हारी ही बात सोचता रहा मैं।'

'क्यों ?'

'कल रात सक्सेनावाली फ़ाइल मँगाकर देखी थी। परेशानी तो पैदा हो गई।'

कान खड़े हुए जोरावर के, लेकिन निहायत लापरवाही से अपने जोरावरी अंदाज में ही पूछा, 'क्या लिख दिया है उस हरामखोर ने अपनी फैल में ?'

इस बार दा साहब ने बड़ी चुभती-सी नज़र से देखा जोरावर को, मानो कह रहे हों कि यह भाषा और तेवर अब नहीं चल सकेगा। पर कहा इतना ही, 'तुमने यह अच्छा नहीं किया। एक परेशानी से जैसे-तैसे उबरने की कोशिश कर रहे थे कि...'

'क्या किया हमने ?' ललाट पर तीन सलवटें डालकर कड़क आवाज़ में पूछा उसने।

'मैं बिसू की बात कह रहा हूँ।'

'सो हम भी समझ रहे हैं। पर हमारा उससे क्या लेना-देना ?'

दा साहब एकटक देखते रहे जोरावर को अपनी उसी सधी हुई पैनी नज़र से, जो सामनेवाले को चीरकर उसके आर-पार देख लेती है। फिर बहुत ही सख्त आवाज़ में बोले, 'यह मत भूलो कि पुलिस और क़ानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं और आँखें काफ़ी तेज़। न देखें तो हाथी तक को न देखें, पर उतर आएँ तो फिर चीटीं तक भी नहीं बच सकती-नज़र से, न गिरफ़्त से।'

और आपने उस सक्सेना को उतार दिया हमारे पीछे। पर उससे क्या, क्या कर लेगा हमारा वह ?'

कोई और होता तो एकदम भड़क जाता, इस बेबुनियाद इल्ज़ाम पर। पर दा साहब के लिए क़तई कोई अहमियत नहीं रखतीं ये बातें।

तभी रत्ती एक फ़ाइल लेकर घुसा और दा साहब के सामने पेश कर दी। दा साहब ने उसे लेकर बगल में रख लिया और उसे ही सहलाते हुए समझाने के लहजे में बोले, 'देखो जोरावर, जब आदमी अपने को ही धोखा देने लगता है तो मार खाता है निश्चय ही।'

ये महीन बातें नहीं समझता जोरावर, इसलिए सीधे ही पूछा, 'आप साफ बताओ, क्या लिखा है उस सक्सेना ने हमारे खिलाफ अपनी फैल में?'

दा साहब भी बात साफ़ बताना चाह रहे हैं, पर उठाकर सीधा पत्थर ही मारें, यह स्वभाव नहीं उनका।

'पुत्तन की दुकान पर दो लड़कों के साथ चाय पी थी उस शाम को बिसु ने और वही आखिरी चीज़ थी तो उसके पेट में गई थी।'

'लौंडे-लपाड़ों के साथ चाय-बीड़ी तो वह पीता ही रहता था।' बिना ज़रा भी परेशान हुए बात ऊपर से ही उड़ा दी जोरावर ने।

'लड़के सरोहा के नहीं, टिटहरी गाँव के थे।' दा साहब की सतर्क नज़र एक क्षण को भी नहीं हट रही है जोरावर के चेहरे से।

‘आस-पास के गाँवों में तो भटकता रहता था वह बिसुआ। कुछ काम-धाम तो था नहीं उस हरामखोर के पास करने को।'

'उन लड़कों के बयान हैं इस फ़ाइल में।'

‘सक्सेना ने जिनके बयान लिए हैं, हमें मालूम है वो सब। कोई लड़कों-वड़कों के बयान नहीं लिए हैं सक्सेना ने।' पर अब रंग उड़ने लगा है जोरावर के चेहरे का और बड़ी परवाह से ओढ़ी गई यह लापरवाही ढंक नहीं पा रही है उसके बदरंग होते चेहरे को।

‘पुलिस के सब काम सबको मालूम होने लगें तो फिर पुलिस ही क्या हुई वह ? उन्होंने क़बूल किया है कि...उनके पास एक मोटी रक़म भी मिली है जो उन्हें...,' बात अधूरी छोड़ दी दा साहब ने और फिर हाथ से फ़ाइल सहलाने लगे।

इस बार जोरावर चुप। एक निहायत ही नामालूम-सा निःश्वास छोड़ा दा साहब ने।

तभी भीतर से आम और शरबत आया। दा साहब ने सख्ती को स्नेह में बदलकर कहा, 'लो खाओ, लखनऊ से आया है दशहरी का टोकरा।'

नौकर के चले जाने के बाद उन्होंने बात फिर से शुरू की, पर स्वर और तेवर पहले वाला नहीं था।

'यह सही है कि मैं जब किसी का हाथ पकड़ता हूँ तो बीच में नहीं छोड़ता। स्वभाव है मेरा। पर कोई इसे दुर्बलता समझकर नाजायज़ फ़ायदा उठाना चाहे तो...।' अधूरे वाक्य को उन्होंने शब्दों से नहीं, नज़रों से पूरा कर दिया।

पर नज़रों की भाषा समझने का माद्दा नहीं जोरावर का। उसने तो शब्दों को ही पकड़ा, 'नाजायज़ फैदा तो आप उठा रहे हैं हमारी दोस्ती का आजकल।'

मैं ?' इस उलटे आरोप का कोई तुक समझ में नहीं आया दा साहब की !

'और क्या ? अब ये जो हरिजनों को माथे चढ़ाने के सारे धंधे आपने शुरू किए हैं-जड़ खोदना ही हुआ हमारी एक तरह से यह।'

हलके-से मुस्कराये दा साहब ! समझाने के लहजे में बोले, 'जमाना बदल रहा है जोरावर, ज़माने के साथ बदलना सीखो ! जो चीजें आज से तीस साल पहले होनी चाहिए थीं-वे आज भी पूरी तरह नहीं हो रहीं। दुर्भाग्य है इस देश का यह।"

'बदल रहा होगा जहाँ बदल रहा होगा जमाना। हमारे रहते सरोहा में नहीं बदल सकता जमाना।'

'तुम्हारी यह ज़िद और जाटपना एक दिन ले डूबेगा तुम्हें।'

'इसमें जिद्द की क्या बात हुई, दा साहब ? इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सिर झुकाकर रहते थे। झुके-झुके पीठ कमान की तरह टेढ़ी हो जाती थी। और ये ससुरे सीना तानकर आँख-में-आँख गाड़कर बात करते हैं-बरदास्त नहीं होता यह सब हमसे।'

दा साहब इस पुश्तैनी बड़प्पन से घसीटकर जोरावर को फिर नीचे लाए–'खैर, यह सब बाद की बातें हैं, चिंता मुझे इस समय इस फ़ाइल की है। बात ज़बानी रहे, तब तक कुछ नहीं; पर एक बार फ़ाइल में आ जाए तो बहुत मुश्किल हो जाता है।

जोरावर सचमुच ज़मीन पर आ गया। दा साहब के स्वर से इतना तो समझ गया कि बात चिंता की है।

'अब जो भी है आपको ही सुलटना है। हमारे साथ कुछ उलटा-सीधा नहीं होना चाहिए, बस...आपकी जिम्मेदारी है यह !'

दा साहब कुछ बोले नहीं। लगा, किसी गहरे सोच में डूबे हैं जैसे। जोरावर ने ही कहा, 'हम क्या सोचकर चले थे और क्या हो गया ?'

दा साहब ने नज़रों से ही प्रश्न पूछ लिया।

'इस बार हमने भी सोचा कि चुनाव लड़ लें। फारम भरने को आए थे...आप कहें तो भर दें।'

क्या ?' दा साहब ने आश्चर्य से पूछा जैसे उन्हें अपने कानों पर विश्वास न हो रहा हो।

बिना किसी झिझक के जोरावर ने अपनी बात दोहरा दी। दा साहब एकटक चेहरा देखते रहे उसका और उनके अपने चेहरे पर सख्ती की परत चढ़ने लगी। बहुत ठंडी और सख्त आवाज़ में उन्होंने कहा-

'उधर बिसू ने आगजनी के जो प्रमाण जुटाए थे, उन्हें लेकर बिंदा दिल्ली जानेवाला है, इधर सक्सेना ने सारे प्रमाण जुटा लिए हैं और तुम्हें चुनाव लड़ने की सूझ रही है। विधानसभा की जगह मुझे तो डर है कि कहीं तुम्हें जेल...'

'हम आपसे पूछने तो आए हैं दा साहब, फारम अभी भरा तो नहीं !'

'नहीं, भरना हो तो ज़रूर भरो। मैं कभी मना नहीं करूँगा। बल्कि एक तरह से मुक्त होउँगा...।'

'आप तो नाराज़ होने लगे, दा साहब ! कहा न, मन में आया सो पूछने को चले आए। कौन अभी खड़े हो गए हैं !'

इतने में जमना बहन ने आकर कहा, 'खाना यहीं खाकर जाना, जोरावर ! इस बार तो पंद्रह दिन बाद ही आए होओगे शायद।'

'खाना तो खाएँगे ही, इसमें कहना क्या ?'

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