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उपन्यास >> महाभोज

महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788183610926

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


खाने पर भी बातचीत के विषय को दा साहब ने फ़ाइल से ज्यादा इधर-उधर नहीं सरकने दिया; बल्कि स्थिति की सारी भयंकरता को उसके नंगेपन के साथ पेश कर दिया।

खाना खाकर चलने से पहले एक बार जोरावर ने फिर कहा, 'आप देख लीजिए दा साहब, यह फैल-फूल का मामला हम नहीं जानते। बस, हमारे साथ ऐसा-वैसा कुछ नहीं होना चाहिए, यह आपकी जिम्मेदारी है।' फिर एक क्षण रुककर बोला-

'और ससुरे उस बिंदा को भी ठीक करवाओ। क्या फैल मचा रखे हैं उसने ?'

'तुम कुछ मत करना।' सख्त हिदायत दी दा साहब ने और जब वह चला गया तो फ़ाइल को लेकर अपने निजी कमरे में गए और कुछ देर तक फ़ाइल को उलटते-पलटते रहे। थोड़ी देर बाद फ़ोन पर रत्ती को आदेश दिया कि डी.आई.जी. सिन्हा को कह दो कि कल आठ बजे घर पर ही मिल लें।

सामान्यतः सवेरे अपने घरेलू-दफ़्तर में नहीं बैठते दा साहब, पर आज डी.आई.जी. से मिलने के लिए पौने आठ बजे ही यहाँ बैठे हैं। सामने दो फ़ाइलें हैं और एक काग़ज़ में उन्होंने कुछ नोट कर रखा है।

ठीक आठ बजे डी.आई.जी. ने सेल्यूट ठोंका तो गरदन के हलके-से झटके से प्रत्युत्तर दिया दा साहब ने।

'आओ !' और सामने रखी फ़ाइल पर अपना पूरा पंजा फैलाकर बोले, 'मैंने यह फ़ाइल देख ली है, खूब अच्छी तरह। सक्सेना के लिए हुए बयान भी और आपकी रिपोर्ट भी।'

सिन्हा एकटक चेहरा देख रहे हैं दा साहब का। इस उम्मीद में हैं कि शायद कोई प्रशंसात्मक टिप्पणी सुनने को मिलेगी अपनी रिपोर्ट पर।

'सक्सेना के बारे में क्या राय है ?' बात रिपोर्ट से नहीं, सक्सेना से शुरू की दा साहब ने।

‘सर, आदमी तो बहुत भला है। आई मीन...,' समझ नहीं आया कि वाक्य कैसे पूरा करें ?

'हूँ ! ज़रूर होगा। पर यह ज़रूरी नहीं कि भला आदमी योग्य भी हो। मैं योग्यता की बात पूछ रहा हूँ !'

'वैसे सर, गाँववालों का विश्वास जीतने के लिए...मुझे लगा था बहुत सही आदमी होंगे। इसलिए मैंने...।' सिन्हा ने सक्सेना का नाम सुझाया था, और इसीलिए अब अपने को थोड़ा अपराधी-सा महसूस कर रहे हैं।

'तुम्हें उलाहना क़तई नहीं दे रहा।' सिन्हा को एक प्रकार से आश्वस्त किया दा साहब ने। फिर बोले, 'पुलिसवालों में जैसी अंतर्दृष्टि, व्यवहार-कुशलता और व्यक्तित्व का ओज होना चाहिए वैसा कुछ है नहीं सक्सेना में।' फिर सक्सेना की सी.आर.' को ज़रा-सा खींचकर बोले'इसे भी देखा है मैंने। मेरी धारणा की पुष्टि ही करती हैं इसकी रिपोर्ट्स ! जब-जब महत्त्वपूर्ण काम सौंपा गया...परिणाम असंतोषजनक ही रहा। इसीलिए प्रमोशन के हर मौक़े पर तबादला करके इधर-उधर भेज दिया गया है इन्हें।'

दो मिनट को रुके दा साहब। सिन्हा समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस बात पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करें अपनी !

'पुलिसवालों की दृष्टि बहुत निष्पक्ष और तटस्थ होनी चाहिए-कुछ के साथ सीमातीत सद्व्यवहार और कुछ के साथ अकारण ही दुर्व्यवहार ! असंतोष फैलता है ऐसी बातों से। मैंने उन्हें वहाँ असंतोष दूर करने के लिए भेजा था, फैलाने के लिए नहीं।'

सिन्हा मन-ही-मन सोच रहे हैं. यह तो बिसमिल्ला ही गलत हो गया, पता नहीं, उनकी अपनी रिपोर्ट पर क्या सुनने को मिलेगा।

'उस पुत्तन चायवाले के बयान का तुक ? बिला वजह चीजों को उलझाना ! अपनी महत्ता दिखाने के लिए आदमी करता है कभी-कभी यह सब भी। पर मुझे पसंद नहीं। महत्ता हो आदमी में तो दिखानी नहीं पड़ती, अपने-आप दिख जाती है।'

चेहरे पर गहरा असंतोष व्याप गया दा साहब के और सिन्हा का अपराध-बोध और गहरा गया।

'प्रांत की राजधानी में एस.पी. का पद कम महत्त्व का तो नहीं होता...तुम देख लेना', और सक्सेना की सी.आर. (कांफिडेन्शियल रिपोर्ट) सिन्हा के सामने सरका दी दा साहब ने। फिर बिसूवाली फ़ाइल के पन्ने पलटने लगे।

'तुम्हारी रिपोर्ट भी देखी है मैंने ! मेहनत से तैयार की गई लगती है।'

कृतज्ञ हो आए सिन्हा, पर दा साहब ने ज्यादा देर टिकने नहीं दिया यह भाव।

मैंने भी सारे केस का अध्ययन किया है...बहुत गौर से।' कुछ देर को रुके दा साहब... ऐसा लगता है कि निष्कर्ष तुम्हारे मन में पहले से था और रिपोर्ट बाद में तैयार की। होता है कभी-कभी ऐसा भी कि दिमाग में एक बात बैठ जाती है तो फिर सारे निष्कर्ष उसी दिशा में निकले चले जाते हैं।'

थोड़े असमंजस में पड़ गए सिन्हा। कुछ समझ नहीं पाए कि दा साहब का संकेत किस ओर है ! कुछ सकुचाते हुए बोले, 'लेकिन सर, ये तो बहुत साफ़ मामला है आत्महत्या का। मैंने...।'

और अगर मैं न मानें तो ?' अपनी सूझ-बूझ और गहरी अंतर्दृष्टि से पुलिसवालों के निर्णय को चुनौती देते हुए दा साहब ने कहा, 'मुझे खुद आश्चर्य हुआ, लेकिन खुले दिमाग और तटस्थ दृष्टि से देखा तो पाया कि मैं तो बिलकुल दूसरे नतीजे पर खड़ा हूँ।'

अजीब-सी परेशानी घिर आई सिन्हा के चेहरे पर। दा साहब ने अपनी बात जारी रखी-

'क्रिमिनल साइकॉलॉजी पर गहरी पकड़ और गहन अध्ययन तो नहीं है मेरा, फिर भी थोड़ा अधिकार ज़रूर है ! तुम लोग तो मास्टर हो इस लाइन के...।' और अपनी नज़रें सीधे सिन्हा के चेहरे पर गड़ा दीं।

सिन्हा दा साहब के असली मुद्दे तक पहुँचने में ऐसे डूबे कि कुछ भी नहीं कहा गया उत्तर में। पर दा साहब को अपेक्षा भी नहीं थी शायद। उन्होंने अपनी बात जारी रखी-

'चतुर अपराधी ही सबसे अधिक आक्रामक मुद्रा अपनाता है कभीकभी।' दा साहब एक क्षण को रुके और सीधे ही कहा-

'घटनावाले दिन बिंदा का गाँव से अनुपस्थित होना और घटना के बाद उसका अतिरिक्त रूप से आक्रामक रवैया ? संदेह के लिए बहुत गुंजाइश नहीं रह जाती।'

क़तई चौंके नहीं सिन्हा। क्षण-भर पहले ही वे समझ गए थे कि दा साहब यही नाम लेने जा रहे हैं। इस बार उन्होंने गौर से दा साहब को देखा और बेझिझक देखते ही रहे। उस दृष्टि में न स्वीकार था, न नकार ! था तो एक विस्मय ! पर दा साहब विचलित नहीं हुए इस दृष्टि से। बल्कि अपनी दृष्टि से थोड़ा-सा आक्रोश घोलकर उन्होंने कहा-

'आश्चर्य है, सक्सेना या आपको यह बात सूझी तक नहीं। खैर, एक बार फिर सारे मामले पर नज़र डालिए-खुले दिमाग और पैनी नज़र से ! मुझे बिसू के हत्यारे को पकड़ना है...वचन दिया है मैंने गाँववालों को और अब आप पर छोड़ रहा हूँ यह काम...।'

बिना किसी जवाब का मौक़ा दिए ही दा साहब उठे और भीतर का दरवाज़ा खोलकर अंदर चले गए।

दा साहब की अंतर्दृष्टि से उपजा यह निष्कर्ष, यह तेवर, यह तैश, यह स्वर उनके जाने के बाद भी जैसे वहीं बना रहा और सिन्हा कुछ देर तक जहाँ-के-तहाँ खड़े रहे-जड़वत्, अवाक् और पूरी तरह विस्मय में डूबे !

आज एक घंटे तक तेल की मालिश करवाकर भाप-स्नान किया है दा साहब ने, इसलिए शरीर फूल-सा हलका हो रहा है और अंग-प्रत्यंग में एक प्रकार की कांति छाई हुई है। बड़े तुष्ट भाव से 'मशाल' का ताज़ा अंक देख रहे हैं दा साहब। पिछले सप्ताह की सारी प्रमुख घटनाएँ दी हैं और और बड़े सलीक़े और ज़िम्मेदाराना ढंग से। मुखपृष्ठ पर असंतुष्टों द्वारा मंत्रिमंडल गिराने के प्रयास की घोर असफलता की बात ही नहीं, वरन् उन लोगों की स्वार्थपरता और पदलोलुपता की कड़ी आलोचना भी है ! लोचन बाबू की बर्खास्तगी को दा साहब का एक सही और साहसिक क़दम बताया है और इस बात की प्रशंसा की है कि पार्टी के अनुशासन और एकता के लिए अपनी ही पार्टी के एक मंत्री को निकाल देने का निर्द्वद्व भाव से लिया गया निर्णय निश्चय ही अभिनंदनीय है।

बीच के पृष्ठ पर सुकुल बाबू की रैली का समाचार है। तसवीर कोई नहीं है, पर यह स्वीकार किया है कि इस प्रांत के इतिहास में इतनी बड़ी रैली शायद ही कभी हुई हो। विरोधियों की इतनी बड़ी रैली बिना किसी बाधा-व्यवधान के शांतिपूर्ण ढंग से हो गई, इसके लिए गृह-मंत्रालय और डी.आई.जी. पुलिस के प्रति आभार व्यक्त किया है।

इसके बाद तीसरी प्रमुख ख़बर : दोस्ती की आड़ में बिसू की हत्या करनेवाला बिंदा गिरफ़्तार ! फिर बड़े सनसनीखेज और रोचक ढंग से विस्तृत वर्णन दिया गया था कि किस प्रकार नए सिरे से बयान लेने और गहरी छानबीन करने पर कुछ ऐसे विस्मयकारी तथ्य सामने आए जिन्होंने सारी घटना की दिशा ही बदल दी। डी.आई.जी. ने जिस सूझ-बूझ का प्रमाण दिया इस सारे मामले में-उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा थी। साथ ही एक छोटे-से बॉक्स में बधाई देते हुए यह सूचना भी थी कि आई.जी. के रिक्त स्थान को डी.आई.जी. सिन्हा ने सँभाल लिया है।

उसके बाद सरोहा चुनाव-क्षेत्र में बढ़ती हुई सरगर्मियों के अनेक रोचक विवरण। और अंतिम पृष्ठ पर तीन तसवीरों के साथ घरेलू-उद्योग-योजना की तेज़ी से बढ़ती हुई गतिविधियों के उल्लेख के साथ आशा व्यक्त की गई थी कि इसी सक्रियता और कर्मठता के साथ योजना चलती रही तो साल-भर के भीतर-भीतर गाँव के गरीब तबले की आर्थिक स्थिति में आमूल परिवर्तन आ जाएगा।

इस पृष्ठ के एक-एक शब्द को पढ़कर दा साहब के चेहरे पर एक दिव्य आभा छा गई। बापू के सपनों का गाँव उनकी आँखों के आगे साकार हो उठा और मन कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण, बहुत ही सार्थक कर डालने के तोष में डूब गया।

तभी जमना बहन खुद ही नाश्ते की ट्रे लेकर पहुँचीं। बड़ी सफ़ाई और सलीक़े से कटा हुआ लँगड़ा आम, तले हुए मखाने, केसरिया संदेश और शहद-पानी।

'आओ !' बड़ी आत्मीयता से स्वागत किया दा साहब ने तो ट्रे दा साहब के सामने रखकर बगल में बैठ गईं जमना बहन। सचमुच पति के साथ बैठने का समय ही नहीं मिलता कभी उनको। पर किसी तरह का गिला या शिकायत नहीं है उन्हें। पति का बड़प्पन ही सबसे बड़ा संतोष है उनका। यों दा साहब खुद राजनीति की बात नहीं करते उनसे, पर वे हैं कि एक-एक बात की खबर रखती हैं-चाहे पांडेजी से, चाहे लखन से या कहीं और से। जब कोई संकट की स्थिति आती है तो दा साहब से अधिक चिंतित होती हैं और जब संकट टल जाता है तो प्रसन्नता भी दा साहब से अधिक जमना बहन को ही होती है।

'मशाल, मशाल का यह अंक देखा ?' अख़बार की ओर इशारा करके पूछा दा साहब ने।

‘सवेरे उठते ही पढ़ लिया। पहले से कितना अच्छा निकलने लगा है यह अख़बार !' दा साहब से संबंधित घटनाओं से ही अख़बार का स्तर तय करती हैं जमना बहन। विरोधी पार्टी के अख़बार ‘समय के स्वर' से इतनी दखी, बल्कि कहना चाहिए इतनी कपित हैं जमना बहन कि घर के भीतर आने ही नहीं देतीं उसे।

हूँऽऽ!' मुसकराए दा साहब। पत्नी की समझ पर थोड़ा प्रसन्न भी हए, 'कोई एक महीने पहले ही बुलाकर समझाया होगा इसके संपादक को, और अख़बार का रंग ही बदल गया। कमी नहीं है समझदार लोगों की, बस सही ढंग से दिशा-निर्देश करनेवाला कोई नहीं।' और इस वाक्य के साथ ही मन अख़बार से छिटककर एकाएक देश के साथ जुड़ गया- 'देश की दुरवस्था का सबसे बड़ा कारण ही है-सही नेतृत्व का अभाव। छात्रों को देखो-युवकों को देखो-किसान-मज़दूरों को देखो, सब-के-सब दिशाहीन से भटक रहे हैं-कोई दिशा दिखानेवाला ही नहीं।' लोगों की भटकन का जरा-सा दुख दा साहब के स्वर में भी उभर आया। उस दुख से उन्हें मुक्त करने के लिए जमना बहन ने तुरंत कहा-

'शुक्र है भगवान का कि सब बातें सलट गईं ! आजकल राजनीति में घटिया तरह की जो घालमेल चलती है, उसे देखकर लगता है कि तुम जैसे संत आदमी को तो संन्यास ले लेना चाहिए। तुम्हारे बस का है यह सब करना ?'

हलके-से मुसकराए दा साहब, ‘गीता पढ़कर भी तुम ऐसी बात करती हो ? स्थितियों की चुनौती स्वीकारना तो कर्मयोगी का सबसे पहला धर्म होता है। अर्जुन भी ऐसे ही हताश हो रहा था जब भगवान कृष्ण ने कहा...।'

हज़ार बार पढ़े और सुने भगवान कृष्ण के कथन में विशेष दिलचस्पी नहीं है ज़मना बहन की, इसलिए बीच में ही बोलीं, 'लो, यह आम तो खा लो।'

'लज्जत बड़ी अच्छी होती है लँगड़े की।' आम की अंतिम फाँक मुँह में डालते हुए कहा दा साहब ने तो तुरंत जमना बहन उठीं और 'थोड़ा और लाती हूँ' कहकर भीतर चली गईं। लौटीं तो आम ही नहीं, केसरिया संदेश भी थे, ‘तुम्हें वैसे भी बहुत पसंद हैं ये संदेश; फिर मैंने अपने हाथ से बनाए हैं। समझ लो सारे संकट टले, इसी खुशी में।'

'अच्छा, तब तो तुम भी खाओ,' प्लेट जमना बहन की ओर बढ़ाते हुए आँखों-ही-आँखों से स्नेह में नहला दिया दा साहब ने। इस उम्र में भी सुर्जी फैल गई जमना बहन के गालों पर। गद्गदाती-सी बोलीं, 'मेरा मन कहता है, चुनाव भी तुम ही जीतोगे। सौ फीसदी !'

'लो, जब गृह-लक्ष्मी ने कह दिया तो बस जीत गए। अब संदेह कैसा ?'

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