इस प्रकार महिलाओं की सामाजिक अधीनता आधुनिक समाज के प्रचलन में एक अकेला तथ्य
है; जो अब मूलभूत नियम बन गया है उसका एकमात्र अतिक्रमण; पुराने विचार व
व्यवहार का एकमात्र अवशेष जिसे हर क्षेत्र में खत्म कर दिया गया है लेकिन सिर्फ
एक ही क्षेत्र में वह शेष है और वह क्षेत्र सार्वभौमिक स्तर का है, मानो सेण्ट
पॉल के स्थान पर ज्यूपिटर ओलंपिअस का एक विशाल मन्दिर हो और उसकी रोज पूजा की
जाये, जबकि उसके आसपास के ईसाई चर्चों में सिर्फ त्योहारों के दिन ही रौनक हो।
एक तरफ यह सामाजिक तथ्य और दूसरी ओर अन्य तथ्य जो इसके साथ ही मौजूद हैं, इस
तथ्य की प्रकृति और आधुनिक विश्व के प्रगतिशील आन्दोलन के बीच का गहन
अन्तरविरोध और किस तरह इस प्रगतिशील आन्दोलन ने इस जैसी अन्य सभी रीतियों को
खत्म कर दिया है-यह सब मानव प्रवृत्तियों के विवेकशील अध्येता के लिए विचार का
गम्भीर विषय है। यह प्रथम द्रष्ट्या ही एक नकारात्मक पूर्वधारणा पैदा करती है
जो इन परिस्थितियों में किसी भी सकारात्मक पूर्वधारणा से कहीं गम्भीर है जो
रीति या व्यवहार से पैदा हो सकती है। और यह कम से कम इसे, गणतंत्रवाद व
राजतंत्र के बीच चुनाव जैसा एक सन्तुलित प्रश्न बनाने के लिए पर्याप्त है ही।
कम से कम यही माँग की जा सकती है कि इस प्रश्न का मौजूदा तथ्य व मत की बिना पर
पूर्वनिर्णय न किया जाये, बल्कि इसे इसके गुणों पर न्याय व औचित्य के सवाल के
रूप में विचार-विमर्श के लिए खुला छोड़ दिया जाये। मनुष्य की अन्य सामाजिक
व्यवस्थाओं की तरह ही, इस सन्दर्भ में भी, पुरुष-स्त्री का भेद किये बिना,
प्रवृत्तियों और परिणामों के उस विवेकशील अनुमान पर निर्भर होकर यह निर्णय होना
चाहिये, जो सामान्यतः मानवजाति के लिए सर्वाधिक लाभप्रद हो। और यह बहस वास्तविक
होनी चाहिये, जो मुद्दे की जड़ तक जाये, न कि आम और अस्पष्ट तर्को से ही
सन्तुष्ट हो। उदाहरण के लिए, सामान्य तौर पर यह तर्क देना नाकाफी होगा कि
मानवजाति का अनुभव मौजूदा व्यवस्था के पक्ष में है। अनुभव तब तक उन दो चीजों के
बारे में फैसला नहीं दे सकता जब तक कि केवल एक ही चीज का अनुभव रहा हो। अगर यह
कहा जाये कि पुरुष-स्त्री की समानता का मत केवल सिद्धान्त पर ही आधारित है, तो
यह याद रखना चाहिये कि इसके विपरीत मत भी सिर्फ सिद्धान्त पर आधारित है। इसके
पक्ष में प्रत्यक्ष अनुभव से जो सिद्ध हुआ है, वह यह कि मानवजाति इस मत के साथ
जीने में समर्थ रही है और विकास व समृद्धि की उस हद को प्राप्त करने में सफल
रही है, जो हम आज देख सकते हैं। लेकिन क्या यह समृद्धि इसके विपरीत मत के साथ
रहने की अपेक्षा शीघ्र प्राप्त हुई या उससे ज्यादा रही, अनुभव यह नहीं बताता।
दूसरी तरफ, अनुभव यह जरूर बताता है कि सुधार का हर कदम महिलाओं की सामाजिक
स्थिति को उन्नत करने से इतना जुड़ा हुआ रहा है कि इतिहासकार व दार्शनिक किसी
भी समाज या युग की सभ्यता को मापने के लिए समय या समाज की महिलाओं की उन्नत या
पतित स्थिति को एक निश्चित और सही कसौटी मानते हैं। मानव इतिहास के सभी
प्रगतिशील युगों से होकर महिलाओं की स्थिति पुरुषों से समानता के निकट पहुँच ही
रही है। यह स्वयं में इसे सिद्ध नहीं करता कि इस तरह का समावेश तब तक जारी रहना
चाहिये जब तक कि स्त्री-पुरुष समानता पूरी नहीं हो जाती लेकिन यह निश्चित तौर
पर इस पूर्वधारणा को जन्म तो देता ही है कि स्थिति ऐसी ही है।
न ही यह इस पक्ष में कुछ कहता है कि पुरुष-स्त्री का स्वभाव स्वयं को उनके
विवेक और मानव मस्तिष्क की संरचना के आधार पर मैं इस बात से इंकार करता हूँ कि
कोई भी पुरुष-स्त्री के स्वभाव के बारे में जानता है या जान सकता है, जब तक
उन्हें उनके वर्तमान परस्पर सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाये। यदि
पुरुष इस समाज में कभी बिना स्त्रियों के रहे होते, या महिलाएँ बिना पुरुषों के
रही होती, या फिर कभी एक ऐसा समाज होता जिसमें महिलाएँ पुरुषों के नियंत्रण में
न रही होती, तो स्त्री-पुरुष के बीच सम्भव मानसिक व नैतिक भिन्नताओं के बारे
में जाना जा सकता था। आज जिसे महिलाओं का स्वभाव कहा जाता है, वह ज्यादातर एक
कृत्रिम चीज है-कुछ दिशाओं में जबरन दमन व कुछ में अस्वाभाविक प्रेरकों का
परिणाम है। यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि और किसी पराधीन वर्ग का चरित्र मालिक
से उसके सम्बन्ध के परिणामस्वरूप इतनी पूर्णता में नहीं बदला। क्योंकि यदि
विजित व गुलाम जातियाँ कुछ हद तक अपेक्षाकृत अधिक बल प्रयोग से दमित की गईं, तो
उनमें जो कुछ भी कुचला न जा सका, उसे छोड़ दिया गया और यदि उसे विकास की कुछ
सम्भावना के साथ छोड़ा गया, तो वह तत्व अपने ही नियमों के अनुसार विकसित हआ।
लेकिन महिलाओं के सन्दर्भ में 'आरामदायक घर और गर्म चूल्हा' की संस्कृति उनके
स्वभाव की क्षमताओं में प्रमुख मानी जाती रही है तो उनके मालिकों के फायदे व
खुशी के लिये। सामान्य जैविक ऊर्जा के कुछ उत्पाद इस गर्म माहौल में और सक्रिय
देखभाल के चलते आराम से उगते और भली-भाँति बढ़ते हैं, जबकि इसी जड़ से उगी एक
और टहनी, जिसे जानबूझकर जाड़े की हवा और बर्फ के बीच छोड़ दिया जाये, उसका
विकास बाधित रहता है और कुछ इसी तरह आग में जलकर लुप्त हो जाती हैं। पुरुष, जो
अपने ही काम को पहचानने में असमर्थ हैं, और उनकी यह असमर्थता एक
गैरविश्लेषणात्मक बुद्धि की परिचायक है, मान लेते हैं कि वृक्ष उसी तरह बढ़ता
है, जिस तरह उन्होंने उसे पाला-पोसा है, और यह कि अगर उस वृक्ष का एक भाग वाष्प
स्नान और दूसरा बर्फ में न रख गया, तो वह मर जायेगा।
विचार के विकास व जीवन एवं सामाजिक व्यवस्था पर भलीभाँति सोचे-समझे गये मतों के
विकास में जो बाधाएँ आती हैं उनमें से मानव-चरित्र का निर्माण करने वाले
प्रभावों के सन्दर्भ में मनुष्य का अवर्णनीय अज्ञान व लापरवाही प्रमुख बाधा है।
मानव जाति का जो भी भाग अभी जैसा है, या जैसा प्रतीत होता है तो यह मान लिया
जाता है कि वैसा होने की उसमें स्वाभाविक प्रवृत्ति है : जब कि उन परिस्थितियों
की मूलभूत जानकारी, जिनमें उसे रखा गया, उन कारणों की ओर साफ संकेत देती है,
जिन्होंने उसे वैसा बनाया। क्योंकि एक किरायेदार अपने मकान मालिक के कर्ज में
डूबा हुआ है और मेहनती नहीं है, तो ऐसे बहुत से लोग हैं जो सोचेंगे कि आइरिश
लोग ही स्वाभाविक रूप से आलसी होते हैं। चूँकि उन संविधानों को उलट दिया जाता
है, जिनको लागू करने वाले अधिकारी ही उनके विरुद्ध हो जायें, तो बहुत से लोग यह
सोच लेते हैं कि फ्रांसीसी लोग एक स्वतंत्र सरकार बनाने में असमर्थ हैं। चूँकि
ग्रीकों ने तुर्कों को धोखा दिया और तुर्कों ने उन्हें सिर्फ लूटा, तो बहुत से
लोग यह सोचेंगे कि तुर्क लोग अपेक्षाकृत अधिक ईमानदार होते हैं, और चूँकि
महिलाएँ, जैसाकि प्रायः कहा जाता है, अपने सौन्दर्य व व्यक्तित्व के अलावा
राजनीति इत्यादि की परवाह नहीं करतीं, तो यह मान लिया जाता है कि सामान्य
कल्याण की बातें स्वभाव से ही परुषों की अपेक्षा स्त्रियों की रुचि का विषय
नहीं होतीं। इतिहास. जिसे अब पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह समझा जाता है,
दूसरा ही पाठ पढ़ाता है, लेकिन सिर्फ यह दिखाते हुए कि मनुष्य का स्वभाव बाहरी
प्रभावों के प्रति कितना संवेदनशील है। और इतिहास इसकी उस अभिव्यक्ति की अति
परिवर्तनशीलता भी दिखलाता है, जो सर्वाधिक सार्वभौमिक व एकरूप मानी जाती है।
लेकिन यात्रा की तरह इतिहास में भी लोग प्रायः वही देखते हैं जो पहले से ही
उनके दिमाग में है; बहुत कम लोग ही इतिहास से सीख पाते हैं, जो इसका अध्ययन
बिना किसी पूर्वधारणा के करते हैं।
इसलिए, उस सर्वाधिक कठिन प्रश्न के सन्दर्भ में, स्त्री-पुरुष के बीच स्वाभाविक
भेद क्या है-एक ऐसा विषय जिसके बारे में मौजूदा समाज में रहते हुए पूरी व सही
जानकारी पाना असम्भव है-जबकि लगभग सभी इस पर सिद्धान्त बघारते हैं, लगभग सभी उस
साधन की भी उपेक्षा कर देते हैं, या उसे गम्भीरता से नहीं लेते, जो इसमें कुछ
अन्तर्दृष्टि प्रदान कर सकता है। और वह है-मनोविज्ञान के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
विभाग का विश्लेषणात्मक अध्ययन-चरित्र पर परिस्थितियों के प्रभावों के नियम।
क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच कितने भी बड़े व स्पष्टतः न खत्म होने वाले नैतिक
व बौद्धिक भेद हों, उनके प्राकृतिक होने का प्रमाण सिर्फ नकारात्मक ही हो सकता
है। प्रत्येक की उन विशेषताओं को हटा कर, जो शिक्षा या बाहरी परिस्थितियों के
कारण जनित कही जा सकती हैं, शेष विशेषताओं में से केवल उन्हें प्राकृतिक कहा जा
सकता है, जिनका कृत्रिम होना सम्भव नहीं होता। नैतिक व विवेकपूर्ण प्राणियों के
रूप में स्त्री-पुरुष के बीच कोई भेद है, और इससे भी ज्यादा वह भेद क्या
है-इसकी पुष्टि करने वाले व्यक्ति के लिए चरित्र निर्माण के नियमों की गहनतम
जानकारी अपरिहार्य है। और चूँकि अभी तक किसी के पास यह जानकारी नहीं है क्योंकि
ऐसा कोई विषय नहीं है जिसका इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी इतना कम अध्ययन किया
गया हो) इसलिए इस विषय पर निश्चित मत व्यक्त करने का अधिकारी कोई नहीं है।
फिलहाल इस सन्दर्भ में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है; अनुमान, जो चरित्र
निर्माण पर लागू मौजूदा मनोवैज्ञानिक नियमों की जानकारी के आधार पर कमोबेश
लगाये जा सकते हैं।
यदि यह सवाल छोड़ भी दिया जाये कि स्त्री-पुरुष में अन्तर किस तरह से बने, तो
स्त्री-पुरुष में क्या अन्तर है-इस प्रश्न पर जो आरम्भिक जानकारी उपलब्ध है, वह
अब भी बहुत कच्ची और अपूर्ण है।
चिकित्सकों व शरीरविज्ञानियों ने कछ हद तक स्त्री-पुरुष की शारीरिक संरचना में
भिन्नताओं को तो निश्चित कर लिया है और शरीरवैज्ञानिकों के लिए यह एक
महत्त्वपूर्ण तत्व है। लेकिन कोई चिकित्सक शायद ही मनोवैज्ञानिक होता है।
महिलाओं की मानसिक विशिष्टताओं के सन्दर्भ में उनका कथन भी उतना ही अर्थ रखता
है जितना कि आम आदमी का। यह ऐसा विषय है जिस पर अन्तिम रूप से कुछ भी नहीं जाना
जा सकता जब तक कि वे जो वाकई यह जान सकती हैं, स्वयं महिलाएँ, इस पर कुछ प्रमाण
न दें। और जो थोड़ा बहुत उन्होंने कहा भी है, अधिकतर झूठ ही है। मूर्ख महिलाओं
को जानना सरल है। पूरी दुनिया में मूर्खता कमोबेश एक जैसी ही होती है। एक मूर्ख
व्यक्ति के विचार व भावनाएँ उस समूह के सामान्य विचारों से समझी जा सकती हैं,
जिसमें वह प्रायः रहता है। ऐसा उन लोगों के साथ नहीं होता जिनके मत उनके अपने
स्वभाव व योग्यता से जनित होते हैं। यहाँ-वहाँ इक्का-दुक्का ही पुरुष होंगे
जिन्हें अपने परिवार की स्त्रियों के चरित्र की भी ठीक-ठाक जानकारी होगी। मेरा
अर्थ उनकी योग्यताओं से नहीं है। वह तो कोई नहीं जानता, वे खुद भी नहीं क्योंकि
ज्यादातर स्त्रियों को कभी इस सन्दर्भ में बुलाया ही नहीं गया। मेरा आशय उनके
वास्तविक विचारों व भावनाओं से है। बहुत से पुरुष सोचते हैं कि वे महिलाओं को
भली-भाँति समझते हैं क्योंकि कईयों से उनके प्रेम-सम्बन्ध रहे हैं-शायद बहुतों
से।
अगर वह अच्छी समझ रखता है और उसके अनुभव में संख्या के साथ गुण का भी समावेश है
तो उसने स्त्री-स्वभाव के बहुत छोटे से भाग के बारे में ही जाना
होगा-निस्सन्देह वह भाग बहुत महत्त्वपूर्ण है। लेकिन शेष स्वभाव के बारे में,
कम ही लोग होंगे जो इतने अज्ञानी होंगे क्योंकि उनका स्वभाव बहुत सावधानीपूर्वक
गुप्त रखा जाता है। एक स्त्री के चरित्र का अध्ययन करने के लिए एक पुरुष के पास
सामान्यतः अपनी पत्नी का सबसे अनुकूल केस होता है। क्योंकि इसमें अवसर ज्यादा
मिलता है और पूर्ण सहानुभूति की स्थितियाँ भी इतनी दुर्लभ नहीं होतीं। और दरअसल
मेरा मानना है कि यही वह स्रोत है, जिससे इस विषय पर जितनी भी ठीक-ठाक जानकारी
उपलब्ध है, प्राप्त हुई है। लेकिन अधिकतर पुरुषों को इस तरह अध्ययन करने के लिए
एक से अधिक अवसर प्राप्त नहीं हुए हैं। तदनुसार, हम, हास्यास्पद होने की हद तक,
एक पुरुष के स्त्रियों के बारे में सामान्य विचारों से यह पता लगा सकते हैं कि
उसकी पत्नी किस तरह की है। इस केस से भी कुछ नतीजा पाने के लिए-पहले तो वह
महिला जानने योग्य होनी चाहिये, फिर उसके पति का न सिर्फ (स्वभाव का) एक अच्छा
पारखी होना आवश्यक है, बल्कि उसका अपना चरित्र इतना सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिये
और अपनी पत्नी के इतना अनुकूल होना चाहिये कि या तो वह सहानुभूतिपूर्ण
अन्तर्बोध से उसके मन की बात जान ले या फिर उस पुरुष में ऐसा कुछ न हो जिसकी
वजह से पत्नी कुछ भी खुल कर बताने में संकोच करे। प्रायः ऐसा होता है कि
(पति-पत्नी) दोनों में बाहरी चीजों के लिए रुचियों का व होता है, मानो वे सिर्फ
परिचित ही हों। सच्चे स्नेह सम्बन्ध में भी यदि एक तरफ सत्ता हो और दूसरी तरफ
पराधीनता-तो यह परस्पर पूर्ण विश्वास के आड़े आ जाता है। हालाँकि जानबूझकर कुछ
छिपाया नहीं जाता लेकिन ज्यादा व्यक्त भी नहीं किया जाता। माता-पिता व बच्चे के
बीच ऐसे ही सम्बन्ध में यही चीज लक्षित होती है। जैसे पिता और पुत्र के बीच ऐसा
कितने ही मामलों में होता है, कि पिता, दोनों तरफ वास्तविक स्नेह होने के
बावजूद पुत्र के उस पहलू को नहीं जानता जो पुत्र के साथियों व परिचितों को
मालूम होता है। सच तो यह है, कि एक व्यक्ति की दूसरे पर निर्भरता की स्थिति
उसके साथ पूर्ण ईमानदारी और खुलेपन के प्रतिकूल होती है। दूसरे की नजर में या
उसकी भावनाओं में अपनी जगह खो देने का भय इतना प्रबल होता है कि एक ईमानदार
व्यक्ति में भी सिर्फ अपना बेहतरीन पहलू या फिर वह पहलू जो दूसरा व्यक्ति देखना
सर्वाधिक पसन्द करेगा, ही दिखलाने की प्रवृत्ति होती है। और यह तो बहुत विश्वास
से कहा जा सकता है कि एक-दूसरे की पूरी-पूरी समझ कभी मौजूद नहीं होती, सिवाय उन
लोगों के बीच जो अन्तरंग होने के साथ-साथ समान स्तर पर भी हैं। तो फिर यह उस
स्थिति में कितना सच होगा जिसमें न सिर्फ एक की दूसरे पर पूरी-पूरी सत्ता है
बल्कि उसके मन में यह बैठाया भी गया है कि सत्ताधारी की सुविधा व सुख के सामने
अन्य हर चीज को तुच्छ मानना उसका कर्तव्य है; उसका फर्ज है कि पुरुष उसमें वही
देखे व महसूस करे जो उसके अनुकूल है! एक पुरुष द्वारा उस एक स्त्री के अध्ययन
में भी ये सभी बाधाएँ उपस्थित हैं, जिसको समझने के लिए सामान्यतः उसके पास
पर्याप्त अवसर होता है। जब हम आगे सोचते हैं कि एक महिला को समझ लेने का अर्थ
अन्य किसी भी स्त्री को समझ लेना नहीं होता : यहाँ तक कि यदि वह एक वर्ग की या
एक देश की महिलाओं को भी समझ लेता है तो इस तरह वह अन्य वर्गों या देशों की
स्त्रियों को नहीं समझ जायेगा; और अगर उसने ऐसा कर भी लिया तो इतिहास के एक दौर
की भी वे ही महिलाएँ होंगी। इसलिए हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि महिलाओं की
जो भी जानकारी परुषों को प्राप्त हो सकती है, कि वे क्या रही होंगी और क्या
हैं, इस बात का जिक्र किये बिना कि वे क्या हो सकती थीं, वह बहुत कच्ची और सतही
होगी। और ऐसा हमेशा रहेगा जब तक कि महिलाएँ स्वयं वह सब न बतायें जो उन्हें
बताना है।
और यह वक्त अभी नहीं आया है, यह सिर्फ धीरे-धीरे ही आ सकता है, अन्यथा नहीं। कल
की ही तो बात है कि महिलाएँ या तो अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के द्वारा या समाज
की अनुमति पाकर सामान्य जनता को कुछ भी बताने के लिए मुखातिब हुई हैं। अभी तक
बहुत कम ने ऐसा कुछ बताने का साहस किया है, जो वे पुरुष, जिन पर उनकी साहित्यिक
सफलता निर्भर करती है, न सुनना चाहते हों। हमें याद रखना चाहिये कि कुछ समय
पहले तक पुरुष लेखकों के प्रचलित मतों से इतर विचारों या जिन्हें सनकी भावनाएँ
समझा जाता था, उनकी अभिव्यक्ति को किस तरीके से लिया जाता था, और आज भी लिया
जाता है। और इससे हमें उन बाधाओं का आभास हो सकता है जिनके प्रभाव में वह
महिला, पुस्तकों में अपने स्वभाव की गहराई से कुछ व्यक्त करने का प्रयास करती
है, जिसका पालन-पोषण इसी विचार के निर्माण के लिए किया गया है कि रीति-रिवाज व
मत ही जीवन के उत्तम नियम हैं। एक महानतम महिला, जिसका इतना लेखन उपलब्ध है जो
उसके देश के साहित्य में उसे एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवा सके, ने अपनी सर्वाधिक
निर्भीक पुस्तक के आरम्भ में यह आदर्श-सूक्ति लिखना आवश्यक समझा था। "Un homme
pent braver l'opinion; une femme doit s'y soumettre."* (Note 1) ("पुरुष
अपना मत निर्भीकता से व्यक्त कर सकता है; स्त्री को समर्पण भाव से यह काम
करना चाहिए।" )
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