महिलाएँ जो कुछ महिलाओं के बारे में लिखती हैं उसका अधिकतर भाग महज पुरुषों
की चापलूसी होता है। अविवाहित महिलाओं की स्थिति में, अधिकतर लेखन पति
पाने के अवसर बढ़ाने के उद्देश्य से होता है। विवाहित व अविवाहित महिलाओं-दोनों
में से अनेक, हद पार कर जाती हैं और किसी भी पुरुष की इच्छा या सुख के परे की
चापलूसी खुद में विकसित कर लेती हैं। अब यह इतना आम नहीं है, जितना कि कुछ समय
पहले तक था। साहित्यिक महिलाएँ अब अधिक मुखर हो गयी हैं और अपनी वास्तविक
भावनाओं को व्यक्त करने के लिए पहले से अधिक इच्छुक हैं। दुर्भाग्यवश, खासकर
हमारे देश में, स्वयं महिलाएं ही इतनी कृत्रिम होती हैं कि उनकी भावनाओं में
उनके निजी अनुभव व चेतना का भाग बहुत छोटा और अधिकतर उनके सम्बन्धों से
प्रभावित होता है। यह धीरे-धीरे कम होता जायेगा लेकिन जब तक सामाजिक प्रथाएँ
महिलाओं को अपनी मौलिकता विकसित करने की उतनी आजादी नहीं देतीं जितनी कि
पुरुषों को प्राप्त है, तब तक ऐसा ही रहेगा। और जब वह वक्त आयेगा तो हम महिलाओं
के स्वभाव के बारे में जितना जानना आवश्यक है, उसे न केवल सुनेंगे बल्कि
देखेंगे भी।
वर्तमान समय में पुरुषों द्वारा महिलाओं के वास्तविक स्वभाव को जानने में आने
वाली कठिनाइयों का इतना विस्तृत ब्यौरा मैंने इसलिए दिया है क्योंकि अन्य
क्षेत्रों की तरह इसमें भी; और विशेषकर उस विषय में विवेकपूर्ण विचार की
गुंजाइश बहुत कम होती है जब लोग यह सोच कर सन्तुष्ट हो जाते हैं कि वे उस विषय
को पूरी तरह समझते हैं जिसके बारे में ज्यादातर लोग बिल्कुल नहीं जानते। और
मौजूदा समय में सभी पुरुषों के लिए असम्भव है कि इस विषय में उन्हें इतनी
जानकारी हो जो उन्हें महिलाओं की क्या योग्यता है, क्या नहीं, इस सन्दर्भ में
नियम बनाने के लायक कर सके। यह खुशी की बात है कि समाज और जीवन के सन्दर्भ में
महिलाओं की स्थिति के सम्बन्ध में ऐसी किसी जानकारी की आवश्यकता नहीं। क्योंकि,
आधुनिक समाज में लागू सभी सिद्धान्तों के अनुसार यह प्रश्न स्वयं महिलाओं के ही
जिम्मे है, जो उनके अपने अनुभव व उनकी अपनी सामर्थ्य के प्रयोग से ही निश्चित
होता है। एक व्यक्ति या अनेक वैसे व्यक्ति क्या कर सकते हैं, इसका जवाब सिर्फ
उनकी खुद की कोशिश से ही मिल सकता है। अन्य कोई साधन नहीं जिससे कोई और उनके
लिए यह खोज निकाले कि उनकी खुशी के लिए उन्हें क्या करना चाहिये, क्या नहीं।
एक बात तो हम निश्चित तौर पर कह सकते हैं-कि जो कुछ करना स्त्री स्वभाव के
प्रतिकूल है, यदि उन्हें पूरी आजादी दे दी जाये तो भी वे वह काम कभी नहीं
करेंगी। प्रकृति की तरफ से दखलन्दाजी करने की चिन्ता, इस भय से कि कहीं प्रकृति
अपने उद्देश्य में नाकामयाब न हो जाये, मानव जाति की अनावश्यक चिन्ता है।
महिलाएँ जो काम स्वभावतः नहीं कर सकतीं, उस काम से उन्हें वर्जित करना एकदम
अनावश्यक है। जो काम वे कर सकती हैं किन्तु अपने प्रतिद्वंद्वी पुरुषों जितना
श्रेष्ठ नहीं, तो यह प्रतियोगिता ही उन्हें इस काम से हटाने के लिए पर्याप्त
है। चूँकि महिलाओं के पक्ष में कोई भी संरक्षणात्मक शुल्कों या पुरस्कारों की
माँग नहीं करता, यही माँग करनी चाहिये कि पुरुषों के पक्ष में जो संरक्षणात्मक
शुल्क व पुरस्कार प्रचलित हैं, स्त्रियों पर भी वही लागू किये जायें। यदि
महिलाओं में कुछ कामों की अपेक्षा अन्य विशेष काम करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति
है तो ऐसे कानूनों या सामाजिक प्रशिक्षण की कोई जरूरत नहीं है जो उन्हें वह काम
करने के लिए उत्साहित करे जिनमें उनकी स्वाभाविक रुचि नहीं। महिलाओं के जिन
कामों की सर्वाधिक आवश्यकता है, मुक्त प्रतियोगिता ही उन्हें वह काम करने के
लिए सर्वाधिक प्रोत्साहित करेगी।
और जैसा कि इन शब्दों का आशय है, उन्हीं कार्यों के लिए उनकी आवश्यकता होती है,
जिनके लिए वे सबसे ज्यादा अनुरूप हैं। इन्हीं कार्यों में महिलाओं की नियुक्ति
से स्त्री-पुरुष दोनों की योग्यताओं का पूर्ण उपयोग हो पायेगा। पुरुषों का
सामान्यतः मत यही हो सकता है कि महिलाओं की स्वाभाविक योग्यता पत्नी और माँ
बनने की ही होती है। मैंने कहा, 'हो सकता है, क्योंकि समाज की मौजूदा संरचना के
मद्देनजर-यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनका मत ठीक इसके विपरीत होगा। वे
संभवतः ऐसा सोच सकते हैं कि महिलाओं की तथाकथित स्वाभाविक योग्यता दरअसल उनके
स्वभाव के सर्वाधिक प्रतिकूल है। अगर वे और कुछ करने के लिए आजाद होती-अगर उनके
समय और योग्यतानुसार अन्य व्यवसाय उनके लिए खुले होते, जो उन्हें भी उनकी
इच्छानुकूल लगते, तो उस स्थिति को स्वीकार करने के लिए पर्याप्त महिलाएँ आगे
नहीं आयेंगी, जो उनके लिए स्वाभाविक मानी जाती है। यदि सामान्यतः पुरुषों का
यही मत है, तो इसे स्पष्टतः व्यक्त भी करना चाहिये।
मैं वाकई किसी व्यक्ति द्वारा यह सिद्धान्त मुखर रूप से प्रतिपादित होता सुनना
चाहूँगा (इस विषय पर जो कुछ भी लिखा गया है, उस पर तो यह लागू होता ही है) कि
समाज के लिए यह आवश्यक है कि महिलाएँ विवाह करें और सन्तानोत्पत्ति करें। वे
ऐसा तब तक नहीं करेंगी जब तक कि उन्हें बाध्य न किया जाये। तब इस केस के
गुण-दोष स्पष्टतः परिभाषित हो जायेंगे। और यह दक्षिण केरोलिना व लूजियाना के
दास-व्यापारियों के सदृश ही होंगे। “यह जरूरी है कि कपास और चीनी उगाई जाये।
श्वेत इसे उगा नहीं सकते। हम उनके लिए जो भी मजदूरी निश्चित करें, फिर भी
नीग्रो ऐसा नहीं करेंगे। इसलिए उन्हें बाध्य करना आवश्यक है।" इस मुद्दे के लिए
निकट का उदाहरण है जबरन भर्ती का । नाविकों को देश की रक्षा के लिए आगे आना ही
चाहिये। अकसर ऐसा होता है कि वे स्वेच्छा से नाम दर्ज नहीं कराते। इसलिए उन्हें
जबर्दस्ती भर्ती करने के लिए बल का उपयोग आवश्यक है। कितनी बार इस तर्क का
इस्तेमाल किया गया है। और, यह अब तक सफल भी रहा होता अगर इसमें सिर्फ एक कमी न
होती। लेकिन इस पर यह प्रतिक्रिया हो सकती है-पहले नाविकों को ईमानदारी से उनके
श्रम के बराबर धन दो। जब आपने उनके काम को आर्थिक रूप से इतना फायदेमन्द बना
दिया, जितना कि अन्य किसी के पास काम करना, तो आपको भी उनकी सेवाएँ हासिल करने
में कोई दिक्कत नहीं होगी। इसका तर्कपूर्ण जवाब यही हो सकता है "मैं काम नहीं
करूँगा।" और अब लोग मजदूरों से उनका वेतन छीनने में न केवल शर्मिन्दगी महसूस
करते हैं बल्कि वे ऐसा चाहते भी नहीं, इसलिए जबरन भर्ती का अब समर्थन नहीं किया
जाता। जो लोग महिलाओं के लिए अन्य सारे दरवाजे बन्द कर उन्हें विवाह के लिए
बाध्य करने का प्रयास करते हैं उनके लिए भी यही प्रतिक्रिया होनी चाहिये। यदि
वे जो कहते हैं, वही उनका आशय भी है, तो स्पष्टतः उनका मत यह होना चाहिये कि
पुरुष विवाह को महिलाओं के लिए इतनी वांछनीय स्थिति नहीं बनाते कि वे खुद इसको,
इसकी अच्छाइयों के चलते स्वीकार करने को प्रोत्साहित हों। जब कोई सिर्फ “या तो
यह अथवा कुछ नहीं" वाले 'हॉब्सन्स चुनाव' की ही इजाजत देता है, तो यह इस
प्रस्ताव के बहुत आकर्षक लगने का संकेत नहीं देता। और मेरा मानना है कि यही उन
पुरुषों की भावनाओं की कुंजी है, जो स्त्रियों को समान आजादी देने के कत्तई
खिलाफ हैं। मेरा विश्वास है कि वे इसलिए नहीं डरते हैं कि कहीं स्त्रियाँ विवाह
करने की इच्छुक ही न हों, क्योंकि मेरे विचार से वास्तव में किसी को इस बात का
डर नहीं होता बल्कि इस बात से डरते हैं कि कहीं वे यह जिद न करने लगे कि विवाह
बराबरी की शर्तों पर होना चाहिये; कहीं सभी योग्य और सक्षम महिलाएँ विवाह के
अतिरिक्त अपनी नजरों में जो भी पतित नहीं है, उसे करना अधिक पसन्द करें क्योंकि
विवाह से उन्हें एक ऐसा मालिक मिलता है जो उनकी सारी सम्पत्ति का स्वामी बन
जाता है। यदि विवाह के आवश्यक परिणाम यही होते हैं तो मुझे लगता है कि इन
आशंकाओं का आधार बहुत मजबूत है। मैं इस सम्भावना से सहमत हूँ कि बहुत कम
महिलाएँ, जो कुछ और करने के योग्य हैं, जब तक कि उन्हें कोई ऐसा अत्यन्त
सम्मोहक व्यक्ति न मिल जाये जो उन्हें कुछ समय के लिए अन्य सभी चीजों से उदासीन
कर दे, ऐसे जीवन का चुनाव नहीं करेंगी बशर्ते उन्हें जीवन में एक परम्परागत
प्रतिष्ठित स्थान पाने के अन्य साधन उपलब्ध हों। और अगर पुरुष इस बात पर बहुत
दृढ़ हैं कि विवाह का कानून तानाशाही का कानून ही होना चाहिये-तो उन्होंने
नीतिगत रूप से महिलाओं के लिए केवल 'हॉब्सन्स चुनाव' का विकल्प ही छोड़ कर उचित
ही किया है। लेकिन उस स्थिति में, आधुनिक समाज में स्त्रियों के दिमाग से बन्धन
को ढीला करने के लिए जो कुछ भी किया गया, वह गलत सिद्ध हो जायेगा। उन्हें
साहित्यिक शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति कभी देनी ही नहीं चाहिये थी। जो
महिलाएँ पढ़ती हैं, उनसे भी ज्यादा जो महिलाएँ लिखती हैं वे तो मौजूदा व्यवस्था
में एक अन्तरविरोध और व्याकुल करने वाला तत्व हैं। और तब महिलाओं को केवल एक
घरेलू नौकर के सिवाय अन्य किसी कौशल की शिक्षा-दीक्षा देकर पालना गलत था।
नोट : (1) मदमोज़ाल डि स्ताल की पुस्तक 'डेल्फीन' का आवरण पृष्ठ
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