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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।



लेकिन, यह पूछा जायेगा कि कोई समाज सरकार के बगैर कैसे रह सकता है? एक परिवार में, एक राज्य की तरह ही किसी एक व्यक्ति को तो अन्तिम शासक होना ही चाहिये। यदि वैवाहिक लोगों के मतों में भिन्नता है तो यह कौन निश्चित करेगा? पति-पत्नी दोनों तो मनमानी नहीं कर सकते, फिर भी किसी न किसी तरह एक निर्णय तो लेना ही होता है।

यह सच नहीं है कि दो लोगों के बीच सभी स्वैच्छिक सम्बन्धों में एक व्यक्ति पूर्ण शासक होता है और यह कि कानून को यह निश्चित कर देना चाहिये कि उन दोनों में से कौन शासक होगा। विवाह के बाद स्वैच्छिक सम्बन्ध का सबसे आम उदाहरण होता है-कारोबार में साझेदारी और यह कभी भी लागू करने की जरूरत महसस नहीं की गयी कि हर साझेदारी में एक साझेदार का कम्पनी पर पूरा नियंत्रण होगा और दूसरे साझेदार उसके आदेश मानने को बाध्य रहेंगे। कोई भी व्यक्ति किसी साझेदारी में इन शर्तों पर प्रवेश नहीं करेगा कि उसके उत्तरदायित्व तो मालिक के हों और सत्ता व सुविधाएँ उसे क्लर्क की मिलें। अगर कानून की नजर में हर अनुबंध उसी तरह का हो जैसे विवाह का अनुबंध होता है तो इसका अर्थ होगा कि एक साझेदार कारोबार को इस तरह करे मानो यह उसकी निजी कम्पनी हो और दूसरे साझेदारों को केवल प्रदत्त अधिकार ही प्राप्त हो। कानून कभी ऐसा नहीं करता; न ही अनभव से यह जाहिर होता है कि साझेदारों के बीच अधिकारों व सत्ता की सैद्धान्तिक असमानता होनी आवश्यक है या कि उनके बीच उनकी इच्छा से निश्चित की गयी शर्तों से अलग भी कोई शर्त होनी चाहिये। फिर भी ऐसा लग सकता है कि विवाह की अपेक्षा साझेदारी में एकान्तिक सत्ता को निम्नतर व्यक्ति के हितों व अधिकारों के लिए कम खतरनाक माना जाता है क्योंकि साझेदार इस सम्बन्ध से हट कर इस सत्ता को रद्द करने के लिए स्वतंत्र होता है। पत्नी को ऐसा कोई हक नहीं होता, और अगर उसके पास यह हक हो भी, तो यह हमेशा वांछनीय माना जाता है कि वह इसका इस्तेमाल करने से पूर्व सारे सम्भव उपाय आजमा ले।

यह काफी हद तक सच है कि जिन चीजों के बारे में हर रोज फैसला लेना होता है और जो खुद ब खुद व्यवस्थित नहीं हो सकतीं या किसी पारस्परिक समझौते की प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं, उनको किसी एक की इच्छा पर निर्भर होना ही चाहिये एक ही व्यक्ति का उन पर पूरा नियंत्रण भी होना चाहिये। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमेशा एक ही व्यक्ति का नियंत्रण हो। स्वाभाविक व्यवस्था दोनों के बीच सत्ता का विभाजन होगी; जिसके तहत हरेक अपने-अपने विभाग में पूर्ण अधिकार रखे और इस व्यवस्था में कोई भी बदलाव दोनों की सहमति से ही हो। और यह विभाजन न तो कानून द्वारा पूर्वस्थापित हो सकता है, न ही इसे होना चाहिये क्योंकि इसका व्यक्तिगत अनुकूलता व सामर्थ्य पर निर्भर होना आवश्यक है। यदि दोनों ही ऐसा चाहें तो वे विवाह-संविदा द्वारा इस विभाजन को निर्धारित कर सकते हैं जैसे आजकल आर्थिक मामले प्रायः पूर्वनिर्धारित ही होते हैं। ऐसी बातों के पारस्परिक सहमति द्वारा निर्धारण में फिर शायद ही कोई कठिनाई हो बशर्ते कि विवाह सम्बन्ध स्वयं ही कष्टकर व दुखद न हो जिसमें हर बात व मुद्दा झगड़े का विषय बन जाता है। अधिकारों के विभाजन से स्वाभाविक है कि कार्यों व कर्तव्यों का बँटवारा भी होगा; जो पहले ही सहमति द्वारा निर्धारित किया जा चुका है, हर स्थिति में कानून द्वारा नहीं बल्कि सामान्य प्रचलन द्वारा-जो कि सम्बन्धित लोगों की सुविधा व सुख अनुसार बदला जा सकता है।

मामलात का वास्तविक व्यावहारिक निर्णय, चाहे उसका कानूनी अधिकार किसी को भी दिया जाये, काफी कुछ दोनों की तुलनात्मक योग्यताओं पर निर्भर करेगा, जैसा कि आज भी है। महज यह तथ्य कि प्रायः पुरुष ही आयु में बड़ा होता है, लगभग सभी स्थितियों में उसे प्रधानता प्रदान करता है कम से कम जब तक दोनों जीवन के उस मोड़ पर नहीं पहुंच जाते जहाँ आयु में कुछ वर्षों का फर्क कोई मायने नहीं रखता। जो भी पक्ष परिवार के पोषण के साधन जुटाता है, स्वाभाविक है कि वह पक्ष अधिक सबल होगा। इस प्रकार की असमानता विवाह के कानून पर नहीं बल्कि मौजूदा मानवीय समाज की सामान्य परिस्थितियों पर निर्भर करती है। सामान्य या विशेष मानसिक श्रेष्ठता व चरित्र के बेहतर निर्णय का प्रभाव भी आवश्यक रूप से अधिक प्रबल होगा। आज भी है। और यह तथ्य सिद्ध करता है कि परस्पर सहमति द्वारा जीवन साथी (या कारोबारी साझेदारों) के बीच सत्ता व उत्तरदायित्वों का निर्धारण ठीक तरह से नहीं हो सकता-इस आशंका का कोई आधार नहीं है। उन स्थितियों के अलावा जहाँ विवाह संस्था ही असफल रही है, यह विभाजन हमेशा उचित ही होता है। स्थिति कभी भी ऐसी नहीं आती कि सत्ता पूरी तरह से एक तरफ हो। दूसरी ओर सिर्फ आज्ञाकारिता। ऐसा तभी होता है जब विवाह संविदा एक बहुत बड़ी गलती साबित हुई हो, और दोनों पक्षों के लिए इससे मुक्त हो जाना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय हो। कुछ लोग कह सकते हैं कि मतभेदों का मैत्रीपूर्ण निपटारा कानूनी बाध्यता से सम्भव होता है। लोग किसी मध्यस्थता को इसलिए मान लेते हैं क्योंकि पृष्ठभूमि में न्यायालय रहता है. जो. वे जानते हैं. उन्हें किसी भी कानून को मानने के लिए बाध्य कर सकता है। लेकिन समान्तर केस प्रस्तुत करने के लिये हमें यह मानना होगा कि न्यायालय किसी मुकदमे का संचालन करने के लिए नहीं, बल्कि हमेशा एक ही पक्ष के समर्थन में, मान लें कि प्रतिवादी के पक्ष में, फैसला देता है। यदि ऐसा हो, तो इसकी अधीनता से ही वादी लगभग किसी भी मध्यस्थता पर सहमत हो जायेगा, लेकिन प्रतिवादी के केस में स्थिति ठीक इसके विपरीत होगी। कानून पति को जो निरंकुश सत्ता देता है वह एक वजह हो सकती है कि पत्नी किसी भी उस समझौते के लिए तैयार हो जाये जो उनके बीच सत्ता विभाजन से सम्बन्धित हो, लेकिन पति के सहमत होने के पीछे यह कारण नहीं हो सकता। सामान्य व सभ्य लोगों के बीच हमेशा एक व्यावहारिक समझौता होता है, हालाँकि उनमें से एक पर इस समझौते के लिए कोई नैतिक या शारीरिक बाध्यता नहीं होती-यह दर्शाता है कि दो लोगों के इस मिले-जुले जीवन में स्वैच्छिक समझौते के स्वाभाविक उत्प्रेरक, कुछ अप्रिय स्थितियों को छोड़कर, वाकई विद्यमान होते हैं। यह मामला निश्चित तौर पर एक कानून बनाने से नहीं सुधर जाता कि मुक्त प्रशासन की संरचना एक पक्ष में निरंकुश सत्ता और दूसरे में पराधीनता के कानूनी आधार पर ही खड़ी होगी और तानाशाह शासक जो भी छूट देता है, वह अपनी सुविधानुसार बिना किसी चेतावनी के उसे खत्म भी कर सकता है। ऐसी अनिश्चितता पर आधारित स्वतंत्रता की कोई खास अहमियत नहीं होती, साथ ही इसकी शर्ते भी बहुत न्यायसंगत नहीं हैं, चूँकि कानून एक ही पक्ष पर कुछ ज्यादा उदार है जो दोनों पक्षों में ऐसे समझौते की व्यवस्था करता है जिसमें एक पक्ष को हर चीज का अधिकार है और दूसरे को न सिर्फ पहले पक्ष की इच्छा के तहत ही हक प्राप्त हैं बल्कि उस पर अत्याचार की अति होने पर भी किसी तरह का विरोध न करने का प्रबल नैतिक व धार्मिक दबाव रहता है।

एक कट्टर विरोधी, एक पराकाष्ठा तक धकेल दिया जाये, तो कह सकता है कि पति वाकई सन्तुलित व विवेकपूर्ण होना चाहते हैं और बिना बाध्य हुए अपनी जीवनसाथी को रियायतें देना चाहते हैं, लेकिन पत्नियाँ ऐसा नहीं चाहती; कि अगर उन्हें उनके कुछ हक दे दिये जायें तो वे किसी और के अधिकारों को नहीं मानेंगी, किसी भी चीज पर झुकेंगी नहीं, जब तक कि पुरुष की सत्ता द्वारा ही उन्हें हर चीज मानने के लिए बाध्य न किया जा सके। कुछ पीढ़ियों पहले, बहुत से लोगों ने ऐसा कहा होता, जब महिलाओं पर व्यंग्य करने का फैशन था और पुरुष सोचते थे कि महिलाओं को जैसा उन्होंने बना दिया है, उसका मजाक उड़ाना बहुत चतुराई व बुद्धिमानी की बात है। लेकिन आज जो भी लोग इसका उत्तर दे सकते हैं, कभी ऐसा नहीं कहेंगे। इसकी वजह आज का यह सिद्धान्त नहीं है कि महिलाएँ अब अच्छी भावनाओं के प्रति कम संवेदनशील हो गयी हैं या उन लोगों की कम परवाह करती हैं जिनसे वे सबसे मजबूत बन्धन के जरिये बँधी हैं। ठीक इसके विपरीत, हमें हमेशा बतलाया जाता है कि महिलाएँ पुरुषों से बेहतर हैं-वह भी उन लोगों द्वारा जो उनके साथ पुरुषों जैसा ही व्यवहार करने के सख्त खिलाफ हैं। अब तो यह कहना एक उबाऊ शब्दाडम्बर बन गया है, एक क्षति को सम्मानजनक चेहरा देने की मंशा से प्रयोग किये जाने वाले थोथे शब्द, जो उस शाही दयाशीलता से मिलते-जुलते हैं जो गुलिवर के अनुसार, लिलिपुट का राजा सदा सर्वाधिक अत्याचारी आदेश जारी करने से पहले दिखलाता था। यदि महिलाएँ पुरुषों से वाकई किसी चीज में बेहतर हैं तो वह है अपने परिवार के सदस्यों के लिए निज का बलिदान । लेकिन मैं इस बात पर जोर दूंगा-जब तक कि उन्हें दुनिया में यही सिखाया जाता रहेगा कि उनका जन्म ही आत्मबलिदान के लिए हुआ है, तब तक वे आत्मबलिदान में पुरुषों से बेहतर रहेंगी। मेरा विश्वास है कि अधिकारों की समानता उस आत्मत्याग को कम करेगी, जो आज स्त्री-सुलभ चरित्र का एक कृत्रिम आदर्श है और यह कि एक भली महिला एक श्रेष्ठ पुरुष से अधिक आत्मत्यागी नहीं होगी बल्कि दूसरी तरफ, पुरुष वर्तमान समय की अपेक्षा अधिक आत्मत्यागी व स्वार्थविहीन होंगे क्योंकि उन्हें तब अपनी इच्छा का एक महान तत्व के रूप में पूजा करना नहीं सिखाया जायेगा, जो अब दूसरे व्यक्ति के लिए लगभग आदेश बन जाती है। इस आत्मपूजा को सीखने से सरल और कोई चीज नहीं होती : सभी सुविधाप्राप्त लोगों व वर्गों में यह प्रवृत्ति होती है। जितना हम इंसानियत के मानक पर नीचे आते जाते हैं, आत्म-मुग्धता की यह प्रवृत्ति गहरी होती जाती है; और सबसे अधिक यह उनमें होती है जो अपनी दुर्भाग्यशाली पत्नी व बच्चों के अलावा और किसी से ऊपर न तो होते हैं न ही हो सकते हैं। अन्य किसी मानवीय अवगुण की अपेक्षा इसमें सम्माननीय अपवाद बहुत कम होते हैं। दर्शन और धर्म, इसे काबू में रखने की बजाय, प्रायः इसका समर्थन करने के लिए ही इस्तेमाल किये जाते हैं; और मनुष्यों में समानता की भावना के अतिरिक्त इस पर कोई नियंत्रण नहीं रख सकता-यही ईसाई धर्म का सिद्धान्त है लेकिन ईसाई धर्म व्यावहारिक तौर पर कभी इसकी शिक्षा नहीं दे सकता जब तक कि यह एक व्यक्ति को दूसरे की अपेक्षा बेहतर समझने वाली संस्थाओं को स्वीकृति देता रहेगा।

निस्सन्देह, ऐसी स्त्रियाँ भी हैं और पुरुष भी जिन्हें महत्त्व की समानता सन्तुष्ट नहीं करेगी; जिन्हें तब तक शान्ति नहीं मिलती जब तक कि सिर्फ उनकी इच्छा न मानी जाये। ऐसे व्यक्ति ही तलाक के कानून के लिए उपयुक्त होते हैं। वे सिर्फ अकेले रहने के लिए उपयुक्त होते हैं और किसी भी इंसान को उनके साथ अपना जीवन जोड़ने के लिए बाध्य नहीं होना चाहिये। लेकिन कानूनी अधीनता महिलाओं को ऐसा व्यक्ति अधिक बनाती है। यदि पुरुष अपनी पूरी सत्ता का प्रयोग करता है तो स्त्री जाहिर है, कुचली जाती है। यदि उसके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाता है और उसे सत्ता पाने की इजाजत दे दी जाती है, तो उसके अतिक्रमण को रोकने के लिए कोई नियम नहीं है। कानून, उसके अधिकार तो निर्धारित नहीं करता, लेकिन सैद्धान्तिक रूप से उसे कोई अधिकार ही नहीं देता, इस प्रकार वह यह घोषणा कर देता है कि स्त्री का अधिकार क्षेत्र उतना ही है जितना वह हासिल कर ले।

कानून की निगाह में दोनों विवाहित व्यक्तियों की समानता एकमात्र ऐसा तरीका ही नहीं है जिससे इस विशेष सम्बन्ध में दोनों पक्षों के प्रति न्याय हो सके और जो दोनों की खुशी के अनुकूल है, बल्कि एकमात्र ऐसा साधन है जो मनुष्य के दैनिक जीवन को, एक बड़े अर्थ में, नैतिक पोषण का स्कूल बना सकता है। भले ही इस सत्य का आने वाली कई पीढ़ियों तक एहसास न हो या इसे सामान्यतः न माना जाये कि सच्ची नैतिकता का एकमात्र स्कूल समान लोगों का समाज ही होता है। अब तक मनुष्य की नैतिक शिक्षा मुख्यतः बल के नियम से ही आयी है और लगभग उन सभी सम्बन्धों के अनुकूल रूपान्तरित हुई है, जिनकी रचना बल द्वारा ही हुई। समान होने का अर्थ है शत्रु होना। समाज, अपने उच्चतम स्तर से लेकर निम्नतम तबके तक, एक लम्बी कड़ी या सीढ़ी है, जहाँ हर व्यक्ति अपने निकटतम पड़ोसी से या तो ऊँचा है या नीचा। और जब वह आदेश नहीं देता, तब उसे आदेश का पालन करना ही होता है। इसी प्रकार मौजूदा नैतिकता भी मुख्यतः आदेश व आज्ञाकारिता के सम्बन्धों के ही अनुकूल है। फिर भी आज्ञाकारिता व आदेश दोनों ही मनुष्य जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण आवश्यकताएँ हैं। समानता समाज की स्वाभाविक अवस्था है। आधुनिक जीवन में और जैसे-जैसे इसका विकास होता जा रहा है, आदेश व आज्ञाकारिता जीवन के अपवादपूर्ण तथ्य बनते जा रहे हैं और समान स्तर पर सम्बन्ध सामान्य नियम। शुरुआती युगों की नैतिकता सत्ता के समक्ष समर्पण के कर्तव्य पर टिकी थी; अगले युगों का आधार था दुर्बलों का यह अधिकार कि वे शक्तिशाली की सदाशयता और संरक्षण के तहत रहेंगे। एक प्रकार का समाज व जीवन दूसरी प्रकार के समाज की नैतिकता से कितने लम्बे समय तक सन्तुष्ट रह सकता है? हमारे समाज में समर्पण की नैतिकता रह चुकी है, बहादुरी और उदारता की नैतिकता भी रह चकी है, अब समय आ चका है कि न्याय की नैतिकता स्थापित हो। प्राचीन युगों में जब भी समाज में समानता लाने का प्रयास किया गया तो न्याय को ही सहमूल्यों का आधार पाया गया। प्राचीन गणतंत्रों में भी ऐसा हुआ। लेकिन सर्वश्रेष्ठ गणतंत्रों में भी समानता केवल स्वतंत्र पुरुष नागरिकों के लिए ही थी; दास, महिलाएँ और मताधिकार रहित निवासी बल के कानून के तहत ही आते थे। रोमन सभ्यता और ईसाई धर्म के मिले-जले प्रभाव ने इस भेदभाव को मिटा दिया और सैद्धान्तिक तौर पर (व्यवहार में केवल आंशिक रूप से) यह घोषणा कर दी गयी कि इंसान के अधिकार लिंग, वर्ग व सामाजिक प्रतिष्ठा से सर्वोपरि हैं। जिन अवरोधों के मिटने की प्रक्रिया शुरू हुई थी वे उत्तरी विजय अभियानों के फलस्वरूप फिर खड़े हो गये और सम्पूर्ण आधुनिक इतिहास तब से उनके मिटने की धीमी प्रक्रिया को ही बतलाता है। हम अब समाज की ऐसी व्यवस्था में प्रवेश कर रहे हैं जिसमें न्याय एक बार फिर मुख्य गुण होगा जो समान और सहानुभूतिपूर्ण सम्बन्धों पर आधारित होगा।

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