और इसकी जड़ें समान लोगों में आत्मरक्षा की सहज वृत्ति नहीं बल्कि उनके बीच
स्थापित सहानुभूति में निहित होंगी। कोई भी बराबरी के हक से वंचित नहीं होगा।
यह कोई नई बात नहीं कि मानवजाति स्वयं में आ रहे परिवर्तन को पहले से न देख
पाये, कि उनकी भावनाएँ भविष्य की अपेक्षा अतीत के अनुकूल हों। किसी भी प्रजाति
का भविष्य देख पाना बुद्धिजीवी अभिजात का ही विशेष गुण रहा है, या फिर उनका
जिन्होंने इनसे कुछ सीखा है। भविष्य के बारे में एक अनुमान होने का गुण और भी
दुर्लभ अभिजात में पाया जाता है। संस्थाएँ, पुस्तकें, शिक्षा, समाज-सभी मनुष्य
को, नई व्यवस्था आने के बहुत देर बाद तक भी पुराने की ही सीख देती रहती हैं।
ऐसा तब और अधिक होता है जब नई व्यवस्था का आगमन शुरू ही हुआ हो। लेकिन मनुष्य
का सच्चा सद्गुण एक साथ समान रूप से रहने की अनुकूलता ही है; अपने लिए वही सब
इच्छा रखने की जो वे दूसरों को भी उतनी ही स्वतंत्रता से दे सकें। वे किसी भी
प्रभुता को आवश्यकता की स्थिति में आये अपवाद और इसे हर हालत में एक अस्थायी
चीज मानते हैं और जब भी सम्भव हो वे ऐसे लोगों के समाज को बेहतर मानते हैं
जिसमें नेतृत्व करना और अनुकरण करना क्रमिक और पारस्परिक हो। मौजूदा जीवन इन
गुणों को व्यवहार में लाकर उनका पोषण करने के अति अनकल है। परिवार निरंकश शासन
का केन्द्र है जिसमें इस निरंकशता के गण ही नहीं अवगुण भी पोषित होते हैं।
स्वतंत्र देशों में नागरिकता सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है और यह मनुष्य की दैनिक
आदतों या अन्तरंग भावनाओं के करीब नहीं आती। परिवार, यदि उचित तौर पर संगठित हो
तो वह स्वतंत्रता के सद्गुण का वास्तविक केन्द्र हो सकता है। यह निश्चित तौर पर
अन्य हरेक चीज के लिए भी पर्याप्त होगा। यह बच्चों के लिए सदा आज्ञाकारिता की
पाठशाला रहेगा और माता-पिता के लिए आज्ञा देने की। जरूरत इस बात की है कि यह
समानता में सहानुभूति की पाठशाला बने, प्रेमपूर्ण माहौल में साथ-साथ रहने की
सीख दे, जिसमें एक तरफ सत्ता और दूसरी तरफ उसका अनुपालन न हो। यह माता-पिता के
बीच ही होना चाहिये। तब यह ऐसे गुण का अनुकरण करना होगा, जिसकी उन्हें अन्य सभी
सम्बन्धों के अनुकूल बनने के लिए आवश्यकता होगी और यह बच्चों के लिए भी उन
भावनाओं और व्यवहार का एक उदाहरण होगा, जो अभी वे आज्ञाकारिता के जरिए अपनी
आदतों में ढालते हैं। मानवजाति की नैतिक शिक्षा जीवन की उन स्थितियों के अनुकूल
कभी नहीं होगी जिनको पाने के लिये पूर्ण मानवीय प्रगति एक तैयारी है, जब तक कि
वे परिवार में उन्हीं नैतिक नियमों का आचरण नहीं करते, जिसे मानव समाज की
सामान्य संरचना में ढाला गया है। स्वतंत्रता की कोई भी भावना जो किसी व्यक्ति
में होती है, जिसके अन्तरंग सम्बन्ध उन लोगों से हैं, जिनका वह पूर्णतः स्वामी
है. तो यह भावना स्वतंत्रता के प्रति सच्चा या क्रिश्चियन प्रेम नहीं है बल्कि
यह स्वतंत्रता के प्रति उस तरह का प्रेम है जो सामान्यतः प्राचीन व मध्य युग
में पाया जाता था; स्वयं अपने ही व्यक्तित्व की महत्ता व गरिमा का गहन बोध। यह
बोध उसमें अपने ऊपर उस शासन से नफरत पैदा करता है, जिसके लिए सैद्धान्तिक तौर
पर उसमें कोई विरोध नहीं है और जो वह अपने हितों व शान के लिए दूसरों पर सहर्ष
लागू करने को तैयार है।
मैं बिल्कुल स्वीकार करता हूँ (और यही मेरी आशाओं की आधारशिला है कि मौजूदा
कानून के तहत भी अनेक विवाहित लोग (इंग्लैण्ड के उच्च वर्गों में सम्भवतः बहुत
सारे लोग) समानता के न्यायोचित कानून की भावना में रहते हैं। अगर ऐसे अनेक लोग
न होते, जिनकी नैतिक भावनाएँ मौजूदा कानून से बेहतर हों तो कानूनों में कभी कोई
सुधार न आया होता। ऐसे लोगों को उन सिद्धान्तों का समर्थन करना चाहिये, जिनकी
वकालत यहाँ की गयी है, जिनका एकमात्र उद्देश्य है-अन्य विवाहित जोड़ों का जीवन
भी उनके जैसा ही बनाना। किन्तु प्रायः अच्छी नैतिकता वाले लोग, यदि वे विचारक न
हों, तो सहज ही यह विश्वास कर लेते हैं कि वे कानून या प्रचलित दस्तर, जिनके
दुष्प्रभाव उन्होंने निजी तौर पर अनुभव नहीं किये हैं, वे कोई दुष्प्रभाव पैदा
नहीं करते बल्कि सम्भवतः अच्छा ही करते हैं और उन पर आपत्ति करना गलत है।
बहरहाल, ऐसे विवाहित जोड़ों द्वारा यह मान लेना एक बड़ी गलती होगी कि चूँकि
उनके विचारों में उन्हें जोड़ने वाले बन्धन की कानूनी स्थिति का ख्याल साल में
एकाध बार ही आता है और चूँकि वह हर तरह से इस प्रकार रहते और अनुभव करते हैं कि
वे कानूनन समान हैं, तो अन्य सभी विवाहित जोड़ों की भी यही स्थिति होगी, यदि
पति एक बदनाम गुण्डा नहीं है तो। ऐसा मान लेना भी मनुष्य स्वभाव व तथ्य के
प्रति अज्ञानता को ही दर्शाता है। सत्ताधिकार के लिए एक व्यक्ति जितना अयोग्य
होता है-उतना ही दूसरे व्यक्ति पर उसकी सहमति से इस सत्ता के प्रयोग की अनुमति
मिलने की सम्भावना कम हो जाती है-उतना ही अधिक वह उस सत्ता के प्रति सचेत हो
जाता है जो उसे कानून ने प्रदान की है, अपने कानूनी अधिकारों पर उस बिन्द तक
जोर देता है, जहाँ तक प्रचलित रिवाज (उसके जैसे लोगों का रिवाज) उसे सह सके,
उतना ही अधिक वह सत्ता के प्रयोग में सुख अनुभव करता है, सिर्फ उसके अधिकार की
भावना को सजीव करने के लिए। इससे भी अधिक निम्न वर्गों के नितान्त क्रूर व
नैतिक रूप से अशिक्षित तबकों में महिलाओं की कानूनी दासता और उनकी इच्छा के
समक्ष महिलाओं के समर्पण में ऐसा कुछ होता है, जिससे वे अपनी पत्नी के प्रति
ऐसा अनादर व तिरस्कार महसूस करने लगते हैं, जो वे किसी अन्य महिला या व्यक्ति
के प्रति महसूस नहीं करते और जिसके कारण वह उन्हें हर सम्भव प्रकार के तिरस्कार
का उपयुक्त पात्र लगने लगती है। एक ऐसे पर्यवेक्षक को इन भावनाओं के लक्षणों का
सूक्ष्म अध्ययन करने दें, जिसे ऐसे पर्याप्त अवसर प्राप्त हों, और स्वयं उसे यह
निर्णय करने दें कि स्थिति वैसी है कि नहीं। और अगर वह यह पाता है कि स्थिति
ऐसी ही है, तो एक प्रथा जो मानव मस्तिष्क को इस हद तक भ्रष्ट कर सकती है, उसके
उसे किसी भी हद तक खिलाफ घृणा व वितृष्णा महसूस करने से न रोके।
सम्भवतः हमें बताया जायेगा कि धर्म ही आज्ञाकारिता के कर्तव्य से बाँधता है।
जैसा कि हर वह स्थापित तथ्य जिसके समर्थन में और कुछ नहीं कहा जा सकता, उसे
धमदिश बनाकर पेश कर दिया जाता है। यह सच है कि चर्च अपने आदेशों में इसे शामिल
करता है लेकिन ईसाई धर्म में ऐसा कोई आदेश मिल पाना मुश्किल है। हमें बताया
जाता है कि सेण्ट पॉल ने कहा था, "बीवियो! अपने पति की आज्ञा का पालन करो!"
लेकिन उन्होंने तो यह भी कहा था; “गुलामो, अपने मालिकों के हुक्म का पालन करो!"
यह सेण्ट पॉल का काम नहीं था, न ही ईसाई धर्म का प्रचार करने के उनके उद्देश्य
के अनकल था कि वे किसी को भी तत्कालीन कानूनों के खिलाफ विरोध करने के लिए
उकसाते। उस सन्त द्वारा उस समय की प्रथाओं की स्वीकृति को उचित समय आने पर भी
उन्हें सुधारने के प्रयास को अस्वीकार करना, उसी अर्थ में माना जा सकता है जिस
अर्थ में उनका यह कथन 'जो भी सत्ताएँ हैं वे ईश्वरीय विधान हैं, सैन्य तानाशाही
का समर्थन करता है। यह मान लेना कि ईसाई धर्म का उद्देश्य सरकार व समाज के
मौजूदा रूप को रूढिबद्ध करना और किसी भी परिवर्तन से उन्हें बचाना है. उसे
ब्राहमणवाद या इस्लाम के स्तर तक गिरा देना है। चूँकि ईसाई धर्म ने ऐसा नहीं
किया, इसीलिए यह मनुष्यता के प्रगतिशील भाग का धर्म है और ब्राह्मणवाद इत्यादि
मानवजाति के स्थिर भाग का धर्म रहे हैं या यूँ कहें (क्योंकि स्थिर समाज जैसी
कोई चीज नहीं होती) कि पतित होते समाज का धर्म हैं। ईसाई धर्म के हर दौर में
ऐसे बहुत से लोग रहे हैं, जो इसे वैसा ही बनाने का प्रयास करते रहे। हमें एक
प्रकार का ईसाई मुसलमान बनाने की कोशिश, जिसके पास कुरान की जगह बाइबिल हो जो
सभी प्रकार के सुधारों का निषेध करती हो। और उन लोगों का बहुत प्रभाव भी रहा है
जिसके परिणामस्वरूप अनेक लोगों को उनका विरोध करते हुए अपने प्राणों की आहुति
देनी पड़ी। लेकिन उनका विरोध हुआ और इस विरोध ने ही हमें वह बनाया जो हम हैं और
वह बनायेगा, जो हमें होना है।
आज्ञाकारिता के उत्तरदायित्व के बारे में जो कुछ भी कहा जा चुका है, उसके बाद
सामान्य मुद्दे में शामिल विशेष मुद्दे से सम्बन्धित कुछ भी कहना लगभग अनावश्यक
है-अर्थात अपनी सम्पत्ति पर महिला का अधिकार। क्योंकि मुझे यह उम्मीद नहीं करनी
चाहिये कि यह निबन्ध उन लोगों पर कोई प्रभाव डाल सकता है, जिन्हें इस बात को
मनवाने के लिए किसी चीज की आवश्यकता है कि एक महिला की विरासत में मिली
सम्पत्ति विवाह के बाद भी उतनी ही उसकी होनी चाहिये जितना कि विवाह से पहले।
नियम साधारण सा है; अगर वे विवाहित न होते तो जो भी पति का या पत्नी का होता,
विवाह के दौरान भी क्रमशः उनका ही होना चाहिये और जरूरी नहीं कि बच्चों के लिए
इस सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के सन्दर्भ में किये जाने वाले किसी भी बन्दोबस्त
के अधिकार में यह दखल दे। कछ लोगों को आर्थिक क्षेत्र में यह अलग-अलग प्रबन्ध
रखना भावनात्मक रूप से विस्मित कर सकता है और दो जिन्दगियों के एक हो जाने के
आदर्शात्मक विचार से इतर लग सकता है। मैं उस अवस्था का प्रबल समर्थक हूँ जिसमें
मालिकों के बीच पूर्ण एकता की भावना हो और उनका हर चीज पर समान अधिकार हो।
लेकिन मुझे यह स्थिति कतई पसन्द नहीं है, जिसमें यह सिद्धान्त काम करे कि जो
मेरा है, वह तुम्हारा है, लेकिन जो तुम्हारा है, वह मेरा नहीं। और मैं किसी भी
व्यक्ति के साथ इस तरह के अनुबन्ध से इंकार करना बेहतर समझूगा चाहे मैं ही वह
व्यक्ति क्यों न हूँ जिसे इस अनुबन्ध से लाभ होता हो।
महिलाओं पर इस विशेष अन्याय व अत्याचार, जो, जैसा कि आम आशंका रहती है, शेष
अत्याचारों से कहीं अधिक स्पष्ट है, का हल अन्य दुष्टताओं में दखल किये बगैर हो
सकता है और इसमें कोई शक नहीं कि इसका सुधार सबसे पहले किया जायेगा। पहले ही,
अमरीकी परिसंघ के अनेक पुराने व नए राज्यों ने लिखित संविधान में ही ऐसे
प्रावधान बना दिए हैं जिससे इस सन्दर्भ में महिलाओं के समान अधिकार सुरक्षित हो
सकें। और इस प्रकार विवाह सम्बन्ध में कम से कम उन महिलाओं की स्थिति को तो
सधारा ही है जिनके पास कछ सम्पत्ति है, एक साधन की ताकत उनके पास छोड़कर जो,
उन्होंने पति के नाम नहीं किया है, और इस तरह विवाह प्रथा के उस लज्जाजनक
दुरुपयोग को भी रोका है जिसमें एक पुरुष एक लड़की से बिना किसी समझौते के,
सिर्फ उसका धन हथियाने के लिए शादी करता है। जब परिवार को चलाने का काम
सम्पत्ति पर नहीं बल्कि कमाई पर हो, जो आम व्यवस्था है कि पुरुष कमाता है और
पत्नी घरेलू खर्च को सम्भालती है, तो यह स्थिति मुझे दो लोगों के बीच श्रम
विभाजन की सबसे उचित स्थिति लगती है। यदि, माँ बनने के शारीरिक कष्ट और बच्चों
के आरम्भिक वर्षों में उनके लालन-पालन व शिक्षा आदि की जिम्मेवारी के साथ पत्नी
पति की आय को परिवार की सुविधानुसार सावधानी से खर्च करने का जिम्मा भी निभाती
है तो वह दोनों के संयुक्त शारीरिक व मानसिक श्रम में सामान्य से अधिक ही
हिस्सा बँटाती है। यदि वह कोई अतिरिक्त उत्तरदायित्व लेती है, तो भी वह उसे
पहले ही मौजूद जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं करता बल्कि उन्हें ठीक तरह निभाने
में बाधा ही डालता है। क्योंकि जो परवाह वह बच्चों व घर की करती है, खुद उसकी
नहीं की जाती और ऐसी स्थिति में और कोई करता भी नहीं है; जो बच्चे मरते नहीं,
वे खुद ब खुद बड़े होते हैं और गृहस्थी की आर्थिक व्यवस्था इतनी खराब हो जाती
है कि पत्नी की आय भी उसमें कोई खास योगदान नहीं दे पाती। इसलिए दूसरी विवेक व
न्यायपूर्ण अवस्था में, मेरा मानना है कि यह कोई वांछित प्रचलन नहीं होना
चाहिये कि पत्नी अपने श्रम से परिवार की आय में भी योगदान दे। अन्यायपूर्ण
व्यवस्था में, उसका ऐसा करना उसके लिए फायदेमन्द हो सकता है चूँकि इस तरह अपने
पति की निगाहों में जो कानूनन उसका मालिक है उसकी कीमत और भी बढ़ जायेगी। लेकिन
दूसरी तरफ, इस तरह पति अपनी सत्ता के दुरुपयोग में और भी सक्षम हो जायेगा। वह
पत्नी को तो काम करने के लिए बाध्य करेगा और परिवार चलाना उसी के जिम्मे छोड़
कर खुद अपना समय आलस्य और मदिरापान इत्यादि में बरबाद करेगा। यदि एक स्त्री के
पास अपनी खुद की सम्पत्ति नहीं है तो आय कमाने की ताकत उसकी गरिमा के लिए
आवश्यक है। यदि विवाह बराबरी पर आधारित अनुबन्ध होता जिसमें आज्ञाकारिता की कोई
बाध्यता नहीं होती; यदि यह अनुबन्ध उन लोगों पर लागू नहीं होता जिनके लिए
अत्याचार करना विशुद्ध दुष्टता होती है और यदि न्यायोचित शर्तों पर किसी भी उस
स्त्री को अलगाव (मैं तलाक की बात नहीं कर रहा) प्राप्त हो सकता, जो नैतिक रूप
से इसकी हकदार है और अगर इसके बाद भी उसके लिए रोजगार के विकल्प उतने ही खुले
होते जितना कि पुरुष के लिए, तो अपनी रक्षा के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि वह
विवाह के दौरान भी अपनी योग्यता का जीविका कमाने के लिए प्रयोग करे। जिस तरह जब
एक पुरुष अपना व्यवसाय चुनता है उसी तरह जब एक स्त्री विवाह करती है तो
सामान्यतः यह समझ लेना चाहिये कि उसने गृहस्थी के प्रबन्धन व परिवार के देखभाल
को प्राथमिकता दी है, अपने जीवन की उस अवधि तक जो इस उद्देश्य के लिए आवश्यक
हो। इस सिद्धान्त के जरिए बहुत सी विवाहित स्त्रियों के लिए घर से बाहर निकल कर
किये जाने वाले व्यवसाय लगभग निषिद्ध हो जायेंगे। लेकिन सामान्य नियमों के निजी
अनुकूलता के अनुसार बदल जाने की उदारता तो होनी ही चाहिये। और अन्य किसी
उद्देश्य में लगी स्त्री की योग्यता को विवाह की वजह से खत्म नहीं होने देना
चाहिये; परिवार की देखभाल में कोई कमी, जो स्त्री के व्यवसाय के कारण अपरिहार्य
हो जाये, की भरपायी करने का उचित प्रावधान होना चाहिये। यदि एक बार सामाजिक मत
को सही दिशा में मोड़ लिया जाये तो ये चीजें पूर्णतः सुरक्षित रूप से निजी
विचार व सुविधा द्वारा, बिना किसी कानूनी दखलन्दाजी के नियमित की जा सकती हैं।
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