लोगों की राय

नारी विमर्श >> स्त्रियों की पराधीनता

स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

Like this Hindi book 0

पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।


सम्पादकीय प्रस्तावना

उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्री-प्रश्न और जॉन स्टुअर्ट मिल


इक्कीसवीं सदी के इन प्रारम्भिक वर्षों में, जिनका आशावाद और जिनकी परिवर्तनकामी सकर्मक चेतना क्षरण-विघटन से बची हुई है, वे तमाम लोग यदि मानव-मुक्ति की किसी नई परियोजना के निर्माण और क्रियान्वयन के बारे में सोचते हैं तो उनके एजेण्डे पर स्त्री-प्रश्न एक अनिवार्य आधारभूत प्रश्न के तौर पर उपस्थित रहता है।

बेशक, इस प्रश्न पर बाल की खाल निकालने वले अकर्मक विमर्शों और पाठों-कुपाठों का तथा उग्र-तप्त लफ्फाजी का भी काफी बोलबाला है। समस्या यह भी है कि जब स्त्री-उत्पीड़न को ढंके हुए तमाम नैतिक-वैधिक-सांस्कृतिक रहस्यावरण स्वतः तार-तार हो रहे हैं तो नये-नये बौद्धिक रहस्यावरण खड़े किये जा रहे हैं और मूल प्रश्न को दृष्टिओझल करने या अमूर्त बनाने के प्रयत्न भी जारी हैं। लेकिन पूरे परिदृश्य का सकारात्मक पक्ष यह है कि आज श्रमजीवी वर्ग और निम्न मध्यवर्ग की स्त्री पूँजी के जुवे तले निकृष्टतम कोटि के उजरती गुलाम के रूप में जुती हुई, भूमण्डलीकरण के दौर में, स्त्री-मुक्ति-प्रश्न और श्रमिक-मुक्ति-प्रश्न के अन्तर्सम्बन्धों को नये यथार्थ के आलोक में देखती हुई अपनी भूमिका निर्धारित करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। दूसरी ओर, बौद्धिक तबके की मुक्तिकामी स्त्रियाँ (और पुरुष भी) अर्थ-भेद के साथ-साथ यौन-भेद पर भी आधारित असमानता-उत्पीड़न के तमाम रूपों-पद्धतियों की शिनाख्त कर रही हैं ताकि स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को व्यावहारिक-वैज्ञानिक रूप में जाना-समझा जा सके।

यह नई शुरुआत अभी एकदम नई है। और आज ही यह सबसे अधिक जरूरी है कि स्त्री-प्रश्न के इतिहास का पुनरावलोकन किया जाये और इसे समझने और हल करने के उद्यमों-उपक्रमों के इतिहास का भी। जब परिदृश्य जटिल हो और प्रश्न उलझे-उलझे ढंग से सामने आ रहे हों तो इतिहास को नये परिप्रेक्ष्य में फिर से देखना जरूरी हो जाता है। इस दृष्टि से सिंहावलोकन करते हुए हमें बीसवीं शताब्दी के स्त्री-आन्दोलनों और स्त्री-मुक्ति की विभिन्न विचार-सरणियों का नये सिरे से अध्ययन करना होगा। यही नहीं, उससे भी पहले जाना होगा। जरूरी है कि प्रबोधन काल (एज ऑफ एनलाइटेनमेण्ट) और पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों से लेकर समूची उन्नीसवीं सदी के दौरान के स्त्री-मुक्ति विषयक विचारों और आन्दोलनों का अध्ययन किया जाये। स्त्री समुदाय की दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति, उसके कारणों और उनके समाधान की सम्भावनाओं के बारे में मेरी वोल्सटनक्राफ्ट, जॉन स्टुअर्ट मिल, चेर्नीशेस्की, मार्क्स-एंगेल्स, बेबेल आदि से लेकर लेनिन, क्लारा जेटकिन, अलेक्सान्द्रा कोल्लोन्ताई, सीमोन द बोउवा, बेट्टी फ्रीडन, जर्मेन ग्रीयर आदि-आदि तक के विचारों का, नये सिरे से अध्ययन-मूल्याँकन करना होगा।

'अर्द्धाश' शृंखला के अन्तर्गत स्त्री-मुक्ति के वैचारिक इतिहास की इस प्रस्तुति की एक बेहद जरूरी प्रारम्भिक कड़ी है जॉन स्टुअर्ट मिल की 1869 में प्रकाशित पुस्तक 'दि सब्जेक्शन ऑफ विमेन'। इसी ऐतिहासिक कृति का हिन्दी अनुवाद 'स्त्री की पराधीनता' शीर्षक से आपके सामने है।।

इस पुस्तक का परिचय देते हुए, जरूरी है कि पृष्ठभूमि के तौर पर हम स्त्री-प्रश्न पर चिन्तन-विमर्श के इतिहास की कुछ चर्चा करें और साथ ही, जॉन स्टुअर्ट मिल के समय और चिन्तन की भी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai