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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।

प्रबोधनकालीन यूरोप में स्त्री-प्रश्न



सीधे-सरल शब्दों में स्त्री-प्रश्न को यदि परिभाषित करना हो तो कहा जा सकता है कि परिवार, मातृत्व और शिशुपालन सहित समस्त सामाजिक गतिविधियों एवं संस्थाओं में स्त्रियों की भूमिका, अन्य सामाजिक-आर्थिक शोषण-उत्पीड़न के साथ ही यौन-भेद पर आधारित स्त्री-उत्पीड़न की विशिष्टता और स्त्री-मुक्ति से जुड़ी सभी समस्याओं का जटिल समुच्चय है-स्त्री-प्रश्न।

स्त्री-प्रश्न के चाहे जितने भी समाधान और चाहे जितनी भी व्याख्याएँ आज प्रस्तुत की जा रही हों, इतिहास की यह सच्चाई निर्विवाद है कि परस्पर-विरोधी वर्गों वाली सभी सामाजिक संरचनाओं में, समाज और परिवार में स्त्री की स्थिति मातहत की रही है और इसे धर्म की स्वीकृति प्राप्त रही है। यह भी इतिहास का एक तथ्य है कि पूँजीवादी उत्पादन ने ऐसी स्थितियाँ पैदा की कि सामाजिक उत्पादन में स्त्री मजदूरों की और अन्य नौकरीपेशा स्त्रियों की भागीदारी बढ़ती चली गयी, लेकिन उनकी श्रमशक्ति सबसे सस्ती थी और उनकी पहले से कायम ‘घरेलू गुलामी' भी बरकरार थी। इस बुनियाद पर यौन-भेद और यौन उत्पीड़न तथा यौनिक आधार पर पार्थक्य, निर्वासन और उपनिवेशन के जटिल सांस्कृतिक-सामाजिक मूल्यों-संस्थाओं का एक समूचा तंत्र निर्मित-विकसित हुआ है।

पूँजीवाद के अन्तर्गत सामाजिक उत्पादन में स्त्रियों की भागीदारी और उनकी अधिकारविहीनता की निरन्तरता के चलते बुर्जुआ समाज में स्त्रियों के प्रति एक अन्तरविरोधी रुख विकसित हुआ। बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों के मुकम्मल होने के बाद, एक ओर जहाँ बुर्जुआ वर्ग की ओर से पुरुष-स्वामित्ववाद के नये-नये रूपों के संघटन के साथ ही पुराने “धर्मसम्मत" रूपों को भी कायम रखने की हरचन्द कोशिशें होती रहीं, वहीं खासकर बीसवीं शताब्दी के दौरान मजदूर आन्दोलन, सर्वहारा क्रान्तियों और व्यापक जनवादी आन्दोलनों के, कुल मिलाकर अग्रवर्ती विकास के परिवेश में, स्त्रियों की सामाजिक-वैधिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण सुधार भी हुए। लेकिन विशेषकर बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में, विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय, गतिरोध और प्रतिगामी पुनरुत्थान के माहौल में, धार्मिक कट्टरपन्थ और रंग-बिरंगी नवफासीवादी शक्तियों के उभार के साथ ही बहुसंख्यक आम स्त्रियों की सामाजिक स्थिति में भी नकारात्मक बदलाव आये हैं और बाजार की शक्तियों ने उनकी भौतिक-आत्मिक पराधीनता के नये-नये रूपों का निर्माण किया है।

महान फ्रांसीसी क्रान्ति के विचारधारात्मक अग्रधावक-प्रबोधनकाल के विचारकों ने स्त्रियों की उत्पीड़ित स्थिति को मनुष्य के प्राकृतिक अधिकारों का उल्लंघन माना था। जाँ आँतुओं कोन्दोर्से (1743-94) प्रबोधन काल के एक ऐसे विचारक थे जो धर्म के आलोचक, अन्धविश्वासों के विरोधी और वैज्ञानिक प्रगति के पक्षधर थे। वे इतिहास को मानव-तर्कबुद्धि की उपज और बुर्जुआ समाज-व्यवस्था को तर्कबुद्धिसंगति और "नैसर्गिकता" का चरम बिन्दु मानते थे। “आदर्श" समाज की अपनी इसी अवधारणा के चलते कोन्दोसे ने सामाजिक श्रेणियों का विरोध किया और राजनीतिक समानता का उत्कट समर्थन किया। अपने इसी विश्वास के तहत वे स्त्रियों की समानता के प्रबल पक्षधर थे। उनकी मान्यता थी कि स्त्रियों के बारे में समाज में मौजूद गहरे पूर्वाग्रह उनकी असमानतापूर्ण सामाजिक स्थिति के मूलभूत कारण हैं। प्रबोधन काल के अन्य विचारकों की ही तरह कोन्दोर्से स्त्री-प्रश्न के वर्गीय एवं आर्थिक संरचनागत आधारों को देखने में विफल रहे और जाहिर है कि, यह स्वाभाविक ही था। इतिहास-निर्माण के मनोगत उपादानों पर मुख्यतः जोर देने वाले निजी स्वामित्व एवं सम्पत्तिगत असमानता को प्राकृतिक एवं लाभदायी मानने वाले इन महान तर्कणावादी और मानवतावादी दार्शनिकों की यह सीमा ऐतिहासिक थी। गौरतलब है कि आगे चलकर, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोन्दोर्से के विचारों को ही अधिक तर्कसम्मत रूप में प्रस्तुत करने का उद्यम हमें जॉन स्टुअर्ट मिल की कृति में दिखाई देता है।

उल्लेखनीय है कि संगठित नारी आन्दोलन की शुरुआत भी फ्रांसीसी क्रान्ति के दौरान ही हुई थी जब स्त्रियाँ भी समस्त राजनीतिक जन-कार्रवाइयों में खुलकर हिस्सा ले रही थीं। उसी समय स्त्री-अधिकारों के लिए संघर्ष को समर्पित पहली पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ था और 'विमेन्स रिवोल्यूशनरी क्लबों' का भी गठन हुआ था जो सम्भवतः आधुनिक विश्व इतिहास के प्रथम स्त्री-संगठन थे। इन संगठनों ने क्रान्तिकारी संघर्षों में भाग लेते हुए यह माँग की कि स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्तों को किसी किस्म के लिंगभेद के बिना लागू किया जाना चाहिये। 'मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा' के मॉडल पर ओलिम्पी दि गूजे (1748-93) ने 'स्त्री और स्त्री-नागरिक के अधिकारों की घोषणा' तैयार की और उसे 1791 में राष्ट्रीय असेम्बली के समक्ष प्रस्तुत किया। इस घोषणापत्र में "स्त्रियों पर पुरुषों के शासन" का विरोध किया गया था और सार्विक मताधिकार को अमल में लाने के लिए स्त्री-पुरुष के बीच पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक समानता की माँग की गयी थी। यहाँ यह उल्लेख कर देना जरूरी है कि इससे भी पहले, अमेरिकी क्रान्ति के दौरान मर्सी वारेन और एबिगेल एडम्स के नेतृत्व में स्त्रियों ने मताधिकार और सम्पत्ति के अधिकार सहित सामाजिक समानता की माँग करते हुए जार्ज वाशिंगटन और टॉमस जैफर्सन पर दबाव डाला कि इन्हें संविधान में शामिल किया जाये, पर बुर्जुआ वर्ग के एक बड़े हिस्से के विरोध के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों के इस दौर में स्त्री आन्दोलन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज मेरी वोल्सटनक्राफ्ट की पुस्तक 'स्त्रियों के अधिकारों का औचित्य-प्रतिपादन' (ए विण्डिकेशन ऑफ दि राइट्स ऑफ विमेन, 1792) था। यह पुस्तक ओलिम्पी दि गूजे के दस्तावेज की स्थापनाओं को ही उन्नत और विस्तृत रूप में प्रस्तुत करती है। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के नारीवादी आन्दोलन की बुनियादी रूपरेखा इस पुस्तक में ही दीख जाती है।

हालाँकि फ्रांसीसी क्रान्ति के नेतृत्व ने स्त्री-पुरुष समानता और स्त्रियों के समान अधिकारों के विचार को अस्वीकार कर दिया, लेकिन इस युगान्तरकारी क्रान्ति ने सामन्ती सम्बन्धों पर सांघातिक चोट करने के साथ ही स्त्रियों की कानूनी स्थिति में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव किये। 1791 के एक कानून द्वारा स्त्री-शिक्षा का प्रावधान, 1792 की एक आज्ञप्ति द्वारा स्त्रियों को कई नागरिक अधिकार प्रदान करना तथा 1794 में कन्वेंशन द्वारा पारित एक कानून द्वारा तलाक की प्रक्रिया को आसान बना देना ऐसे कुछ प्रमुख कदम थे। लेकिन थर्मिडोरियन प्रतिक्रिया के दौरान स्त्री आन्दोलन की ये उपलब्धियाँ एक बार फिर छिन गईं। 1804 के नेपोलियानिक कोड और अन्य यरोपीय देशों की ऐसी ही बर्जआ नागरिक संहिताओं ने एक बार फिर स्त्रियों के नागरिक अधिकारों को अति सीमित कर दिया तथा परिवार, शादी, तलाक, अभिभावकत्व और सम्पत्ति के अधिकारों के मामलों में उन्हें एक बार फिर वैधिक तौर पर पूरी तरह पुरुषों के अधीन कर दिया।

उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध : प्रबोधनकालीन आदर्शों का निराशाजनक व्यंग्यचित्र बेशक प्रबोधन काल के जिन क्रान्तिकारी महापुरुषों ने भावी फ्रांसीसी क्रान्ति के लिए लोगों को तैयार किया था, उन्होंने "तर्कबुद्धि के राज" और मनुष्य के “प्राकृतिक" अधिकारों में सम्पूर्ण निष्ठा रखते हुए स्त्री-अधिकारों के प्रश्न को उठाया था, पर उनका आदर्श जब यथार्थ में रूपान्तरित हुआ तो एक निराशाजनक व्यंग्यचित्र के रूप में। तब पता चला कि "बुद्धि का यह राज बुर्जुआ वर्ग के आदर्शकृत राज के अलावा और कुछ नहीं था," और यह स्वाभाविक था, क्योंकि "18वीं शताब्दी के महान चिन्तक अपने पूर्वजों की भाँति उन सीमाओं से आगे नहीं बढ़ सके, जो उनके युग ने उनके लिये खड़ी की थीं।" (फ्रेडरिक एंगेल्स : ड्यूहरिंग मत-खण्डन की भूमिका)

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