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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध का गतिरोध और स्त्री-प्रश्न



यह इतिहाससिद्ध तथ्य है कि प्रबोधनकाल की भौतिकवादी और मानवतावादी शिक्षाएँ आगे चलकर काल्पनिक समाजवाद और फिर वैज्ञानिक समाजवाद के तर्कसंगत आधार के रूप में विकसित हुईं (मार्क्स-एंगेल्स : पवित्र परिवार), लेकिन उन्नीसवीं सदी के बुर्जुआ जनवादी गणराज्यों ने इन आदर्शों के साथ तथा मुक्ति के सपने सँजोती आम मेहनतकश आबादी और स्त्री-समुदाय के साथ विश्वासघात ही किया, एक ऐसा विश्वासघात जो स्वाभाविक था, अवश्यम्भावी था और इतिहास की गति के नियमानुकूल था। 18वीं सदी के अन्त से लेकर 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के दौरान घटित इस युग-परिवर्तन का ब्योरा एंगेल्स ने बहुत सटीक और सूत्रबद्ध रूप में यूँ प्रस्तुत किया है : “...जब फ्रांसीसी क्रान्ति ने इस तर्कबुद्धिसंगत समाज तथा इस तर्कबुद्धिसंगत राज्य को मूर्त रूप दिया, तो नई संस्थाएँ पूर्ववर्ती व्यवस्थाओं की तुलना में अपनी सारी तर्कबुद्धिसंगतता के बावजूद पूर्ण तर्कबुद्धिसंगत कदापि नहीं सिद्ध हुईं। तर्कबुद्धिसंगत राज्य पूरी तरह ढह गया। रूसो की सामाजिक संविदा ने आतंक के शासन के दौरान मूर्त रूप प्राप्त कर लिया, जिससे घबराकर अपनी राजनीतिक क्षमता में विश्वास खो बैठे बुर्जुआ वर्ग ने पहले डायरेक्टरेट की भ्रष्टता की शरण ली और फिर नेपोलियनीय निरंकुशता की छत्र छाया में पहुँच गया। जिस शाश्वत शान्ति का वचन दिया गया था, वह अन्तहीन कब्जाकारी युद्धों में बदल गयी। तर्कबुद्धि पर आधारित समाज का हाल इससे बेहतर नहीं रहा। अमीर तथा गरीब के बीच के अन्तरविरोध आम समृद्धि में विलय होने के बजाय शिल्पसंघों के तथा अन्य विशेषाधिकारों के, जिन्होंने इन विशेषाधिकारों पर मानो सेतुबन्धन का काम किया था, हटाये जाने से तथा चर्च की दानशील संस्थाओं के खत्म किये जाने से, और अधिक तीक्ष्ण हो गये। [सामन्ती बेड़ियों से “सम्पत्ति की स्वतंत्रता" जो अब वस्तुतः सम्पन्न हो चुकी थी, छोटे बुर्जुआ तथा किसान के लिए, जिन्हें बड़ी पूँजी तथा बड़े भूस्वामित्व की ओर से प्रचण्ड प्रतियोगिता ने कुचल दिया था, ठीक इन्हीं महाप्रभुओं को अपनी छोटी सम्पत्ति बेचने की स्वतंत्रता सिद्ध हुई, यह "स्वतंत्रता" इस प्रकार छोटे बुर्जुआ और किसान के लिए सम्पत्ति से स्वतंत्रता में बदल गयी] पूँजीवादी आधार पर उद्योग के तीव्र विकास ने मेहनतकश जनसाधारण की गरीबी और कष्टों को समाज के अस्तित्व की आवश्यक शर्त बना दिया। (नकद भुगतान, कार्लाइल के शब्दों में, अधिकाधिक मात्रा में इस समाज का एकमात्र सम्बन्धसूत्र बनता चला गया) अपराधों की संख्या वर्ष प्रति वर्ष बढ़ती गयी। पहले सामन्ती दुराचार दिन-दहाड़े होता था; अब वह एकदम समाप्त तो नहीं हो गया था, पर कम से कम पृष्ठभूमि में जरूर चला गया था। उसके स्थान पर बुर्जुआ अनाचार, जो इसके पहले पर्दे के पीछे हुआ करता था, अब प्रचुर रूप में बढ़ने लगा था। व्यापार अधिकाधिक धोखाधड़ी बनता गया। क्रान्तिकारी आदर्श-सत्र के "बन्धुत्व" ने होड़ के संघर्ष की ठगी तथा प्रतिस्पर्धा में मूर्त रूप प्राप्त किया। बल द्वारा उत्पीड़न का स्थान भ्रष्टाचार ने ले लिया। सामाजिक सत्ता का उत्तोलक तलवार के स्थान पर सोना बन गया। नववधू के साथ पहली रात को सोने का अधिकार सामन्ती प्रभुओं से पूँजीवादी कारखानेदारों के पास पहुँच गया। वेश्यावृत्ति में इतनी वृद्धि हो गयी, जो पहले कभी सुनी नहीं गयी थी। स्वयं विवाह-प्रथा पहले की तरह अब भी वेश्यावृत्ति का कानूनी मान्यता प्राप्त रूप तथा उसकी सरकारी आड़ बनी हुई थी, और इसके अलावा व्यापक परस्त्रीगमन उसके अनपरक का काम कर रहा था। संक्षेप में, दार्शनिकों ने जो सुन्दर वचन दिये थे, उनकी तुलना में “तर्कबुद्धि की विजय" से उत्पन्न सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएँ घोर निराशाजनक व्यंग्यचित्र प्रतीत होती थीं।" (ड्यूहरिंग मत-खण्डन)

यह विस्तृत उद्धरण यहाँ देने के पीछे हमारा उद्देश्य उन ऐतिहासिक स्थितियों को स्पष्ट करना है जिनके अन्तर्गत उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में स्त्रियों के सामाजिक अधिकारों के आन्दोलन को गतिरोध और उत्क्रमण का शिकार होना पड़ा। यह सत्तासीन बर्जआ वर्ग द्वारा प्रबोधनकालीन आदर्शों को तिलांजलि देने और जनता के साथ विश्वासघात करने का परिणाम था। स्त्रियों की पुरुष सत्ताधीनता को जिन बुर्जुआ विचारकों-लेखकों से सैद्धान्तिक आधार तथा तर्क प्राप्त हुए उनमें फ्रांसीसी दार्शनिक और प्रत्यक्षवाद (पॉज़िटिविज़्म) का प्रवर्तक ओग्यूस्त कोम्त (1798-1857) सबसे आगे था। कोम्त के समाजशास्त्रीय मत ने सामाजिक संरचना की व्याख्या करने में अविज्ञानसम्मत जैविक रुख अपनाया और एक स्थापना यह प्रस्तुत की कि नारी समुदाय की असमानतापूर्ण सामाजिक स्थिति का मूल कारण “नारी शरीर की प्राकृतिक दुर्बलता" में निहित है, स्त्रियाँ स्वाभाविक और प्राकृतिक तौर पर पारिवारिक जिम्मेदारियों, प्रजनन और शिशुपालन आदि के लिए ही बनी हैं और कभी भी वे सामाजिक तौर पर पुरुषों के समकक्ष नहीं हो सकतीं। स्त्री-पुरुष असमानता का यह जीवशास्त्रीय सिद्धान्त न केवल उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वाधिक प्रभावशाली बुर्जुआ पुरुष स्वामित्ववादी सिद्धान्त था, बल्कि आज भी इसका प्रभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है और विशेषकर फासीवादी विचार-सरणियाँ बढ़-चढ़कर इस सिद्धान्त की वकालत करती हैं।

बुर्जुआ वर्ग के सत्ता-सुदृढीकरण के बाद, तत्कालीन नारी आन्दोलन के बर्जुआ चरित्र की सीमाएँ भी क्रमशः ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होती चली गयीं। यह स्पष्ट हो गया कि बुर्जुआ अभिजन समाज की स्त्रियाँ बुर्जुआ समाज के फ्रेमवर्क के भीतर ही महज अपने वर्ग के पुरुषों के साथ समानता चाहती हैं। इस तरह उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में बुर्जुआ स्त्री आन्दोलन के भागीदारों ने स्त्री प्रश्न की अवधारणा को ही संकुचित बना दिया। मध्य-शताब्दी तक आते-आते इतना परिवर्तन अवश्य आया कि सम्पत्तिवान वर्गों की स्त्रियाँ काम के अधिकार की माँग ज्यादा से ज्यादा मुखर होकर करने लगीं।

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक तीन दशकों के दौरान यूरोप में सक्रिय स्त्री स्वच्छन्दतावादी (रोमाण्टिक) लेखिकाओं के लेखन को यदि देखा जाये तो उनमें उस समय के नारी आन्दोलन का प्रगतिशील पहलू और उसकी सीमाएँ-दोनों ही स्पष्ट नजर आती हैं। अन्ना सीवाई, हेलेन मारिया विलियम्स, मेरी हेज़ अन्ना बार्बोल्ड, जोआन्ना बेली, हन्ना मोर, मेरी रॉबिन्सन, फेनी बर्नी, जेन टेलर, डोरोथी वर्ड्सवर्थ, मेरी लैम्ब, मेरी रसेल, मिटफोर्ड, मेरी शेली, क्लेयर क्लेयरमॉण्ट और फ्रान्सिस ट्रोलोपी आदि चर्चित-अचर्चित स्त्री-स्वच्छन्दतावादी लेखिकाएँ स्त्री-शिक्षा, स्त्रियों की पारिवारिक-सामाजिक स्थिति आदि प्रश्नों को उठाती हुई एक ओर जहाँ मेरी वोल्सटनक्राफ्ट की परम्परा को विस्तार दे रही थीं, वहीं दूसरी ओर उनके लेखन में स्त्री-समुदाय की मुक्ति-आकांक्षाओं को विश्वासघाती ढंग से कुचल देने गले बुर्जुआ वर्ग के सामाजिक राजनीतिक वर्चस्व के प्रति रूढ़िवादी और प्रगतिवादी--दोनों ही प्रतिक्रियाएँ नजर आ रही थीं। एक ओर यदि वे स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता के प्रश्न को तथा नैतिकता और परिवार आदि से जुड़े मुद्दों को उठाकर ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका निभा रही थीं, दूसरी ओर उनके सरोकार काफी कुछ अभिजन समाज तक सिमटे हुए थे। उजरती गुलामी और घरेलू गुलामी के पाटों के बीच पिसती व्यापक मेहनतकश वर्गों की स्त्रियों के जीवन तक उनकी सोच की पहुँच नहीं थी और यदि कहीं थी भी तो महज धार्मिक-नैतिक सदाशयता और दयालुता के रूप में ही।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक तीन दशकों के दौरान जब स्त्री-अधिकारों की अनुपस्थिति की वैधिक और वास्तविक स्थिति को ओग्यूस्त कोम्त के प्रतिक्रियावादी समाजशास्त्रीय विचारों का आधार मिल रहा था और शैशवकाल बीतते ही स्त्री आन्दोलन गतिरोध और उत्क्रमण की भँवरों में जा फँसा था, उस समय सैंत-सीमोन, रॉबर्ट ओवेन और चार्ल्स फूरिये जैसे काल्पनिक समाजवादी चिन्तक और कतिपय अन्य क्रान्तिकारी जनवादी सिद्धान्तकार स्त्री की दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति के सिद्धान्तों का तर्कपूर्ण खण्डन प्रस्तुत कर रहे थे तथा बुर्जुआ समाज की प्रकृति और


नारी उत्पीड़न के अन्तर्सम्बन्धों को उजागर कर रहे थे। चार्ल्स फूरिये की तो यह मान्यता थी कि किसी भी समाज में आजादी का एक बुनियादी पैमाना यह है कि उस समाज-विशेष में स्त्रियाँ किस हद तक आजाद हैं। दरअसल, वस्तुगत तौर पर, पूँजीवादी समाज के विकास के नियम और विज्ञान, तकनोलॉजी एवं संस्कृति के विकास, तथा उस विकास के नतीजे के तौर पर उत्पादक कार्रवाइयों और सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों में स्त्रियों की बढ़ती भागीदारी के चलते स्त्रियों की पराधीनता के आधार-सिद्धान्तों की आधारहीनता स्वतः स्पष्ट होती जा रही थी।

1830 और 1840 के दशक में, क्रान्तिकारी बुर्जुआ यथार्थवाद के उत्कर्षकाल में, विशेष तौर पर फ्रांसीसी कथा-साहित्य में स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी के विरुद्ध विद्रोह का स्वर काफी व्यापक अर्थों में मुखर होकर उभरा। यह काफी हद तक बुर्जुआ वर्गीय सीमान्तों का अतिक्रमण भी करता था और इसमें अभिजन स्त्रियों की संकुचित बुर्जुआ प्रवृत्तियों की आलोचना भी प्रायः नजर आ जाती थी। इनमें खासतौर पर लेखिका जॉर्ज साँद के उपन्यासों को रेखांकित किया जा सकता है। यह समय था जब अमेरिका और ब्रिटेन में स्त्री-मताधिकार आन्दोलन शुरू हो रहा था। सार्वजनिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी बढ़ती जा रही थी। इसके सर्वाधिक ज्वलन्त उदाहरण के तौर पर इन दो तथ्यों की चर्चा की जा सकती है कि 1830 के दशक में अमेरिका में अश्वेत दासों की मुक्ति के संघर्ष में स्त्रियों की सौ से अधिक दासता-विरोधी सोसायटियों ने हिस्सा लिया था और ब्रिटेन में मजदूरों के ऐतिहासिक चार्टिस्ट आन्दोलन में तथा अनाज कानूनों के उन्मूलन के संघर्ष में स्त्रियों की भागीदारी बहुत अधिक थी।

1840 के दशक का अन्त आते-आते पूरे यूरोप के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर उठ खड़े हुए झंझावातों का प्रभाव नारी आन्दोलन पर भी पड़ा। दो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए-एक का फौरी, आन्दोलनात्मक महत्त्व था और दूसरे का दूरगामी विचारधारात्मक महत्त्व था।

पहला परिवर्तन यह हआ कि 1848-49 की क्रान्तियों तथा जन 1848 के पेरिस मजदूर विद्रोह के बाद महाद्वीपव्यापी मजदूर उभार ने स्त्रियों के राजनीतिक एवं नागरिक अधिकारों के संघर्ष को नया संवेग प्रदान किया। 1848 में ही फ्रांस में फिर से नारी क्लबों का गठन हुआ जिन्होंने स्त्रियों के समान राजनीतिक अधिकारों का संघर्ष नये सिरे से शुरू किया। इसी वर्ष फ्रांस में स्त्री मजदूरों के पहले स्वतंत्र संगठन की स्थापना हुई। स्त्रियों के राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष के उद्देश्य से जर्मनी और आस्ट्रिया में भी स्त्री यूनियनें गठित हुईं। जुलाई, 1848 एक सुनिश्चित कार्यक्रम के आधार पर नारीवादी आन्दोलन का प्रस्थान-बिन्दु बना, जब सेनेका फॉल्स, न्यूयार्क में एलिजाबेथ कैण्डी स्टैण्टन और लकेसिया कफिन मोट आदि की पहल पर प्रथम नारी अधिकार कांग्रेस का आयोजन हुआ और नारी स्वतंत्रता का घोषणापत्र जारी किया गया जिसमें पूर्ण कानूनी समानता, पूर्णतः समान शैक्षिक एवं व्यावसायिक अवसर, समान वेतन, मजदूरी कमाने के अधिकार तथा वोट देने के अधिकार की माँग की गयी थी।

दूसरा परिवर्तन, जिसका युगान्तरकारी महत्त्व आगे सामने आना था, वह था मार्क्स और एंगेल्स के सैद्धान्तिक-व्यावहारिक कार्यों के प्राथमिक चरण की परिणति के तौर पर, वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा का जन्म, जिसने सम्पूर्ण मानव . इतिहास की व्याख्या और सर्वहारा क्रान्ति की अवधारणा के साथ ही स्त्री-प्रश्न की भी एक नई, सांगोपांग ऐतिहासिक-वैज्ञानिक व्याख्या तथा इसके समाधान की एक ठोस रूपरेखा प्रस्तुत की।

ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्व-दृष्टिकोण से मार्क्स-एंगेल्स ने सभी सामाजिक आर्थिक संरचनाओं और सांस्कृतिक-वैधिक-नैतिक अधिरचनाओं की व्याख्या करते हुए नारी प्रश्न के वर्ग-मूलों और इतिहास-पीठिका को उद्घाटित किया और यह स्पष्ट किया कि निजी सम्पत्ति पर आधारित सामाजिक सम्बन्धों-संस्थाओं-मूल्यों के अस्तित्व में आने के साथ ही स्त्री समुदाय की दासता की शुरुआत हुई। उन्होंने बताया कि बेबस स्त्रियों और बच्चों की सस्ती श्रमशक्ति की लूट पूँजीवादी समृद्धि की अट्टालिका की एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला है। पूँजीवादी समाज में मेहनतकश स्त्रियाँ निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलाम होने के साथ ही यौन आधार पर शोषण-उत्पीड़न का शिकार होती हैं और सम्पत्तिशाली वर्गों की स्त्रियाँ भी सामाजिक श्रम से कटी हुईं या तो घरेलू दासता और पुरुष-स्वामित्व के बोझ से दबी हैं या फिर बुर्जुआ समाज में स्त्रियों के लिए आरक्षित कुछ खास अपमानजनक पेशों में लगी हुई पुरुष-स्वेच्छाचारिता की शिकार हैं। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रवर्तकों ने परिवार संस्था के नारी-विरोधी चरित्र के तमाम आदर्शीकरण को छिन्न-भिन्न करते हुए पूँजीवादी समाज में विवाह को नैतिक-वैधिक मान्यताप्राप्त संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति करार दिया और 'घरेलू गुलामी' को स्त्री-प्रश्न का बुनियादी संघटक तन्तु बताया। इन स्थापनाओं की तार्किक परिणति यह निष्कर्ष था कि माल-उत्पादन और उजरती श्रम की व्यवस्था के रहते स्त्री-प्रश्न का अन्तिम समाधान असम्भव है। उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के समाजीकरण के साथ ही "स्त्रियोचित" कार्यों का भी समाजीकरण हो सकता है और स्त्री-उत्पीड़क सम्बन्धों-संस्थाओं के न्यायपूर्ण विकल्प खड़े हो सकते हैं। यानी स्त्री समुदाय की सच्ची मुक्ति की दिशा में पहला कदम पूँजीवादी व्यवस्था का खात्मा है। आधी आबादी की सक्रिय पहलकदमी और भागीदारी के बिना सर्वहारा वर्ग अपना ऐतिहासिक मिशन पूरा नहीं कर सकता और उस ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने में भागीदारी के बिना स्त्री-मुक्ति महज एक 'यूटोपिया' ही बना रह जायेगा। पूँजीवादी समाज के अन्तर्गत संगठित संघर्ष के द्वारा स्त्रियाँ केवल अपने अर्जित अधिकारों की सुरक्षा कर सकती हैं या उनमें कुछ मात्रात्मक बढ़त हासिल कर सकती हैं। अतः उन्हें अपने फौरी संघर्षों को व्यापक ढाँचा-परिवर्तन की दिशा में अग्रसर करना चाहिये।

उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्स-एंगेल्स ने पृथक रूप से नारी मुक्ति की कोई सम्पूर्ण-सांगोपांग थीसिस नहीं प्रस्तुत की। उनके समग्र कृतित्व (मुख्यतः 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र', पूँजी-खण्ड-1 तथा परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति) में स्त्री-प्रश्न को देखने का एक नजरिया और कुछ ऐतिहासिक सामाजिक-आर्थिक प्रस्थापनाएँ मौजूद थीं, जिन्हें उत्तरवर्ती काल में, विशेषकर बीसवीं सदी में सर्वहारा क्रान्तियों के नेताओं-सिद्धान्तकारों और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों तथा स्त्री-संगठनकर्ताओं ने आगे विकसित किया। उन्नीसवीं शताब्दी में ही स्त्री-प्रश्न पर मार्क्सवादी दृष्टि से लिखी गयी पहली कृति बेबेल की 'नारी और समाजवाद' (1879) थी।

मार्क्स-एंगेल्स का विचार था कि स्त्री-मुक्ति की दिशा में पहला कदम यह होना चाहिये कि स्त्री-मजदूरों की वर्ग-चेतना को उन्नत किया जाये, सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनकी भागीदारी लगातार बढ़ायी जाये और उन्हें मजदूरों के संघर्षों-आन्दोलनों में शामिल किया जाये। उन्होंने पूधों और उनके अनुयायियों के वैचारिक दिवालियेपन को अनावृत किया जो सामाजिक समानता की बात करते हुए भी स्त्रियों की प्रमुख जिम्मेदारी परिवार और बच्चों की देखभाल मानते थे और सामाजिक रूप से उपयोगी श्रम में उनकी भागीदारी का विरोध करते थे। स्त्री-मजदूरों के श्रम-संरक्षण सम्बन्धी, पहले इण्टरनेशनल के दो प्रस्तावों ने आगे चलकर सर्वहारा नारी आन्दोलन के विकास का सैद्धान्तिक आधार तैयार करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में जब सर्वहारा आन्दोलन की पहली लहर उभार पर थी और सर्वहारा क्रान्ति का विज्ञान भी अस्तित्व में आ चुका था तथा मजदूर आन्दोलन में वैज्ञानिक समाजवाद को स्वीकारने वाली धारा लगातार मजबूत होती जा रही थी; ठीक उसी समय स्त्री आन्दोलन भी गतिरोध से उबरकर नया संवेग ग्रहण कर रहा था। एलिजाबेथ कैण्डी स्टैण्टन और सूसन ब्राउनवेल एन्थनी के नेतृत्व में अमेरिका में तेजी से फैलता हुआ स्त्री आन्दोलन यूरोपीय महाद्वीप तक आ पहुंचा।

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