नारी विमर्श >> स्त्रियों की पराधीनता स्त्रियों की पराधीनताजॉन स्टुअर्ट मिल
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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।
उन्नीसवीं सदी का उत्तरार्द्ध : नये विचारों, नये संघर्षों के आवेगमय दौर में स्त्री-प्रश्न
स्त्री-आन्दोलनों तथा विभिन्न जनवादी और सर्वहारा आन्दोलनों के दबाव के साथ ही पूँजीवादी उत्पादन की अपनी जरूरतों और तकाजों ने भी स्त्री-शिक्षा और स्त्री-श्रम सम्बन्धी कानूनों के निर्माण तथा स्त्रियों की कानूनी स्थिति के आम सुधार में एक अहम भूमिका निभाई। 1847 में ब्रिटेन में स्त्रियों के लिए दस घण्टे का कार्यदिवस निर्धारित किया गया, जिसे मार्क्स-एंगेल्स ने मजदूर वर्ग की एक महान विजय बताया था। स्त्री-मजदूरों के संरक्षण सम्बन्धी कुछ और भी कानून पारित हुए। उन्नीसवीं
शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोप और अमेरिका में स्त्रियों की कई यूनियनें गठित हुईं, जिनमें जर्मनी की जनरल विमेन्स यूनियन (1865) प्रमुख थी। इन यूनियनों का लक्ष्य स्त्री-शिक्षा के लिए और स्त्री-श्रम पर पाबन्दियों के विरुद्ध संघर्ष करना था। ब्रिटेन की स्त्रियाँ 1860 तक शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कई पेशों का अधिकार हासिल कर चुकी थी। 1858 में उन्हें पहली बार तलाक लेने का भी अधिकार मिल गया (हालाँकि 1938 तक यह सीमित रूप में ही लागू था)। 1860 तक आते-आते न सिर्फ ब्रिटेन में बल्कि कमोबेश पूरे यूरोप और अमेरिका में स्त्री आन्दोलन की मुख्य धार मताधिकार के प्रश्न पर केन्द्रित हो चुकी थी।
ब्रिटेन में जॉन स्टुअर्ट मिल, जो उस समय तक स्त्री-अधिकारों के मुखर पक्षधर के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे, स्त्रियों को वयस्क मताधिकार के दायरे में शामिल करने की जोरदार तरफदारी कर रहे थे। 1867 में उन्होंने संसद में इस आशय का प्रस्ताव रखा जो पारित नहीं हो सका। इसकी देशव्यापी तीव्र प्रतिक्रिया हुई और बहुतेरे शहरों में स्त्री मताधिकार सोसायटियों का गठन हो गया। बाद में इन सबने मिलकर राष्ट्रीय एसोसिएशन का गठन किया। अमेरिका में दो स्त्री मताधिकार संगठन 1869 में गठित हुए और 1890 में स्त्री मताधिकार संगठनों का राष्ट्रीय महासंघ अस्तित्व में आया। फ्रांस में इसी उद्देश्य से 1882 में फ्रांसीसी स्त्री अधिकार लीग का गठन हुआ।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में और उसके बाद, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन में स्त्रियों की जो स्वतंत्र यूनियनें गठित हुई थीं, वे पूँजीपतियों के विरुद्ध आम मजदूरों के संघर्षों से अपने को अलग रखती थीं। दूसरी ओर, मजदुर आन्दोलन के क्रान्तिकारी धडे भी स्त्रियों की स्वतंत्र यूनियनों के विरोधी थे। पर 1860 के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। फ्रांस और ब्रिटेन के स्त्री-कामगारों के कई संगठन पहले इण्टरनेशनल में शामिल हुए। बहुसंख्यक जर्मन कामगार स्त्रियाँ इण्टरनेशनल प्रोफेशनल एसोसिएशन ऑफ मैन्युफैक्चरी, इण्डस्ट्रियल ऐण्ड हैण्डीक्राफ्ट वर्कर्स में शामिल हो गईं जिसकी स्थापना 1869 में क्रिमित्स्चू (सैक्सनी) में हुई थी और जो इण्टरनेशनल के विचारों से प्रभावित था। 1871 में पेरिस कम्यून में स्त्रियों की शौर्यपूर्ण भागीदारी ने पूरे यूरोप की आम स्त्रियों को गहराई से प्रभावित किया। एक ओर, राजनीतिक-सामाजिक आन्दोलनों में उनकी भागीदारी बढ़ गयी, दूसरी ओर उनके स्वतंत्र संगठनों के निर्माण की प्रक्रिया भी तेज हो गयी।
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के स्त्री आन्दोलन के परिदृश्य का चित्रण हमें उसी समय तक सीमित रखना होगा, जिसके जॉन स्टुअर्ट मिल अपने जीवन-काल में साक्षी बने थे। हमारा बुनियादी उद्देश्य स्त्री-प्रश्न पर चिन्तन और स्त्री आन्दोलन के उस समग्र परिवेश को उपस्थित करना था, जिसमें मिल के स्त्री-मुक्ति विषयक विचार निर्मित हुए थे और जो विरासत उन्हें हासिल हुई थी। हमने कोशिश की है कि प्रबोधन काल और फ्रांसीसी क्रान्ति से लेकर 1848-49 की यूरोपीय क्रान्तियों तथा उनके उत्तरवर्ती काल का राजनीतिक परिदश्य भी पाठकों के दिमाग में मोटे तौर पर मौजद रहे। जॉन स्टुअर्ट मिल के चिन्तन और कर्म का दायरा केवल स्त्री-प्रश्न के इर्द-गिर्द केन्द्रित नहीं रहा है। वे अपने समय के एक प्रमुख दार्शनिक, अर्थशास्त्री और बुर्जुआ उदारपन्थी, उग्र-सुधारवादी राजनीतिज्ञ थे। यह वह समय था जब यूरोप-अमेरिका में पूँजीवादी-जनवादी क्रान्ति के अन्तिम दौर के कार्यभारों को अंजाम दिया जा रहा था। बहुतेरे भलेमानस बुर्जुआ बुद्धिजीवियों-दार्शनिकों को पूँजीवाद को “मानवीय" बनाने की अभी भी काफी उम्मीदें थीं और "स्वतंत्र प्रतियोगिता" के शैशवकाल में सत्तारूढ़ बुर्जुआ को प्रबोधनकालीन आदर्शों का झण्डा फेंककर बर्बर उजरती गुलामी और राजकीय उत्पीड़न का डण्डा उठाते देखकर वे दुखी थे। दूसरी ओर "गँवार-अशिक्षित" सर्वहारा के प्रति भी उनका गहरा अविश्वास था, हालाँकि वे उसके प्रति भी जनकल्याणकारी भावनाओं से भरे थे और चाहते थे कि क्रान्ति और प्रगति के फल उसे भी चखने को मिलें। जॉन स्टुअर्ट मिल एक ऐसे ही बुर्जुआ सुधारवादी थे जो पूँजीवादी व्यवस्था की तमाम बुराइयों (मुद्रा की पूजा, असमानता, मेहतनकशों की नारकीय जिन्दगी, स्त्रियों की स्थिति आदि) के कट आलोचक थे और यह मानते थे कि सामाजिक बनियाद में कहीं कोई दिक्कत है, पर सामाजिक ढाँचे के पुनर्गठन के बारे में सोचते हुए वे समाजवाद के निष्कर्षों तक नहीं पहुँचे। (यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि मिल मार्क्स और एंगेल्स के समकालीन थे, और उनसे कुछ वरिष्ठ थे) वे पूँजीवादी जनवाद के वास्तविक वर्गीय चरित्र के प्रति विभ्रमों के चलते संसदीय व्यवस्था और कानूनों के द्वारा परिवर्तन में आजीवन आस्थावान बने रहे। इसका कारण उनकी दार्शनिक अवस्थिति की विसंगतियों तथा क्लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र की स्थापनाओं में सुधार की उनकी पल्लवग्राही सतही कोशिशों में निहित है।
लेकिन इतना विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि मिल के रैडिकल सुधारवाद ने, वस्तुगत तौर पर इतिहास के उस दौर में कई मायनों में महत्त्वपूर्ण सकारात्मक भूमिका निभाई और इसमें स्त्री-मुक्ति का प्रश्न भी शामिल था। मिल के अन्तरविरोध उनके समय के अन्तरविरोध थे। उनकी सीमाएँ, उनकी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद, रैडिकल बुर्जुआ सुधारवाद की सीमाएँ थीं। इन बातों को ध्यान में रखकर ही उनके अवदानों का सही, वस्तुपरक मूल्यांकन किया जा सकता है।
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