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नारी विमर्श >> स्त्रियों की पराधीनता

स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।



महिलाओं के स्वभाव को लेकर व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित बिना किसी दर्शन या विश्लेषण के जो भी पहले उदाहरण मिले उन्हीं के आधार पर इतने हास्यास्पद मत बना लिये जाते हैं कि इसका लोकप्रिय विचार हर देश में उस देश के विचारों व महिलाओं के विकास अथवा अविकास की सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार बदल जाता है। एक पूर्वी विचारक सोचता है कि महिलाएँ स्वभाव से विशेषतः कामुक होती हैं; हिन्दू लेखन में इसी आधार पर उनके उग्र अपमान को देखें। एक अंग्रेज प्रायः सोचता है कि स्त्रियाँ स्वभावतः ठण्डी और भावनाहीन होती हैं। महिलाओं की चंचलता के बारे में कहावतें अधिकतर फ्रांसीसी मूल की हैं; फ्रांसिस प्रथम की प्रसिद्ध उपाधि से लेकर उससे ऊपर तथा नीचे तक। इंग्लैण्ड में यह टिप्पणी आम इस्तेमाल होती है, महिलाएँ पुरुषों से कितनी ज्यादा स्थिर हैं। फ्रांस की अपेक्षा इंग्लैण्ड में महिलाओं की अपकीर्ति अस्थिरता को लेकर अधिक हुई है : और साथ ही अंग्रेज महिलाएं अपने अन्तरतम स्वभाव से विचारों के समक्ष अपेक्षाकृत अधिक झुक जाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि विशेषकर अंग्रेज पुरुष यह फैसला करने के लिए प्रतिकूल स्थिति में हैं कि क्या प्राकृतिक है, क्या नहीं-सिर्फ महिलाओं में ही नहीं, पुरुषों में भी, या यूँ कहें पूरी मानवजाति में-अगर उनके पास केवल अंग्रेज अनुभवों का ही आधार है, तो। क्योंकि इंग्लैण्ड के अतिरिक्त ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ मानव स्वभाव अपनी मूल विशेषता इतनी कम मात्रा में दर्शाता हो। अच्छे या बुरे दोनों अर्थों में, अन्य आधुनिक लोगों की अपेक्षा अंग्रेज लोग प्रकृति की अवस्था से अधिक दूर हैं। वे अन्य लोगों की अपेक्षा सभ्यता व अनुशासन की उपज ज्यादा हैं। इंग्लैण्ड ऐसा देश है जहाँ सामाजिक अनुशासन सर्वाधिक सफल रहा है, उसे जीतने में नहीं जिसके साथ इसका विवाद रहा हो, बल्कि उसे दबाने में। अन्य लोगों की अपेक्षा अंग्रेज लोग नियमानुसार कार्य ही नहीं करते बल्कि वैसा महसूस भी करते हैं। दूसरे देशों में सिखाया हुआ मत या समाज की आवश्यकता दृढ़ ताकत हो सकती है लेकिन व्यक्तिगत स्वभाव के लक्षण इसके तहत भी दिखाई दे जाते हैं, प्रायः सामाजिक मत का विरोध करते हुए ही नजर आते हैं। सामाजिक नियम स्वभाव से अधिक ताकतवर हो सकता है लेकिन स्वभाव फिर भी मौजूद रहता है। इंग्लैण्ड में, बहुत हद तक नियम ने स्वभाव की जगह ले ली है। जीवन का ज्यादातर कारोबार नियम व शासन के तहत प्रवृत्ति का पालन करके नहीं बल्कि नियम का पालन करने के अतिरिक्त और किसी प्रवृत्ति की गैरमौजूदगी से ही चलता है। अब इसका एक अच्छा पक्ष तो निस्सन्देह है ही, लेकिन इसका एक काफी खराब पक्ष भी है। इस प्रकार एक अंग्रेज मानव स्वभाव की मूल प्रवृत्तियों पर अपने अनुभव के आधार पर निर्णय लेने के अयोग्य हो जाता है। अन्य जगहों के पर्यवेक्षक इस सन्दर्भ में जो गलतियाँ कर सकते हैं, वे भिन्न प्रवृत्ति की होती हैं। मनुष्य स्वभाव को लेकर एक अंग्रेज अज्ञानी होता है तो फ्रांसीसी पूर्वग्रह से ग्रसित। अंग्रेज व्यक्ति की गलतियाँ नकारात्मक हैं तो फ्रांसीसी व्यक्ति की सकारात्मक । एक अंग्रेज व्यक्ति कल्पना करता है कि चीजें मौजूद नहीं है क्योंकि उसने उन्हें कभी देखा ही नहीं लेकिन एक फ्रांसीसी सोचता है कि उन्हें हमेशा होना ही चाहिये क्योंकि उसने उन चीजों को देखा है। एक अंग्रेज व्यक्ति प्रकृति को नहीं जानता क्योंकि उसे जानने-समझने का उसे अवसर ही नहीं मिला; एक फ्रांसीसी सामान्यतः इस बारे में बहुत कुछ जानता है लेकिन प्रायः इस बारे में गलती करता है क्योंकि उसने सिर्फ परिष्कृत व विकृत प्रकृति को ही देखा है। समाज के द्वारा थोपी गयी कृत्रिम स्थिति चीजों की प्राकृतिक प्रवृत्तियों को दो प्रकार से छिपा देती है या फिर रूपान्तरित कर देती है। पहली स्थिति में अध्ययन के लिए सिर्फ प्रकृति के चन्द अवशेष ही दिखते हैं और दूसरी स्थिति में किसी और दिशा में विकसित प्रकृति नजर आती है, स्वतः व सहज विकसित रूप लक्षित नहीं होता।

मैं कह चका हूँ कि यह अभी तक मालूम नहीं हो सका है कि परुष व स्त्री के बीच मानसिक भिन्नताएँ कितनी प्राकृतिक हैं और कितनी कृत्रिम, कि इन दोनों में कोई प्राकृतिक मानसिक भिन्नता है भी या नहीं, या अगर भिन्नता की सारी कृत्रिम वजहें हटा दी जायें तो कैसे प्राकृतिक चरित्र उभर कर आयेगा। मैं उस काम का प्रयास करने नहीं जा रहा हूँ जिसे मैंने पहले ही असम्भव करार दे दिया है। लेकिन सन्देह अनुमान लगाने का निषेध नहीं करता और जहाँ निश्चितता अप्राप्य हो वहाँ सम्भावना के किसी स्तर पर पहुँचने के साधन तो फिर भी हो सकते हैं। पहला मुद्दा, जिसे वाकई भिन्नताओं का मूल माना गया है, वह चिन्तन व अनुमान के सर्वाधिक करीब है और मैं इस तक उसी मार्ग से पहुँचने की कोशिश करूँगा जिससे यहाँ पहुँचा जा सकता है: बाहरी प्रभावों के मानसिक परिणामों का पता लगाकर। हम एक मनुष्य को उसकी परिस्थितियों से अलग नहीं कर सकते, सिर्फ अपने प्रयोग से यह निश्चित करने के लिए कि वह अपने सहज स्वभाव में क्या होगा? लेकिन हम यह देख सकते हैं कि वह क्या है, उसकी परिस्थितियाँ क्या कर रही हैं, और क्या वह उन परिस्थितियों
को बनाने में समर्थ रहा होगा।

तो फिर अगर हम सिर्फ शारीरिक ताकत की बात छोड़ दें तो पुरुषों से महिलाओं की हीनता के मात्र एक विशिष्ट केस को लेते हैं। दर्शन, विज्ञान या कला का कोई भी श्रेष्ठ काम महिला द्वारा नहीं किया गया है। इसकी वजह सिवाय यह मान लेने के और क्या हो सकती है कि महिलाएँ स्वभावतः ये काम करने में असमर्थ हैं?

पहली बात तो, हम यह सवाल कर सकते हैं कि क्या अनुभव ने इस बात का पर्याप्त आधार हमें दिया है? बहुत दुर्लभ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो अभी तीन ही पीढ़ियों से महिलाओं ने दर्शन, कला या विज्ञान के क्षेत्र में अपनी क्षमता दिखानी शुरू की है। मौजूदा पीढ़ी में ही उनके ये प्रयास बहुलता में दिखाई पड़ते हैं : लेकिन अब भी यह बहुत कम है-इंग्लैण्ड और फ्रांस के सिवाय हर कहीं ऐसी महिलाएँ कम ही हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या चिन्तन या रचनात्मक कला में अव्वल श्रेणी की कुशलता वाला मस्तिष्क इतना समय बीतने के बाद या इस दौरान, उन महिलाओं में केवल संयोग से ही पाया जा सकता था जिनकी रुचि व सामाजिक स्थिति उन्हें इन कार्यों को करने के अनुकूल थी। फिर भी उन सभी चीजों में, जिनके लिये समय था-केवल श्रेष्ठता के चरम बिन्दु को छोड़कर, खासकर उस क्षेत्र में जिसमें वे बहुत अरसे से शामिल रही हैं मसलन साहित्य (गद्य व पद्य दोनों) में, महिलाओं ने काफी उपलब्धि व पुरस्कार हासिल किये हैं, जितना कि समयावधि व प्रतियोगियों की संख्या के मद्देनजर उनसे उम्मीद की जा सकती थी। यदि हम प्राचीन समय की ओर लौटें तो बहुत कम महिलाओं ने साहित्यिक प्रयास किये फिर भी उनमें से कुछ ने विशिष्ट सफलता भी प्राप्त की। ग्रीक हमेशा साफो को अपनी महान कवयित्री मानते थे और हम समझ सकते है कि मिर्टिस, जो कहा जाता है कि पिण्डर की गुरु रही और कोरिना, जिसने पाँच बार उससे काव्य पुरस्कार जीत लिया, उनमें इतनी पर्याप्त योग्यता तो रही होगी कि उनकी तुलना उस महान व्यक्ति से की गयी। अस्पासिया का दर्शन सम्बन्धी लेखन उपलब्ध नहीं है लेकिन यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि सकरात ने हमेशा उसके निर्देशों की सहायता ली और इसे स्वीकार भी किया।

यदि हम आधुनिक समय में महिलाओं के कार्यों को लें और पुरुषों के कार्यों के बरक्स रखें-चाहे साहित्यिक या कला के क्षेत्र में-तो स्त्रियों की सिर्फ एक खामी उभर कर आती है, लेकिन वह बहुत वस्तुपरक है; मौलिकता की कमी। यह भी विशुद्ध कभी भी नहीं; चूँकि मस्तिष्क की कोई भी ऐसी उपज जो सारगर्भित हो, उसकी अपनी मौलिक विशेषता तो होती ही है-वह मस्तिष्क की अपनी संकल्पना होती है, किसी और की नकल नहीं। मौलिक विचार, किसी से लिये हुए नहीं बल्कि विचारक के अपने चिन्तन-मनन से निकले विचार महिलाओं के लेखन में प्रचुर मात्रा में हैं। लेकिन अब तक उन्होंने ऐसा नया व चमकदार विचार नहीं दिया जो विचार जगत में एक नये युग की शुरुआत कर दे या कला क्षेत्र में ऐसी मूलभूत अवधारणा नहीं दी जो पहले न सोचे गये नये आयाम खोल दे और नई विचारधारा की आधारशिला बने। उनकी रचनाएँ बहुधा मौजूदा विचार कोश पर ही आधारित होती हैं और उनकी रचनाएँ मौजूदा रचना शैली से अलग नहीं होती। इसी प्रकार की हीनता उनके कामों में प्रकट होती है। कार्यान्वयन में, विचारों को सूक्ष्मता से लागू करने और शैली के पूर्ण निष्पादन में कहीं कोई कमी परिलक्षित नहीं होती। संरचना व सूक्ष्म ब्यौरे के प्रबन्धन में जो हमारे सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार हैं, वे महिलाएँ हैं। आधुनिक साहित्य में मदाम डि स्टेल की शैली से अधिक विचारों की भावपूर्ण अभिव्यक्ति अन्यत्र उपलब्ध नहीं है और मादाम साँद के गद्य से श्रेष्ठ व कलात्मक श्रेष्ठता का नमूना भी नहीं दीख पड़ता। मदाम साँद की शैली का मस्तिष्क पर हेड्न या मोत्सार्ट की सिम्फनी जैसा प्रभाव पड़ता है। जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि अवधारणा की उच्च मौलिकता की ही मुख्यतः कमी है। और अब यह विश्लेषण करते हैं कि क्या ऐसा कोई तरीका है जिससे इस खामी की वजह ज्ञात हो सके।

तब हमें याद रखना चाहिये कि विचार के सन्दर्भ में दुनिया के अस्तित्व के दौरान, सभ्यता के विकास के दौरान, जब केवल विलक्षणता के बल पर बिना अधिक अध्ययन या जानकारी इकट्ठा किये महान और नवीन सत्यों तक पहुँचा जा सकता था-उस सारी अवधि के दौरान महिलाओं का चिन्तन या विचारशीलता से कोई नाता न रहा। हिपेशिया के युग से रिफॉर्मेशन तक, विख्यात हेलोयसा शायद एकमात्र ऐसी महिला थी जिसके लिये इस प्रकार की कोई उपलब्धि सम्भव थी; और हम नहीं जानते हैं कि उसके जीवन के दुर्भाग्यों के फलस्वरूप मानवजाति उसके चिन्तन की कितनी महान क्षमता से वंचित रही। चूंकि बहुत कम महिलाओं ने तब से गम्भीर चिन्तन का प्रयास किया है, अतः विचारों की मौलिकता प्राप्त करना उनके लिए सरल नहीं रहा। केवल अपनी क्षमताओं के आधार पर जो विचार उपज सकते थे, वे बहुत पहले सोचे जा चुके हैं और मौलिकता, उच्च स्तरीय मौलिकता आज उन दिमागों द्वारा भी बहुत कम हासिल की जाती है, जो बहुत सुशिक्षित हैं और जिन्हें पूर्व विचारधाराओं व विचार प्रक्रियाओं का पूर्व ज्ञान है। मेरे विचार से श्री मॉरिस ने ही वर्तमान युग पर यह टिप्पणी की है कि इसके सर्वाधिक मौलिक विचारक वे हैं जो बहुत विस्तार से यह जानते हैं कि उनके पूर्ववर्तियों द्वारा क्या चिन्तन किया गया था और अब ऐसी ही स्थिति रहेगी। अट्टालिका में इतने सारे पत्थरों के ऊपर नये पत्थर रखे जा चुके हैं। मौजूदा स्थिति में जो भी इस कार्य में भाग लेना चाहता है, उसे अपना सामान लेकर बहुत ऊँचा चढ़ने की लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। ऐसी कितनी महिलाएँ है जो इस प्रक्रिया से गुजरी हैं? महिलाओं में सम्भवतः श्रीमती सॉमरनील ही एकमात्र ऐसी महिला हैं जो गणित के बारे में इतना जानती हैं जितना कोई नई गणितीय खोज करने के लिए आवश्यक है। क्या यह स्त्रियों की हीनता का कोई सबूत है कि वह अपने समकालीन उन दो-तीन लोगों में से नहीं रहा जिनका नाम विज्ञान की अद्भुत प्रगति से जुड़ा है? जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र को विज्ञान बनाया गया है, दो महिलाएँ ऐसी हैं जो इस विषय पर इतना ज्ञान रखती हैं कि इस पर कुछ उपयोगी लिख सकें; उन अनेक पुरुषों जिन्होंने इसी समय में इस विषय पर लिखा, में से कितनों के बारे में वाकई इससे अधिक कहना सम्भव है? यदि कोई महिला एक महान इतिहासकार नहीं हुई तो किस महिला को इसके लिये आवश्यक ज्ञान मिला? यदि कोई महिला एक महान भाषाशास्त्री नहीं हुई, तो किस महिला ने संस्कृत और स्लावोनिक, उल्फिला की गोथिक तथा जेंदावेस्ता की फारसी का अध्ययन किया है? व्यावहारिक मामलों में भी हम सभी जानते हैं कि अप्रशिक्षित विलक्षण प्रतिभाओं की क्या कीमत होती है? इसका अर्थ है लगातार कई अन्वेषकों द्वारा खोजी गयी व विकसित की गयी एक चीज को फिर से उसके शुरुआती स्वरूप से ही खोजना। जब महिलाओं की भी वह तैयारी हो चुकेगी जिसकी विशेष रूप से मौलिक बनने के लिए पुरुषों को भी जरूरत होती है, तब मौलिकता के लिए महिलाओं की मूल क्षमता को परखने का उचित समय होगा।

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