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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।



निस्सन्देह यह प्रायः होता है कि एक व्यक्ति जिसने दूसरे के विचारों के एक विषय पर भलीभाँति व विस्तार से नहीं पढ़ा है, उसे स्वाभाविक विलक्षणता के परिणामस्वरूप एक आभास होता है जिसे वह सुझा तो सकता है पर सिद्ध नहीं कर सकता, लेकिन फिर जो परिपक्व होकर ज्ञान में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी बन सकता है। फिर भी उससे तब तक न्याय नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई दसरा व्यक्ति, जिसके पास उपरिवर्णित जानकारी है, वह उसे अपने हाथ में ले, जाँचे-परखे, एक वैज्ञानिक या व्यावहारिक रूप दे और दर्शन या विज्ञान के मौजूदा तथ्यों में अवस्थित कर दे। क्या यह मान लिया जा सकता है कि ऐसे अद्भुत विचार महिलाओं को नहीं सूझते? हर बुद्धिमान महिला को ऐसे सैकड़ों विचार सूझते हैं। लेकिन अधिकतर वे विचार पति या एक ऐसे मित्र की कमी के कारण खो जाते हैं, जिसके पास यह दूसरा ज्ञान हो और वह उनके विचारों का ठीक-ठीक अनुमान लगाकर उन्हें दुनिया के सामने ला सके। और जब वे दुनिया के समक्ष लाये भी जाते हैं तो वे उसके (पुरुष के) विचार अधिक लगते हैं, उसके मूल लेखक के नहीं। कौन बता सकता है कि पुरुष लेखकों द्वारा व्यक्त किये गये कितने सर्वाधिक मौलिक विचार दरअसल एक महिला द्वारा सुझाये गये थे और वे सिर्फ सत्यापित करने व उन पर काम करने के बाद ही उनके अपने विचार बने? अगर मैं अपने ही उदाहरण को लूँ-तो वाकई मेरे विचारों का एक बड़ा भाग ऐसा ही है।

यदि हम विशुद्ध अटकलबाजी चिन्तन से साहित्य व कला-शब्द के सीमित अर्थों में-की ओर मुड़ें, तो महिलाओं का साहित्य, अपनी सामान्य परिकल्पना व मुख्य गुणों में पुरुषों के साहित्य की नकल क्यों है-उसका एक बहुत स्पष्ट कारण है। रोमन साहित्य को, जैसा कि आलोचक सन्तोषजनक रूप से घोषणा करते हैं, मौलिक नहीं बल्कि ग्रीक साहित्य की नकल क्यों माना जाता है? सिर्फ इसलिए क्योंकि ग्रीक रोमनों से पहले हुए। यदि महिलाएँ पुरुषों से अलग अपने देश में रहतीं और उन्होंने पुरुषों का लेखन कभी नहीं पढ़ा होता, तो उनका अपना साहित्य होता। वैसे भी, उन्होंने ऐसे साहित्य की रचना इसलिए नहीं की चूँकि पहले ही से एक विकसित साहित्य विद्यमान था। यदि प्राचीन काल के ज्ञान का प्रलम्बन न हुआ होता, या अगर पुनर्जागरण गोथिक केथिड्रल बनने से पहले हुआ होता, तो उनका निर्माण कभी न होता। हम देखते हैं कि फ्रांस और इटली में प्राचीन साहित्य की नकल ने मौलिक विकास को इसके आरम्भ से पूर्व ही खत्म कर दिया। वे सभी महिलाएँ जो साहित्यिक लेखन करती हैं, महान पुरुष लेखकों की शिष्याएँ हैं। एक चित्रकार के शुरुआती चित्र, चाहे वह राफेलो ही क्यों न हो, अपने गुरु की शैली से बहुत मिलते-जुलते होते हैं। यहाँ तक कि मोत्सार्ट की आरम्भिक रचनाओं में भी उसकी प्रबल मौलिकता नजर नहीं आती। एक योग्य व्यक्ति के लिए वर्षों का वही अर्थ होता है जो पीढ़ियों का एक जनसमूह के लिये। यदि महिलाओं के साहित्य में पुरुषों से अलग कोई सामूहिक व्यक्तित्व होना है, जो उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों पर निर्भर हो, तो पूर्व स्वीकार्य ढाँचों के प्रभाव से निकलने व अपनी प्रवत्तियों द्वारा निर्देशित होने में उन्हें जितना समय अभी बीता है उससे कहीं अधिक समय लगेगा। लेकिन यदि, जैसा कि मेरा मानना है, महिलाओं में आम स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ नहीं सिद्ध होंगी जो उनकी योग्यता को पुरुष की योग्यता से अलग बना सकें, तो भी उनमें से हर लेखक की अपनी निजी प्रवृत्तियाँ हैं, जो फिलहाल पूर्ववर्ती प्रभाव व उदाहरणों के प्रभाव में दबी हुई हैं। और तब उनकी वयैक्तिकता के पर्याप्त रूप से विकसित होने तथा उस प्रभाव से निकलने में और भी अधिक वक्त लगेगा।

कला के क्षेत्र में महिलाओं की मौलिक क्षमता की हीनता पहली नजर में ही सबसे ज्यादा प्रबल दिखाई देती है; क्योंकि विचार (ऐसा कहा जा सकता है) उन्हें इस हीनता से नहीं निकालता बल्कि इसे प्रोत्साहित करता है और उनकी शिक्षा, इसकी उपेक्षा करने की बजाय, समृद्ध वर्गों में तो खासतौर पर, इसी हीनता से बनी होती है। इस क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों की अपेक्ष वे पुरुषों द्वारा प्राप्त प्रतिष्ठा से कहीं कमतर हैं।

बहरहाल, उनकी इस कमी की वजह चिरपरिचित तथ्य है, जो कला क्षेत्र में किसी और क्षेत्र की अपेक्षा बहुत खरा उतरता है। वह है नौसिखियों पर पेशेवर लोगों की श्रेष्ठता। शिक्षित वर्गों में लगभग हर जगह महिलाओं को किसी न किसी कला की शिक्षा दी जाती है, इसलिए नहीं कि वे इससे आजीविका चला सकें या सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल कर सकें। सभी महिला कलाकार अव्यवसायी होती हैं। इसके अपवाद भी सिर्फ उसी प्रकार के होते हैं जो सामान्य सत्य की पुष्टि ही करते हैं। महिलाओं को संगीत सिखाया जाता है लेकिन संगीत की रचना करने के लिए नहीं बल्कि सिर्फ किसी रचना को गाने या बजाने के लिये। इसलिए बतौर संगीत रचनाकार पुरुष संगीत में महिलाओं से श्रेष्ठ होते हैं। एकमात्र कला, जिसका महिलाएँ व्यवसाय या आजीविका कमाने के साधन के रूप में करती हैं-वह है अभिनय कला और इसमें वे पुरुषों से श्रेष्ठ नहीं तो बराबरी की योग्य तो स्वीकार्य रूप से हैं ही। इस तुलना को न्यायसंगत बनाने के लिए यह तुलना महिला द्वारा कला के किसी भी क्षेत्र में की गयी रचना और उन पुरुषों की रचना के बीच होनी चाहिये, जिनके लिये यह कला व्यवसाय नहीं है। मसलन संगीत रचनाओं के क्षेत्र में महिलाओं ने निश्चित तौर पर अव्यवसायी पुरुषों जितनी ही अच्छी कृतियाँ रची हैं। अब कुछ ऐसी महिलाएँ भी हैं, हालाँकि वे बहुत कम हैं, जिन्होंने चित्रकला को व्यवसाय के रूप में अपनाया है और उन्होंने अपनी योग्यता अभी से दिखानी आरम्भ कर दी है। परुष चित्रकारों ने भी पिछली कुछ सदियों में कोई बहुत विलक्षण चित्र नहीं बनाया है और अभी काफी समय तक वे ऐसा नहीं कर पायेंगे। पुराने चित्रकार आधुनिक चित्रकारों से इतने श्रेष्ठ क्यों है-इसका कारण यह है कि उस समय बहुत श्रेष्ठ व विलक्षण पुरुषों ने इस कला को अपनाया था। चौदहवीं व पन्द्रहवीं शताब्दी में इतालवी चित्रकार अपने युग के सर्वाधिक प्रतिष्ठित व कुशल पुरुष थे। उनमें से महानतम तो अद्भुत क्षमताओं के स्वामी थे, ग्रीस के महान पुरुषों की तरह। लेकिन उनके समय में चित्रकला मनुष्य की भावनाओं व कल्पना में सर्वाधिक वैभवशाली चीज थी जिसमें मनुष्य अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता था और इसके माध्यम से लोग वह बन जाते थे जो आजकल सिर्फ राजनीतिक या सैन्य विशिष्टता ही उन्हें बना सकती है मसलन शासकों के संगी व उच्चतम अभिजात वर्ग के समकक्ष। वर्तमान समय में, उसी काबिलियत के लोग चित्रकला से अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य ढूँढ लेते हैं जो उनकी प्रसिद्धि व आधुनिक दुनिया में लाभ प्राप्ति के अनुकूल हों। ऐसा कभी-कभार ही होता है कि एक रेनॉल्ड या टर्नर (प्रतिष्ठित लोगों में जिनके स्थान पर मैं अपनी कोई राय रखने का दावा नहीं करता) उस कला में अपनी क्षमता का उपयोग करे। संगीत का सम्बन्ध चीजों की एक अलग व्यवस्था से है। इसके लिये मस्तिष्क की सामान्य क्षमताओं की इतनी आवश्यकता नहीं होती, यह प्रकृति की देन पर अधिक निर्भर प्रतीत होता है। और यह हैरानी की बात लग सकती है कि महान संगीत रचनाकारों में से कोई भी स्त्री नहीं रही। लेकिन इस प्राकृतिक देन को भी, महान रचना करने के लिए अध्ययन की व व्यावसायिक समर्पण की आवश्यकता होती है। जर्मनी व इटली ही ऐसे देश हैं जहाँ महान पुरुष संगीतकार हुए। ये दोनों देश ऐसे हैं जहाँ विशेष व सामान्य संवर्द्धन की दृष्टि से महिलाएँ फ्रांस और इंग्लैण्ड की तुलना में बहुत पीछे रहीं। वे सामान्यतः (यह बिना अतिशयोक्ति के कहा जा सकता है) बहुत कम शिक्षित रहीं
और उनमें मानसिक क्षमताओं का विकास न के बराबर रहा। और उन देशों में संगीत रचना के सिद्धान्तों को जानने वाले पुरुषों की संख्या सैकड़ों में या सम्भवतः हजारों में है लेकिन ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत कम है; एक बार फिर, औसत के सिद्धान्त पर हम पचास प्रतिष्ठित पुरुषों पर एक प्रतिष्ठित महिला से अधिक की अपेक्षा नहीं कर सकते; और पिछली तीन सदियों में जर्मनी या इटली में पचास प्रतिष्ठित पुरुष संगीतकार भी नहीं हुए हैं।

जो कारण हम दे चुके हैं उनके साथ अन्य कारण भी हैं जो इस बात का खुलासा करते हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों के लिए खुले कार्यों में स्त्रियाँ ही पुरुष से पीछे क्यों हैं। पहली बात तो, महिलाओं के पास इन सब कामों के लिए बहुत कम वक्त होता है। यह एक विरोधाभास लग सकता है : लेकिन यह एक ऐसा सामाजिक तथ्य है जिसमें कोई सन्देह नहीं। हर महिला के समय व विचार को व्यावहारिक चीजों की माँगों को पहले सन्तुष्ट करना पड़ता है। पहले तो परिवार व घरेलू खर्चे की देखरेख है, जो परिवार की कम से कम एक महिला को व्यस्त रखती है। सामान्यतः यह महिला अनुभवी व परिपक्व होती है बशर्ते कि परिवार इतना धनी न हो कि इस कार्य के लिए किसी एजेन्सी की मदद ले। चाहे इस तरह से धन कितना ही व्यर्थ हो या उसका दुरुपयोग हो। गृहस्थी की देखभाल चाहे कुछ अर्थों में श्रमशील न हो, विचारों के लिए एक उबाऊ काम होता है। इसमें लगातार चौकसी, हर सूक्ष्म बात को देख लेने वाली नजर की आवश्यकता होती है और दिन में हर वक्त ऐसे अपेक्षित व अनपेक्षित सवाल व समस्याएँ पैदा होती रहती हैं, जिनसे मुक्त होना, उनके लिये उत्तरदायी व्यक्ति के लिए लगभग असम्भव हो जाता है। यदि एक महिला की प्रतिष्ठा व परिस्थितियाँ उसे एक हद तक इन चिन्ताओं से मुक्त कर भी दें, तो परिवार के अन्य लोगों से सम्बन्ध के प्रबन्धन की जिम्मेदारी तो उस पर होती ही है। पहली जिम्मेदारी उस पर जितनी कम होती है, उतनी ही ज्यादा दूसरी जिम्मेदारी बढ़ जाती है; रात्रिभोज, संगीत समारोह, शाम की दावतें, सुबह आगन्तुकों का आना, पत्र लिखना वगैरह। और यह सब उस जिम्मेदारी के बाद जो समाज ने विशेष रूप से स्त्री पर ही थोपी है; स्वयं को आकर्षक व खुशनुमा बनाये रखने का जिम्मा। ऊँचे वर्ग की चतुर महिला को गरिमापूर्ण तहजीब और बातचीत की कला को निखारने व उसका पोषण करने में अपनी योग्यताओं को व्यस्त रखने का रोजगार मिल जाता है। इस विषय के सिर्फ बाहरी पक्ष को ही देखें तो; जो महान व निरन्तर विचार प्रक्रिया महिलाएँ अच्छे व सुरुचिपूर्ण वस्त्र पहनने (महँगे नहीं बल्कि सुरुचिपूर्ण और स्वाभाविक व कृत्रिम रिवाज के अनुसार) में, अपनी वेशभूषा और शायद अपनी पुत्रियों की वेशभूषा में लगाती हैं, सिर्फ उसी चिन्तन से वे कला, विज्ञान या साहित्य में सम्मानीय फल पा सकती हैं। इस काम में उनका ज्यादातर समय व मानसिक ताकत जाया होती है जो वे अन्य किसी कला में लगा सकती थीं। अगर यह सम्भव होता कि ये छोटी-छोटी रुचियाँ (जिन्हें उनके लिये बहुत अहम बना दिया गया है) उनके पास इतना समय या दिमागी स्वतंत्रता छोड़तीं कि वे इनका इस्तेमाल कला या चिन्तन में कर सकतीं, तो अनेक पुरुषों की अपेक्षा उनके पास सक्रिय योग्यता की बहुत अधिक आपूर्ति होती। लेकिन यही काफी नहीं है। वह सब कार्य जो एक स्त्री करती है, उसके अतिरिक्त उससे यह अपेक्षा की जाती है कि उसका समय व क्षमताएँ सभी के लिए हमेशा उपलब्ध रहें। यदि एक पुरुष के पास ऐसा व्यवसाय न हो जो उसे ऐसी माँगों से मुक्त कर सके, फिर भी उसके पास कोई काम रहता ही है, तो उसमें अपना समय लगाने से वह किसी को नाराज नहीं करता। ऐसी किसी सामान्य माँग को पूरा न करने के पीछे उसका व्यवसाय या काम एक ठोस बहाना माना जाता है। क्या महिला का कार्य या व्यवसाय, विशेषकर जो उसने स्वेच्छा से चुने हों, उन्हें कभी उसे सामाजिक उत्तरदायित्वों से मुक्त करने का कारण माना जाता है? उसे उसके सर्वाधिक आवश्यक कर्तव्यों के लिए भी छूट के तौर पर बहुत कम इजाजत मिलती है। परिवार में किसी की बीमारी या सामान्य ढर्रे से अलग कोई बात ही उसे इस बात का हक देती है कि वह अन्य लोगों की खुशी की अपेक्षा अपने कारोबार पर अधिक ध्यान दे। उसे हमेशा किसी न किसी की जरूरत के लिए उपस्थित रहना ही होता है। यदि वह कोई काम करती है या किसी विषय का अध्ययन करती है, तो उसे करने के लिए वह उस समय का प्रयोग करती है जो उसे अन्य घरेलू कार्यों के बीच संयोगवश मिल जाता है। एक प्रतिष्ठित महिला ने अपनी एक रचना में, जो मुझे उम्मीद है किसी दिन अवश्य प्रकाशित होगी, यह टिप्पणी की है कि एक महिला जो भी करती है वह अटपटे समय में ही करती है। तो क्या यह हैरानी की बात है कि वह उन चीजों में सर्वश्रेष्ठ प्रतिष्ठा हासिल नहीं करती जिनमें अपने जीवन की मुख्य रुचि के रूप में लगातार ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत होती है। दर्शन भी ऐसा क्षेत्र है और कला भी जिसमें विचारों व भावनाओं को केन्द्रित करने के साथ ही हाथ को भी उच्च दक्षता हासिल करने के लिए लगातार कार्यरत रहना पड़ता है।

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