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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।

अध्याय चार



जिन प्रश्नों पर पहले ही विचार-विमर्श किया जा चुका है, उतना ही महत्त्वपूर्ण एक और प्रश्न अभी शेष है जो उन हठी लोगों द्वारा पूछा जायेगा, जिनकी आस्था मुख्य मुद्दे पर थोड़ी डगमगाई है। हमारे रिवाजों व प्रथाओं में जो परिवर्तन सुझाये गये हैं, उनसे किस भलाई की उम्मीद की जा सकती है? यदि महिलाएँ स्वतंत्र हों तो क्या मानवजाति अब से बेहतर स्थिति में होगी? यदि नहीं, तो फिर उनके दिमागों को विचलित करके एक अस्पष्ट व काल्पनिक अधिकार के नाम पर सामाजिक क्रान्ति लाने का प्रयास क्यों किया जाये? यह सवाल सम्भवतः विवाह में महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन के लिए सुझाये गये विचारों के सन्दर्भ में ही पूछा जायेगा। एक पुरुष के अधीन होने से स्त्री के जीवन में कष्ट, अनैतिकताएँ व सभी तरह की बुराइयों के जो अनेक मामले दिखाई देते हैं, वे इतने भयानक हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जो लोग विचारशील नहीं हैं, निष्पक्ष नहीं हैं वे केवल ऐसी अति की स्थितियों को या उन स्थितियों को जो जग-जाहिर हो जाती हैं-गिनकर कहेंगे कि इस संस्था में बुराई तो सिर्फ अपवाद है; लेकिन कोई भी उनके अस्तित्व से, या अनेक मामलों में उनकी गहनता से तटस्थ नहीं रह सकता। और यह भी पूरी तरह स्पष्ट है कि सत्ता के रहते सत्ता के दुरुपयोग को रोका नहीं जा सकता। यह वह सत्ता है जो भले या सम्माननीय पुरुषों को नहीं बल्कि सर्वाधिक क्रूर और निर्दयी-सभी पुरुषों को दी गयी है। उन पर सिवाय विचार व मत के और कोई नियन्त्रण नहीं है और सामान्यतः क्रूर अथवा निर्दयी पुरुष तक उन्हीं जैसे लोगों के विचारों की ही पहुँच होती है, अन्य की नहीं। अगर ऐसे पुरुषों ने उस एक व्यक्ति पर निरंकुश अत्याचार नहीं किया होता, जिसको कानून सब कुछ सहने के लिए बाध्य करता है, तो समाज पहले ही एक सुखमय व आदर्श स्थिति में पहुँच गया होता। तब पुरुष की दुष्ट प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करने के लिए कानून बनाने की जरूरत नहीं होती। एस्ट्रिया न सिर्फ धरती पर वापस आ जाती, बल्कि सबसे बुरे पुरुष का हृदय उसका मन्दिर बन गया होता। विवाह में पराधीनता का कानून आधुनिक दुनिया के सभी सिद्धान्तों के कतई विपरीत है और उस समस्त अनुभव के विपरीत भी जिसके जरिये धीरे-धीरे और कठिनाईपूर्वक इन सिद्धान्तों तक पहुँचा गया। नीग्रो-दासता के उन्मूलन के बाद अब यही एक ऐसा क्षेत्र बचा है जिसमें एक मनुष्य पूरी तरह से दूसरे मनुष्य की दया पर निर्भर होता है, इस उम्मीद में कि वह व्यक्ति अपने अधीन व्यक्ति के हित में ही अपनी सत्ता का इस्तेमाल करेगा। हमारे कानून में विवाह ही एक वास्तविक दासता है। हर घर की मालकिन के सिवाय अब कोई कानूनी रूप से दास नहीं रहा। इसलिए, इस पक्ष पर प्रश्न पूछे जाने की सम्भावना नहीं है। हमें यह बताया जा सकता है कि बुराई अच्छाई पर भारी पड़ जायेगी, लेकिन अच्छाई की वास्तविकता पर कोई विवाद नहीं। वहाँ वृहद स्तर पर इस प्रश्न के सन्दर्भ में महिलाओं की वर्जना को हटाना, नागरिकता के हर पक्ष में पुरुषों से उनकी समानता, सभी सम्मानजनक रोजगारों को उनके लिये खोलना, उस शिक्षा व प्रशिक्षण के अवसर उनके लिये उपलब्ध कराना, जो उन्हें इन रोजगारों के योग्य बना सकें। ऐसे अनेक लोग हैं जिनके लिये यह काफी नहीं है कि असमानता का कोई न्यायसंगत बचाव नहीं होता। उन्हें यह बताने की जरूरत पड़ती है कि असमानता को हटाने के क्या फायदे होंगे। इसका पहला जवाब यह है कि इसका सबसे बड़ा फायदा मानव सम्बन्धों में सर्वाधिक शाश्वत सम्बन्ध का अन्याय की बजाय न्याय से नियमन है। मानव स्वभाव को इससे जो महान लाभ होगा उसको अन्य किसी प्रकार नहीं समझाया जा सकता। जो भी शब्दों के नैतिक अर्थ को महत्त्व देता है, वह सिर्फ इसी कथन से इसकी महत्ता समझ जायेगा। मानवजाति में जो भी स्वार्थ, आत्म-मुग्धता और आत्म-केन्द्रित होने की प्रवृत्ति व्याप्त है उसका स्रोत व पोषण स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की मौजूदा संरचना में ही निहित है। जरा सोचिये, कि एक ऐसा लड़का होना कैसा होता होगा, इस विश्वास के साथ वयस्क होना कि बिना किसी अपने गुण या प्रयत्न के, सिर्फ इस तथ्य की बिना पर कि वह पुरुष है, चाहे वह सबसे अज्ञानी और मर्ख व्यक्ति ही क्यों न हो. वह अपने जन्म के कारण ही परी आधी मानवजाति से श्रेष्ठ हो जाता है। जिनमें वे भी शामिल हैं जिनकी श्रेष्ठता वह रोज, हर घण्टे खुद महसूस कर सकता है। यदि वह अपने पूरे व्यवहार में आदतन एक महिला के निर्देशों का ही पालन करता है, फिर भी, अगर वह लड़का मूर्ख है, तो भी वह सोचता है कि वह सामर्थ्य व फैसला लेने की क्षमता में उसके बराबर नहीं है, न ही हो सकती है। और अगर वह मुर्ख नहीं है, तो वह और भी बुरा महसस करता है-वह यह देख लेता है कि वह स्त्री उससे श्रेष्ठ है और उसमें यह विश्वास बनता है कि उसकी श्रेष्ठता के बावजूद उसे आदेश देने का अधिकार है और स्त्री आदेश मानने को बाध्य है। इस पाठ का उसके व्यक्तित्व पर क्या प्रभाव पड़ता है? और शिक्षित वर्गों के पुरुष भी प्रायः इसके प्रति सचेत नहीं होते कि अधिकतर पुरुषों में यह बात कितनी गहरे पैठी होती है, क्योंकि भली प्रकार पोषित और उचित बातों को समझने वाले लोगों से असमानता जितना सम्भव हो उतनी दूर रखी जाती है : बच्चों से तो बहुत दूर । लड़कों द्वारा माँ के प्रति भी उतनी ही आज्ञाकारिता की अपेक्षा होती है जितना पिता के प्रति। उन्हें अपनी बहनों पर रोब जमाने की अनुमति नहीं दी जाती, न ही उन्हें यह देखने की आदत होती है, बल्कि इसके विपरीत, दुर्बल-भावना की क्षतिपूर्ति को प्रमुख बनाकर पराधीनता को पृष्ठभूमि में रखा जाता है। जिनका पालन-पोषण भलीभाँति और उचित रूप से होता है वे बाल्यावस्था में इस स्थिति के प्रभाव से बच जाते हैं और इसका अनुभव उन्हें तभी होता है, जब वे बड़े होकर तथ्यों से उसी प्रकार रू-ब-रू होते हैं जैसे वे वास्तव में हैं। ऐसे लोगों को इस बारे में जानकारी नहीं होती कि जब एक लड़के का पालन-पोषण अलग तरह से होता है तो ड़का से अपनी श्रेष्ठता का ख्याल उसके दिमाग में कब आता है : वह कैसे उसके साथ बढ़ता है और उसकी बढ़ती ताकत के साथ कैसे यह प्रबल होता जाता है; कैसे स्कूल के एक लड़के से यह दूसरे तक संचारित होता है; कितनी जल्दी एक युवक अपनी माँ से स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगता है, शायद उसकी सहिष्णुता के कारण, लेकिन सच्चा आदर नहीं; और इस सबसे ज्यादा, वह उस महिला पर कितनी सूक्ष्म व सुल्तान जैसी श्रेष्ठता का अनुभव करता है जिसे वह अपनी जीवनसंगिनी बनने का सम्मान प्रदान करता है। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि यह सब एक पुरुष के अस्तित्व को-एक व्यक्ति के रूप में और एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकृत नहीं करता? यह स्थिति उस स्थिति के ठीक समान्तर है जिसमें विरासत में मिले राजपद से ही राजा स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझने लगता है या एक कुलीन भी जन्मतः कुलीन होने के कारण खुद को श्रेष्ठ मानता है। पति व पत्नी के बीच का सम्बन्ध राजा व प्रजा के बीच सम्बन्ध के समान ही है, सिवाय इसके कि प्रजा की अपेक्षा एक पत्नी की आज्ञाकारिता अबाध व असीमित होती है। एक प्रजा का चरित्र अपनी अधीनता से बुरे या अच्छे के लिए कितना प्रभावित हो जाये, यह कौन देख सकता है कि मालिक का चरित्र (अपने शासक होने से) बुरे के लिए ही प्रभावित हुआ? क्या उसे यह विश्वास दिलाया गया कि उसकी प्रजा दरअसल उससे श्रेष्ठ है या यह महसूस कराया गया कि उसे अपने ही जैसे लोगों पर शासन करने के लिए उसके किसी गुण या श्रेष्ठता की वजह से नहीं रखा गया बल्कि, जैसा कि किगारो ने कहा है, महज जन्म लेने का कष्ट करने के कारण ही उसे यह कमान दी गयी है। एक राजा या एक सामन्त की आत्म-श्लाघा एक पुरुष जैसी ही होती है। इंसान बचपन से ही बिना उन्हें ओढ़े उन विशिष्टताओं के साथ नहीं पलता-बढ़ता, जो उसने खुद अर्जित नहीं की। जिन लोगों को यह विशेषाधिकार उनके अपने गुण के आधार पर नहीं मिला और वे स्वयं को इसके अयोग्य समझते हैं, और जिनमें यह भावना विनम्रता पैदा करती है-ऐसे लोग बहुत कम होते हैं और वही श्रेष्ठतम भी होते हैं। शेष केवल अभिमान द्वारा ही प्रेरित होते हैं, और यह सबसे खराब तरह का अभिमान होता है, जो अपनी उपलब्धि पर नहीं बल्कि संयोगवश मिले फायदे पर ही पोषित होता है। इस सबसे ज्यादा, जब पूरी स्त्री जाति से श्रेष्ठ होने की भावना उनमें से एक व्यक्ति के ऊपर पूर्ण सत्ता व नियन्त्रण की भावना से मिलती है तो यह स्थिति अगर विवेकी एवं प्रेमी व्यक्ति के लिए विवेकपूर्ण एवं प्रेमपूर्ण सहनशीलता की पाठशाला होती है, तो दूसरे प्रकार के लोगों के लिए उच्छृखल व रोबदाब में प्रशिक्षण पाने की अकादमी। यही अवगुण यदि अपने बराबर के पुरुषों के सम्बन्ध में विरोध होने की निश्चितता के कारण नियन्त्रित किये जाते हैं, तो उन सभी लोगों की तरफ फूट पड़ते हैं, जो इन्हें सहने को बाध्य हैं और प्रायः ऐसे पुरुष उस अनैच्छिक प्रतिबन्ध का बदला अपनी बदकिस्मत पलियों से लेते हैं, जिसके समक्ष उन्हें कहीं और घुटने टेकने पड़ते हैं। घरेलू जीवन की आधारशिला, एक ऐसे रिश्ते पर रख कर जो सामाजिक न्याय के पहले सिद्धान्त के ही विरुद्ध है, भावनाओं की जो शिक्षा दी जाती है उसका पुरुष स्वभाव पर इतना प्रबल दुष्प्रभाव पड़ता होगा कि अपने मौजूदा अनुभव के साथ अपनी कल्पना को उस अवधारणा तक ले जाना लगभग असम्भव है जिसमें इसको हटाने से आने वाले बेहतर परिवर्तन निहित हों। बल के नियम के चरित्र पर होने वाले प्रभावों को मिटाने के लिए और उसकी जगह न्याय के नियम को स्थापित करने के लिए शिक्षा व सभ्यता जो कुछ भी कर रही है, वह केवल सतही प्रयास है, जब तक कि शत्रु के किले पर हमला नहीं बोला जाता।

नीति व राजनीति में आधुनिक आन्दोलन का सिद्धान्त है कि चरित्र और केवल चरित्र ही सम्मान का अधिकारी है; कि मनुष्य इस आधार पर सम्मान का अधिकारी नहीं है कि वह क्या है, बल्कि इस आधार पर कि वह क्या करता है; कि जन्म नहीं बल्कि गुण का ही सत्ता व ताकत पर उचित अधिकार होता है। यदि एक व्यक्ति पर दूसरे की स्थायी सत्ता की इजाजत न हो, तो समाज एक हाथ से वे प्रवृत्तियाँ बनाने में व्यस्त न रहे जिन्हें दूसरे हाथ से रोकना पड़े। और तब पृथ्वी पर मानव अस्तित्व के लम्बे इतिहास में पहली बार एक बच्चे को वैसी ही शिक्षा दी जायेगी, जैसी दी जानी चाहिये और जब वह बड़ा हो जायेगा तो इस शिक्षा से भ्रष्ट होने का मौका भी नहीं मिलेगा। लेकिन जब तक ताकतवर द्वारा कमजोर पर राज करने का अधिकार समाज के केन्द्र में रहेगा तब तक कमजोर तबके को समान अधिकार दिलाना एक कठिन व दुस्तर प्रयास रहेगा, क्योंकि न्याय का नियम जो ईसाई धर्म का सिद्धान्त भी है, लोगों की अन्तरतम भावनाओं में घर नहीं करेगा। वे इसकी तरफ झुकते हुए भी इसके विरुद्ध काम करते रहेंगे। महिलाओं को उनकी क्षमताओं का मुक्त उपयोग करने, रोजगार के विकल्प खुले रखने और अन्य लोगों को उपलब्ध व्यावसायिक क्षेत्रों, पुरस्कारों व प्रोत्साहन को महिलाओं के लिए भी खोलने का दूसरा लाभ यह होगा कि मानवता की सेवा के लिए उपलब्ध मानसिक क्षमताएँ दुगनी हो जायेंगी। एक शिक्षक, या सार्वजनिक एवं सामाजिक क्षेत्र की किसी शाखा के प्रशासक के रूप में सामान्य सुधार को प्रोत्साहित करने के लिये अब जहाँ एक ही व्यक्ति मानवता को लाभान्वित करने हेतु योग्य होता है, वहीं तब ऐसे दो व्यक्ति होने की सम्भावना हो जायेगी। आज किसी भी प्रकार की मानसिक श्रेष्ठता माँग से इतनी कम उपलब्ध है; किसी भी ऐसी चीज को श्रेष्ठतापूर्वक करने वाले लोगों की इतनी कमी है, जिसमें कुछ योग्यता की आवश्यकता होती है कि लगभग आधी मानव जाति की योग्यताओं का उपयोग करने से इंकार करके दुनिया को गम्भीर नुकसान हो रहा है। यह सच है कि मानसिक क्षमता की इस राशि का पूरा-पूरा क्षय नहीं हुआ है। इसका बहुत सा भाग गृहस्थी की व्यवस्था में लगा हुआ है और लगा रहेगा। कुछ दूसरे व्यवसायों में भी, जो महिलाओं के लिए खुले हैं; और शेष मानसिक क्षमता से अनेक व्यक्तिगत मामलात में पुरुषों पर महिलाओं के प्रभाव से अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है। लेकिन यह लाभ आंशिक ही है; और उनकी रेंज बहुत सीमित है। एक तरफ यदि, मानव बुद्धि के आधे भाग को स्वतंत्रता देने से प्राप्त सामाजिक ताकत के रूप में उन्हें स्वीकार करना होगा तो दूसरी ओर प्रतियोगिता से पुरुषों की बुद्धि को जो प्रेरणा मिलेगी, उसके लाभ भी जोड़ने होंगे; या (अधिक स्पष्ट रूप से कहें तो) उन पर वरीयता प्राप्त करने से पहले उसकी योग्यता प्राप्त करने की आवश्यकता लागू होने से जो लाभ होंगे वे भी जोड़ने होंगे। मानवजाति की महान बौद्धिक ताकत तक और इसके मामलात के कुशल प्रबन्धन हेतु उपलब्ध बुद्धि तक पहुँच महिलाओं की अपेक्षाकृत अधिक पूर्ण बौद्धिक शिक्षा के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है, जो पुरुषों के साथ-साथ सुधरती जायेगी। सामान्यतः महिलाओं का पालन-पोषण इस तरह किया जायेगा कि वे भी अपने वर्ग के पुरुषों के समान ही कारोबार, सार्वजनिक मामलात व चिन्तन के उच्चतर विषयों को समझने में सक्षम हों। और स्त्री-पुरुष में से कुछ चुनिन्दा लोग, जो न सिर्फ यह समझ सकते हैं कि दूसरे लोगों द्वारा क्या किया अथवा सोचा जा रहा है बल्कि स्वयं भी कुछ विशेष करने के योग्य हों, उन्हें अपनी योग्यता को सुधारने व प्रशिक्षित करने की समान सुविधाएँ मिलेंगी। इस तरह, महिलाओं के कार्यक्षेत्र का विस्तार उनकी शिक्षा के स्तर को पुरुषों की शिक्षा जितना करने और पुरुषों में हुए विकास में महिलाओं की भागीदारी के माध्यम से सफलतापूर्वक हो जायेगा। लेकिन इससे अलग, सिर्फ बन्धन व सीमाओं को तोड़ने का ही उच्च शैक्षिक मूल्य होगा। सिर्फ इस ख्याल से ही मुक्ति कि विचार एवं कार्यों के सभी वृहद विषय, वे सभी चीजें जो सामान्य या व्यक्तिगत रुचि की हैं, सिर्फ पुरुषों के लिए ही हैं और महिलाओं को इनसे दूर रखना चाहिये-जिनमें से अधिकतर उनके लिये निषिद्ध है और जो उनके लिये खुली हैं, उनमें महिलाओं को प्रोत्साहित नहीं किया जाता, इस विचार से छुटकारा ही महिला को अन्य किसी भी इंसान की तरह बना देगा-उन सभी इंसानी चिन्ताओं में अपना प्रभाव डालने के काबिल, जो एक निजी मत से ताल्लुक रखती हैं चाहे वह उसमें वाकई हिस्सा ले या नहीं, और अपने कार्य को चुनने के योग्य भी, जो उसके सामने उसी अभिप्रेरण के साथ प्रस्तुत होंगे जिसके साथ वे अन्य इंसानों के समक्ष उन्हें रुचिकर लगने के उददेश्य से उपस्थित हैं-सिर्फ इसी से महिलाओं की क्षमताओं में बहत विकास होगा और उनकी नैतिक भावनाओं की रेंज का विस्तार भी। मानवीय मामलात के संचालन के लिए उपलब्ध व्यक्तिगत योग्यता में बढ़ोत्तरी के साथ ही, जो मौजूदा समय में इतनी मात्रा में उपलब्ध नहीं है कि प्रकृति द्वारा अर्पित सम्भावनाओं के आधे हिस्से का भी उचित इस्तेमाल कर सके, महिलाओं का विचार उस वक्त सामान्य मानवीय भावनाओं व आस्थाओं के लिए बहुत प्रभावशाली होने की अपेक्षा अधिक लाभप्रद सिद्ध होगा। 'बहुत प्रभावशाली होने की अपेक्षा लाभप्रद' मैंने इसलिए कहा क्योंकि सामान्यतः विचारों पर महिलाओं का प्रभाव प्राचीन समय से ही काफी रहा है। अपने पुत्रों के आरम्भिक चरित्र पर माता का प्रभाव और युवतियों के समक्ष स्वयं को प्रभावशाली दिखाने की युवकों की इच्छा हर युग व समय में चरित्र निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम रही है और कुछ स्थितियों में सभ्यता के विकास के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण कदमों का निधारिक तत्व भी। होमरिक युग में भी महान हेक्टर के कार्यों के पीछे यही एक प्रबल प्रेरणा रही थी। महिलाओं का नैतिक प्रभाव दो प्रकार से काम करता है। पहला तो, इसका प्रभाव बहुत कोमल रहा। जिन लोगों की हिंसा का शिकार होने की सम्भावना होती है, उन्होंने अपनी पूरी कोशिश की है कि वे हिंसा को सीमित व इसकी ज्यादतियों को कम कर सकें। जिन लोगों को युद्ध की शिक्षा नहीं दी गयी, जाहिर है उनका झुकाव किसी भी विवाद को युद्ध के अतिरिक्त अन्य तरीकों से सुलझाने की तरफ रहा। सामान्यतः जो लोग स्वार्थी उन्माद के अत्यधिक शिकार रहे हैं, वही ऐसे किसी भी नैतिक नियम के समर्थक रहे हैं जो इस भावना को नियन्त्रित करने का जरिया हो सके। उत्तरी विजेताओं को ईसाई धर्म अपनाने के लिए सर्वाधिक प्रेरणा महिलाओं ने ही दी क्योंकि इससे पहले का कोई धर्म महिलाओं के इतने अनुकूल नहीं रहा। एंग्लो-सैक्सन व फ्रैंक का धर्म-परिवर्तन, कहा जाता है कि ऐथलबर्ट और क्लोविस की पत्नियों द्वारा ही किया गया। एक दूसरे क्षेत्र में भी महिलाओं का मत महत्त्वपूर्ण रहा है-पुरुषों में उन गुणों को प्रोत्साहित करने में, जिनमें खुद उनका प्रशिक्षण नहीं हुआ था, इसलिए यह आवश्यक था कि वे अपने रक्षकों में उन गुणों को पोषित करें। साहस व सैन्य गुणों का श्रेय सामान्यतः पुरुषों में महिलाओं की प्रशंसा पाने की इच्छा को जाता है। इन प्रमुख गुणों के अतिरिक्त इस प्रेरणा का प्रभाव काफी आगे तक जाता है। उनकी स्थिति के स्वाभाविक प्रभाव के परिणामस्वरूप महिलाओं की प्रशंसा व चाहत को पुरुषों ने हमेशा काफी तवज्जो दी है। इस प्रकार, महिलाओं के इस दोहरे प्रभाव से पुरुषों में शौर्य की भावना पैदा हुई-जिसकी खासियत है उच्चस्तरीय लड़ाकू गुणों का एक बिल्कुल अलग प्रकार के गुणों से मिश्रण-यानी उदारता, कोमलता और आत्म-त्याग-सामान्यतः असहाय व असैन्य वर्गों के प्रति और महिलाओं के प्रति एक विशेष समर्पण एवं श्रद्धा। महिलाएँ अन्य असहाय वर्गों से इस अर्थ में भिन्न थीं कि वे अपनी प्रशंसा व प्रेम स्वेच्छा से उसको दे सकती थीं जो उनको जबरन अपने अधीन करने की बजाय उसे पाने का प्रयास करे। हालाँकि शौर्य के सिद्धान्त का स्तर बहुत ऊँचा था और व्यवहार में यह दुखद रूप से सिद्धान्त से कम मात्रा में ही लक्षित हुआ, जैसा कि सामान्यतः होता है-सिद्धान्त से व्यवहार कमतर ही होता है, लेकिन फिर भी यह गुण मानव जाति के नैतिक इतिहास के सबसे बहुमूल्य स्मारकों में से एक रहा है। यह एक सर्वाधिक अव्यवस्थित समाज का अपनी सामाजिक परिस्थितियों व प्रथाओं से आगे के एक नैतिक आदर्श को जारी रखने के समायोजित व व्यवस्थित प्रयास का अद्भुत उदाहरण रहा है। हालाँकि यह अपने मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति में पूर्णतः असफल रहा लेकिन कभी भी पूरी तरह प्रभावहीन नहीं रहा और आने वाले समय के विचारों व भावनाओं पर इस गुण ने सर्वाधिक विवेकशील छवि छोड़ी। शौर्य का आदर्श मानवजाति के नैतिक पोषण पर महिलाओं के प्रभाव का चरम रहा है और अगर महिलाओं को अधीनस्थ स्थिति में ही रहना है तो यह गहरे दुख का विषय है कि शौर्यता का गुण धीरे-धीरे लुप्त हो गया क्योंकि यही ऐसा तत्व था जो उस स्थिति के निरुत्साहित करने वाले प्रभावों को कम करने की सामर्थ्य रखता था। लेकिन मानवजाति की सामान्य स्थिति में आये परिवर्तन ने शौर्य के आदर्श की जगह एक बिल्कुल दूसरे आदर्श को अपरिहार्य बना दिया। शौर्य समाज की एक ऐसी अवस्था में नैतिक तत्वों को बढ़ावा देने का प्रयास था, जिसमें हर चीज व्यक्तिगत सामर्थ्य के निजी कोमलता व उदारता के प्रभाव में अच्छे या बुरे होने पर निर्भर करती थी। आधुनिक समाज में सभी चीजें, यहाँ तक कि युद्ध सम्बन्धी मामले भी व्यक्तिगत प्रयासों से नहीं वरन अनेक लोगों के मिले-जुले कार्य से निर्धारित होते हैं। नये जीवन की आवश्यकताओं के लिए भी उदारता के गुण उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितना कि प्राचीन समय में था लेकिन अब यह पूर्णतः इन्हीं पर निर्भर नहीं हैं। आधुनिक समय में नैतिक जीवन के मुख्य आधार निस्सन्देह न्याय व विवेक हैं; प्रत्येक में दूसरे के अधिकारों के प्रति सम्मान और हरेक में दूसरे की परवाह व देखभाल करने की क्षमता। पूरे समाज में जो भी अदण्डित व अनुचित व्याप्त था उसमें से शौर्य बिना किसी वैध नियन्त्रण के खत्म हो गया। प्रशंसा व चाहत को प्रोत्साहित करके शौर्य से केवल कुछ लोग ही गलत की अपेक्षा उचित कार्य करने के लिए प्रेरित होते थे। नैतिकता की असली निर्भरता उसके दण्ड विधान पर होनी चाहिये-बुराई को हटाने की इसकी ताकत पर। समाज की सुरक्षा सिर्फ उचित व सही को सम्मानित करने पर ही नहीं टिक सकती क्योंकि यह उद्देश्य कुछ स्थितियों को छोड़ कर प्रायः तुलनात्मक रूप से काफी कमजोर है और यह अनेक लोगों पर कारगर भी नहीं होता। आधुनिक समाज बुराई को जीवन के सभी क्षेत्रों में एक श्रेष्ठ दृढ़ता व ताकत के साथ दबाने में समर्थ है, जो सभ्यता ने उसे दी है। इस प्रकार समाज के कमजोर तबके (जो अब निस्सहाय नहीं बल्कि कानून द्वारा संरक्षित है) को उन लोगों की शौर्यता पर निर्भर नहीं रहना पड़ता जिनके पास उन पर अत्याचार करने को सत्ता है। एक शौर्यतापूर्ण चरित्र का सौन्दर्य व गरिमा पहले जैसी ही है लेकिन कमजोर लोगों के अधिकार व मानव जीवन की सामान्य सुविधाएँ अब अपेक्षाकृत एक अधिक निश्चित व ठोस सहारे पर आधारित हैं। या, कह सकते हैं कि वैवाहिक सम्बन्ध को छोड़कर जीवन के हर सम्बन्ध में यह स्थिति है। आज महिलाओं का नैतिक प्रभाव कम वास्तविक नहीं है लेकिन अब उसका स्वरूप उतना निश्चित नहीं है। यह लगभग सार्वजनिक मत के प्रभाव में विलीन हो गया है। सहानुभूति व महिलाओं की नजरों में चढ़ने की पुरुषों की इच्छा-दोनों के माध्यम से उनकी भावनाएँ शौर्य के आदर्श का जो कछ भी शेष है, उसे बचाये रखने में बड़ा योगदान देती हैं-भावनाओं और उदारता की परम्परा को पोषित कर। इन मुद्दों पर उनका स्तर पुरुषों से ऊँचा है लेकिन न्याय के सन्दर्भ में कुछ कम।

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