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नारी विमर्श >> स्त्रियों की पराधीनता

स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।



निजी जीवन में सम्बन्धों के सन्दर्भ में सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि कुल मिलाकर उनका प्रभाव कोमल गुणों को प्रोत्साहित करता है और कठोर को हतोत्साहित। हालांकि इस कथन का व्यक्तिगत चरित्र के हिसाब से किये गये बदलावों के साथ लेना चाहिये। जीवन के सभी क्षेत्रों की वहद कसौटी पर जहाँ मल्य व नैतिकता को परखा जाता है-हित व सिद्धान्त के बीच संघर्ष में महिलाओं के प्रभाव का स्वरूप बहुत मिला-जुला होता है; जबकि सम्बन्धित सिद्धान्त उन चन्द में से एक हो जो उनमें धार्मिक व नैतिक शिक्षा के जरिये पोषित किये जाते हैं, वे सद्गुणों के प्रबल सहायक होते हैं; और उनके पति व पुत्र प्रायः इन्हीं के कारण आत्म-त्याग के कार्यों के लिए उद्यत होते हैं जिनको अन्यथा वे बिना किसी प्रोत्साहन के कभी नहीं करते। लेकिन महिलाओं की मौजूदा शिक्षा व स्थिति में उनको सिखाये गये नैतिक सिद्धान्त आदर्शों के क्षेत्र का एक छोटा सा भाग होते हैं और मुख्यतः नकारात्मक होते हैं, जो कुछ कामों का निषेध करते हैं लेकिन विचारों व उद्देश्यों की सामान्य दिशा से उनका ज्यादा सम्बन्ध नहीं होता। मुझे डर है कि यह जरूर कहा जायेगा कि जीवन के सामान्य व्यवहार में तटस्थता-उन उद्देश्यों में अपनी ऊर्जा को लगाना जो परिवार के निजी फायदे से सम्बन्धित नहीं है-वह महिलाओं के प्रभाव द्वारा शायद ही प्रोत्साहित किया जाता है। यह उन पर एक छोटा सा दोष है कि वे उन बातों को हतोत्साहित करती हैं जिनका लाभ समझना उन्हें सिखाया ही नहीं गया और जो उनके पुरुषों को उनसे व उनके परिवार से अलग करती हैं। इसका परिणाम यह है कि महिलाओं का प्रभाव प्रायः सार्वजनिक आदर्श के अनकल नहीं माना जाता। बहरहाल, जब से उनका कार्यक्षेत्र थोड़ा विस्तृत हुआ है और जब से काफी संख्या में महिलाओं ने खुद को अपने परिवार व गृहस्थी से परे की चीजों को प्रोत्साहन देने में लगाया है, तब से सार्वजनिक नैतिकताओं को वे कुछ हद तक प्रभावित करने लगी हैं। आधुनिक यूरोपीय जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पक्षों पर महिलाओं का प्रभाव अहम रहा है-युद्ध के प्रति वितृष्णा व लोकोपकार के प्रति प्रेम। ये दोनों बहुत अच्छे लक्षण हैं लेकिन दुखद बात यह है कि अगर इन भावनाओं को सामान्यतः प्रोत्साहित करने में महिलाओं का प्रभाव बहुमूल्य रहा है, तो इन्हें दिशा देने के विशेष क्षेत्र में यह कम से कम उतना ही अनिष्टकारक भी रहा है जितना फायदेमन्द । लोकोपकार के क्षेत्र में महिलाओं द्वारा पोषित दो मुख्य भाग रहे हैं-धर्मप्रचार व दानशीलता। अपने देश में धर्मप्रचार धार्मिक विद्वेष को बढ़ाने का ही दूसरा नाम है; और विदेश में धर्म प्रचार प्रायः एक वस्तु के लिए इसके घातक अनिष्ट को जाने बगैर या उस पर ध्यान दिये बगैर एक अन्धी दौड़ होता है-यह धार्मिक उद्देश्य व अन्य वांछित उद्देश्यों के लिए भी घातक होता है-जो इसमें प्रयोग किये जाने वाले साधनों से ही पैदा हो सकता है। जहाँ तक दानशीलता का सवाल है तो यह एक ऐसा मामला है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित व्यक्ति और सामान्य कल्याण में इसके अन्तिम परिणाम-दोनों के बीच पूर्णतः विरोध रहने की सम्भावना होती है। जबकि जो शिक्षा महिलाओं को दी जाती है-समझ विकसित करने की अपेक्षा भावनाओं की शिक्षा और उनके पूरे जीवन द्वारा उनमें पोषित लोगों पर हो रहे फौरी प्रभाव को देखने और एक वर्ग के लोगों पर उसके दरगामी परिणाम को न समझने की आदत से न तो वे देख पाती हैं और न ही यह स्वीकार करती हैं कि दान या परोपकार की जो सहानुभूतिपूर्ण भावना उन्हें उचित लगती है, वह अन्ततः एक बुरी प्रवृत्ति है। अशिक्षित और अदूरदर्शी उदारता का निरन्तर बढ़ता समूह, जो लोगों की देखभाल को अपने हाथ में लेकर और उनके अपने कार्यों के परिणाम से उन्हें छुटकारा देकर आत्म-सम्मान, आत्म-सहायता व आत्म-नियन्त्रण के उस आधार को ही दुर्बल बना देता है जो निजी समृद्धि और सामाजिक सदाचार की आवश्यक शर्ते हैं-उदार भावनाओं और संसाधनों का यह व्यर्थ व्यय महिलाओं के योगदान से तुरन्त बढ़ जाता है और उनके प्रभाव द्वारा प्रोत्साहित भी होता है। ऐसा नहीं है कि यह गलती महिलाओं से नहीं होगी, जहाँ उनके हाथ में परोपकारी योजनाओं का व्यावहारिक प्रबन्धन होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो महिलाएँ सार्वजनिक दान संस्थाओं को सम्भालती हैं-मौजूदा तथ्य को समझते हुए और उन लोगों के मन व भावनाओं की समझ रखते हुए भी जिनके सीधे सम्पर्क में वे रहती हैं-जिसमें सामान्यतः महिलाएँ पुरुषों से बेहतर होती हैं-तब वे दिये गये दान अथवा सहायता के भ्रष्ट करने वाले प्रभाव को स्पष्ट समझती हैं और इस विषय पर अनेक राजनीतिक अर्थशास्त्रियों को सीख भी दे सकती हैं। लेकिन वे महिलाएँ जो केवल पैसा देती हैं और इसके प्रभाव से रूबरू नहीं हो पातीं, तो उनसे यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि वे इन प्रभावों का पूर्वानुमान लगा लेंगी? एक महिला को, जो महिलाओं की मौजूदा स्थिति में जन्मी है और इससे सन्तुष्ट है, वह आत्मनिर्भरता सिखाई नहीं जाती-हर चीज दूसरों से लेना ही उसकी नियति है तो जो चीज उसके लिये अच्छी है वह गरीबों के लिए बुरी कैसे हो सकती है? अच्छाई से उसका आशय उससे श्रेष्ठ व्यक्ति द्वारा उसे प्रदान की गयी सुविधा है। वह भूल जाती है कि वह आजाद नहीं है और यह कि निर्धन लोग आजाद हैं : कि अगर उन्हें उनकी जरूरत की चीज बिना उनके श्रम किये दे दी जाये तो उन्हें उसे कमाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता; कि हरेक की देखभाल नहीं की जा सकती लेकिन लोग-खुद अपनी देखभाल करें-इसके लिये कोई न कोई प्रेरणा होनी चाहिये कि उन्हें स्वयं अपनी सहायता करने के लिए मदद देना, यदि वे शारीरिक रूप से इसके लिए समर्थ हैं, यही अन्त में असली दान होता है। ये बातें दर्शाती हैं कि महिलाएँ सामान्य विचार की रचना में जो उपयोगी भाग लेती हैं, और जिन चीजों को उनका विचार प्रभावित करता है उनका व्यावहारिक ज्ञान उनके राजनीतिक व सामाजिक उद्धार के माध्यम से वृहद कल्याण हेतु बेहतर बनाया जा सकता है। लेकिन प्रत्येक महिला अपने परिवार पर जो प्रभाव रखती है, उसमें सुधार और भी दर्शनीय होगा। ऐसा प्रायः कहा जाता है कि जो वर्ग प्रलोभन के गर्त में अधिक सरलता से गिर सकते हैं, उनमें एक पुरुष की पत्नी व बच्चे उसे ईमानदार व सम्माननीय बनाये रखते हैं। ऐसा पत्नी के प्रत्यक्ष प्रभाव और उसके हृदय में उनके भविष्य के प्रति चिन्ता के कारण होता है। ऐसा उन लोगों के साथ हो सकता है और बेशक होता है जो दुष्ट होने की अपेक्षा कमजोर होते हैं। यह लाभप्रद प्रभाव समान कानूनों के तहत संरक्षित रहेगा और दृढ़ भी बनेगा; यह स्त्रियों की अधीनता पर निर्भर नहीं करता, बल्कि ठीक इसके विपरीत, उस तिरस्कार से घट जाता है जो निम्न वर्ग के पुरुष प्रायः उन लोगों के प्रति महसूस करते हैं जो उनकी सत्ता के अधीन हैं। लेकिन ज्यों-ज्यों स्तर आगे बढ़ता है, हम बिल्कुल अलग किस्म के प्रेरक बलों को सामने पाते हैं। जहाँ तक सम्भव होता है, पत्नी का प्रभाव पति को उन स्तरों से नीचे गिरने से रोकता है जिसे उस देश में स्वीकृति मिली हुई है। लेकिन यह साथ ही उसे इस स्तर से ऊपर उठने से भी रोकता है। पत्नी सामान्य सार्वजनिक मत का पूरक होती है। एक पुरुष जिसका विवाह बुद्धि में उससे कम महिला से होता है, उसे वह एक बोझ पाता है या उससे भी बुरा, सार्वजनिक मत में वह जो है, उससे बेहतर बनने की उसकी हर आकांक्षा में वह अपनी पत्नी को बाधा मानता है। इस तरह के बन्धन में जो व्यक्ति है उसके लिये एक उदात्त सदाचार प्राप्त करना लगभग असम्भव है। यदि समूह से उसका मत भिन्न है-यदि वह उस सत्य को देख लेता है जिसका उन्हें आभास नहीं हुआ है, या अगर उनके द्वारा मान्यता प्राप्त सत्यों को दिल से महसूस करते हुए, वह उन सत्यों पर उतनी कर्तव्यनिष्ठा से चलना चाहता है जितना कि सामान्यतः मानव जाति नहीं चलती-इन सभी विचारों व इच्छाओं के लिए विवाह सबसे बड़ी कमजोरी है, जब तक कि वह इतना खुशकिस्मत न हो कि उसकी पत्नी का बौद्धिक स्तर उसी की तरह सामान्य स्तर से कहीं ऊँचा हो। क्योंकि, पहले तो, हमेशा निजी हित के त्याग की आवश्यकता होती है; या तो सामाजिक पक्ष के या आर्थिक पक्ष के हित की या कई बार जीवन निर्वाह के साधनों को भी जोखिम में डालना होता है। यह त्याग वह स्वयं तो कर सकता है लेकिन अपने परिवार पर भी इनका बोझ डालने से पर्व वह ठिठकेगा। इस स्थिति में उसके परिवार से आशय उसकी पत्नी व पुत्रियों से है, क्योंकि उसकी हमेशा उम्मीद रहती है कि उसके पुत्र वही महसूस करेंगे जो वह महसूस करता है और जिन चीजों के बगैर वह काम चला सकता है, उनके बगैर वे भी काम चला सकते हैं। लेकिन उसकी बेटियाँ-उनका विवाह उस पर निर्भर कर सकता है; और उसकी पत्नी जो उन विषयों व उद्देश्यों को समझने में असमर्थ है जिनके लिये यह त्याग किये जा रहे हैं, जो अगर यह सोचती है कि यह उद्देश्य किसी त्याग के योग्य है, तो वह ऐसा केवल अपने पति के लिए और उस पर अपने भरोसे के लिए करेगी और जो पति के किसी भी उत्साह व आत्म-अनुमोदन में भाग नहीं ले सकती, जबकि वे चीजें जिनका वह त्याग करना चाहता है उसके लिये बहुत अहम हैं; क्या सर्वश्रेष्ठ और सबसे स्वार्थहीन पुरुष उसको ऐसी स्थिति में लाने से पहले लम्बे समय तक सकुचायेगा नहीं? यदि दाँव पर जीवन की सुविधाएँ नहीं बल्कि सिर्फ सामाजिक लिहाज ही लगा हो, तब भी यह बोझ उस पर काफी होता है। जिसकी भी एक पत्नी और बच्चे हैं वह श्रीमती ग्रण्डी के बन्धक के समान हो जाता है। उस अधिपति की मंजूरी के प्रति पति चाहे तटस्थ हो लेकिन पत्नी के लिए यह बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। एक पुरुष किसी मत से ऊपर हो सकता है या उन लोगों के विचारों में क्षतिपूर्ति कर सकता है, जो उसी की तरह सोचते हैं। लेकिन जो महिलाएँ उससे सम्बन्धित हैं, उनके लिये वह कोई क्षतिपूर्ति प्रस्तुत नहीं कर सकता। सामाजिक लिहाज के समकक्ष ही अपने प्रभाव को रखना लगभग बिना किसी अपवाद के पत्नी की प्रवृत्ति होती है और कभी-कभी महिलाओं पर इसका दोष भी लगाया जाता है और इस प्रवृत्ति को उनके चरित्र की दुर्बलता व बचकानेपन का लक्षण माना जाता है; निस्सन्देह यह बहुत अन्यायपूर्ण है। समाज एक महिला के पूरे जीवन को, एक निरन्तर आत्म-बलिदान की प्रक्रिया बना देता है, विशेषकर निम्न वर्गों में।

समाज उसकी सभी सहज प्रवृत्तियों पर निरन्तर प्रतिबन्ध लगाता है और उसकी इस शहादत के बदले समाज उसे केवल सम्मान प्रदान करता है। उसका सम्मान आवश्यक रूप से उसके पति के साथ जुड़ा होता है और इसकी पूरी कीमत चुकाने के बाद, वह पाती है कि उसे वह लिहाज व सम्मान खो देना है बिना ऐसी किसी वजह के, जो उसके अनुसार बहुत महत्त्वपूर्ण हो। उसने अपना पूरा जीवन इसके लिये बलिदान कर दिया पर उसका पति उसके लिये अपनी एक सनक, एक अमूर्त विचार का भी त्याग नहीं करेगा; एक ऐसी चीज जिसे दुनिया की मान्यता भी नहीं प्राप्त है और जिसे गलत समझने में दुनिया उससे सहमत होगी, अगर वह उससे बदतर नहीं सोचती है तो! यह दुविधा उन योग्य पुरुषों पर सर्वाधिक कठिन होती है, जिनके पास अपने विचार से सहमत लोगों में प्रतिष्ठा हासिल करने की योग्यता नहीं है, फिर भी वे अपने विचार पर दृढ़ रहते हैं और उसी विचार के पालन से अपनी प्रतिष्ठा व ईमान के साथ बँधे होते हैं, अपनी आस्था को ही व्यवसाय बना कर उसके लिये अपना समय, श्रम व साधन जुटाते हैं। इसमें सबसे बुरी स्थिति तब होती है जब कि ऐसे पुरुष उस वर्ग व श्रेणी के हों, जो उन्हें न तो उन्हें सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले समाज से बाहर रखती है न ही उसमें शामिल; इस सर्वश्रेष्ठ समाज में उनका प्रवेश इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्तिगत तौर पर उनके बारे में क्या सोचा जाता है और उनका पालन-पोषण व आदतें कितनी भी विशिष्ट क्यों न हों, जब उनकी पहचान उन विचारों व सार्वजनिक आचरण से जुड़ जाती है जो समाज को स्वरूप देने वाले लोगों के लिए अस्वीकार्य है-तो यह तथ्य ही उन्हें (सर्वश्रेष्ठ समाज) से बाहर रखने के लिए पर्याप्त होता है। बहुत सी महिलाएँ यह सोच कर खुश होती हैं (गलती से दस में से नौ बार) कि उसे व उसके पति को अपने पड़ोस की उच्चतम सोसायटी में रहने से कोई नहीं रोक सकता-उस समाज में जहाँ उसके परिचित और उसी वर्ग के लोग मुक्त रूप से विचरण करते हैं लेकिन दुर्भाग्य से उसका पति सामाजिक असन्तोष के विचार रखता है और निम्न उग्रपरिवर्तनवादी राजनीति में सक्रिय होने के लिए विख्यात है। वह सोचती है कि यही वजह है जॉर्ज को कमीशन या कोई पद नहीं मिल पाया, या कैरोलीन को एक बढ़िया वर नहीं मिला और जिसके कारण उसे व उसके पति को वे निमन्त्रण और शायद वे सम्मान प्राप्त नहीं हो पाते जिनके लिये वे भी अन्य लोगों की तरह योग्य हैं। हर घर में इस प्रकार का प्रभाव या तो सक्रिय रूप से कारगर होता है या फिर चूँकि उस पर इतना जोर नहीं दिया जाता इसलिए वह और भी प्रबल हो जाता है-ऐसी स्थिति में इसमें क्या हैरानी है कि सामान्यतः लोग सम्मान योग्य सामान्य योग्यता में ही फंसे रहते हैं जो आधुनिक समय का एक खास लक्षण बन गयी है?

और यह बहुत हानिकारक पक्ष है जिसमें प्रत्यक्ष रूप से महिलाओं की अक्षमता नहीं बल्कि वह गहरी खाई जो यह अक्षमता महिलाओं की शिक्षा व चरित्र तथा पुरुषों की शिक्षा व चरित्र के बीच बना देती है-उस पर ध्यान देना आवश्यक है। वैवाहिक जीवन के आदर्श में विचारों व प्रवृत्तियों की जो एकता मानी जाती है, उसके प्रतिकूल इससे अधिक और कुछ नहीं है।

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