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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।


यह पुस्तक और स्त्री-मुक्ति के बारे में जॉन स्टुअर्ट मिल के विचार



मिल ने अठारह वर्ष की आयु में स्त्री-अधिकारों के प्रश्न पर अपना पहला निबन्ध लिखा था। अन्य कारणों के साथ ही, इसके पीछे शायद उनके किशोर मन-मस्तिष्क पर पड़ा वह प्रभाव भी था, जो चौदह वर्ष की आयु में काल्पनिक समाजवादी विचारक सैंत-सीमोन ने डाला था जब 1820 में फ्रांस-यात्रा के दौरान वे उनसे मिले थे।

चौबीस वर्ष की आयु में मिल की मित्रता श्रीमती हैरियट टेलर से हुई। श्रीमती हैरियट टेलर मिल से एक वर्ष छोटी थीं। उनकी प्रतिभा, योग्यता, रचनाशीलता और सौन्दर्य ने मिल के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अपनी धारणाओं-अवधारणाओं के निर्माण में उन्हें हैरियट से काफी मदद मिली। हैरियट के जीवन और विचारों ने मिल की इस धारणा को मजबूत बनाया कि स्त्रियाँ बौद्धिक क्षमता में पुरुषों से कदापि पीछे नहीं हैं और यह उनकी सामाजिक पराधीनता ही है जो उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व और सर्जनात्मकता को कुचलकर रख देती है। हैरियट के साथ मिल का भावनात्मक जुड़ाव और बौद्धिक साझेदारी न सिर्फ बनी रही, बल्कि लगातार बढ़ती चली गयी। 1849 में हैरियट के पति जॉन टेलर की मृत्यु हो गयी। 1851 में 46 वर्ष की उम्र में मिल ने हैरियट से शादी की। कहा जा सकता है कि विचारक मिल ने जितनी प्रखरता से स्त्री-प्रश्न पर सोचा, उससे भी कहीं अधिक गहराई से, एक सच्चे प्रेमी की तरह एकनिष्ठ जुड़ाव, आत्मत्याग और उच्च नैतिक आदर्शों के साथ प्यार भी किया। महज सात वर्षों के ही वैवाहिक जीवन के बाद 1858 में हैरियट की मृत्यु हो गयी। 1861 में लिखी गयी इस पुस्तक 'स्त्रियों की पराधीनता' को स्त्री-प्रश्न पर केन्द्रित ऐतिहासिक रचना की ख्याति तो बाद में मिली. मिल ने जब इसे लिखा था तो स्त्री-मक्ति के लक्ष्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति के साथ ही यह अपनी जीवन-संगिनी के प्यार की अमिट स्मृतियों का एक स्मारक भी था।

स्त्रियों की पराधीनता पुस्तक में मिल पुरुष-वर्चस्ववाद की स्वीकार्यता के आधार के तौर पर काम करने वाली सभी प्रस्तरीकृत मान्यताओं-संस्कारों-रूढ़ियों को, और स्थापित कानूनों को तर्कों के जरिये प्रश्नचिह्नों के कठघरे में खड़ा करते हैं। निजी सम्पत्ति और असमानतापूर्ण वर्गीय संरचना के इतिहास के साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ पाने के बावजूद, मिल ने परिवार और विवाह की संस्थाओं के स्त्री-उत्पीड़क, अनैतिक चरित्र के ऊपर से रागात्मकता के आवरण को नोंच फेंका है और उन नैतिक मान्यताओं की पवित्रता का रंग-रोगन भी खुरच डाला है जो सिर्फ स्त्रियों से ही समस्त एकनिष्ठता, सेवा और समर्पण की माँग करती हैं और पुरुषों को उड़ने के लिए लीला-विलास का अनन्त आकाश मुहैया कराती हैं।

परुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता-प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है। स्त्री-पुरुष समानता के विरोध में जो उपादान काम करते हैं, उनमें मिल प्रचलित भावनाओं को प्रमुख स्थान देते हुए उनके विरुद्ध तर्क करते हैं। वे बताते हैं कि (उन्नीसवीं शताब्दी में) समाज में आमतौर पर लोग स्वतंत्रता और न्याय की तर्कबुद्धिसंगत अवधारणाओं को आत्मसात कर चुके हैं लेकिन स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के सन्दर्भ में उनकी यह धारणा है कि शासन करने, निर्णय लेने और आदेश देने की स्वाभाविक क्षमता पुरुष में ही है।

इसका एक कारण मिल यह मानते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के 'तर्कबुद्धिसंगति के राज्य' के विपरीत उन्नीसवीं शताब्दी में 'नैसर्गिक मूल मानवीय प्रवृत्तियों' पर जोर देने की एक अतिरेकी परिणति यह हुई कि हम अपनी खामियों कमजोरियों को भी 'प्रकृति की इच्छा' या 'ईश्वर का आदेश' मानकर सहज-स्वाभाविक मान लेते हैं। समाज के कायदे-कानन अनभव के आधार पर अपनाये जाते हैं। और ऐसा कभी नहीं रहा कि पुरुष सत्ता और स्त्री सत्ता दोनों के तुलनात्मक अनुभव के बाद पुरुष-वर्चस्व के नियम-कायदे बने हों यानी स्त्री-अधीनस्थता की समूची सामाजिक व्यवस्था एकांगी अनुभव व सिद्धान्त पर आधारित है।

परिवार, निजी सम्पत्ति, शत्रुक्त वर्ग-सम्बन्धों वाली सामाजिक संरचनाओं और राज्यसत्ता के उद्भव और विकास के इतिहास के एक 'फ्रेमवर्क' के अभाव में, मिल की यह मान्यता है कि मानव समाज के प्रारम्भिक दौरों में पुरुषों द्वारा दी गयी महत्ता और अपनी शारीरिक दुर्बलता के चलते स्त्रियाँ स्वतः पुरुषों के अधीन हो गईं और उनकी यह अधीनस्थता कालान्तर में विधिसम्मत हो गयी क्योंकि कानून और राज्य तंत्र के नियम मौजूदा वस्तुगत यथार्थ को ही संहिताबद्ध करने का काम करते हैं तथा व्यक्तियों के बीच मौजूद सम्बन्धों पर आधारित होते हैं। आगे चलकर, ये ही नियम-कानून स्त्रियों पर बलात् शासन के उपकरण बन गये।

मिल के अनुसार, प्राचीन काल में बहुत से स्त्री-पुरुष दास थे। फिर दास-प्रथा के औचित्य पर प्रश्न उठने लगे और धीरे-धीरे यह प्रथा समाप्त हो गयी लेकिन स्त्रियों की दासता धीरे-धीरे एक किस्म की निर्भरता में तब्दील हो गयी। मिल स्त्री की निर्भरता को पुरातन दासता की ही निरन्तरता मानते हैं जिस पर तमाम सुधारों के रंग-रोगन के बाद भी पुरानी निर्दयता के चिह्न अभी मौजूद हैं और आज भी स्त्री-पुरुष असमानता के मूल में 'ताकत' का वही आदिम नियम है जिसके तहत ताकतवर सब कुछ हथिया लेता है।

पूँजीवादी जनवाद के प्रति अपनी निष्कपट आस्था के चलते मिल प्रतीतिगत यथार्थ से दिग्भ्रमित होकर अपने समय के बारे में यह मान्यता प्रस्तुत करते हैं कि 'ताकत' का नियम मानवीय सम्बन्धों और प्रायः राष्ट्रों के बीच के सम्बन्धों के बीच भी अब काम नहीं करता, बल पर आधारित शासन का दौर अब समाप्त हो चुका है, लेकिन सदियों पुराने इतिहास की जड़ता की शक्ति के सहारे बल पर आधारित सामाजिक संस्थाएँ टिकी हुई हैं और लोगों में यह भ्रान्त धारणा पैठ गयी है कि मानव समाज के अनुकूल और समाज के हित में होना इनके बने रहने का मुख्य कारण है। मिल मानव सभ्यता के इतिहास के हवाले से बताते हैं कि धार्मिक-सामाजिक-व्यक्तिगत स्तर पर सत्ता का खेल प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में युगों से सतत जारी है, हालाँकि इसका स्वरूप बदल चुका है। जीवन के अन्य क्षेत्रों में कोई गुट प्रतिद्वन्द्वी से संघर्ष करके सत्ता हासिल करता है, जबकि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पुरुष को-और सभी वर्गों के पुरुष को, यह सत्ता स्वतः हासिल हो जाती है।

मिल के अनुसार, परिवार की संरचना ऐसी होती है कि जिसके पास ताकत है, उसे न केवल विरोधी स्वर को दबाने तथा चौकसी बरतने की तमाम सुविधाएँ हासिल होती हैं बल्कि 'प्रजा' को अपने 'शासक' से अन्तरंग सम्बन्ध रखना होता है, हर कीमत पर परिवार के मुखिया को प्रसन्न रखना होता है और उसकी नाराजगी से बचना होता है। अन्य सामाजिक-राजनीतिक दायरों से अलग यहाँ 'पराधीन उत्पीडितों' के पास 'शासक' के विरुद्ध एकजुट होने या उस पर दबाव बनाने का कोई रास्ता नहीं होता। ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जबरन एवं विशेषाधिकारप्राप्त पराधीनता की यह व्यवस्था, अपने तमाम रागात्मक-मानवीय आवरण और स्वाभाविकता की प्रतीति के बावजूद, वस्तुतः अधीनस्थ स्त्रियों को अन्य किसी भी व्यवस्था की अपेक्षा सर्वाधिक सख्ती से रखती है और इसमें निश्चित तौर पर अन्य अन्यायी सत्ता-व्यवस्थाओं की तुलना में टिके रहने की अधिक क्षमता है।

पुरुष-वर्चस्व को स्वाभाविक और प्रकृति के नियमों के अनुरूप मानने वालों से मिल का प्रश्न है कि क्या कभी ऐसा कोई शासक भी रहा है जिसे अपनी सत्ता अनौचित्यपूर्ण और अस्वाभाविक लगी हो? स्त्रियों पर पुरुषों का प्रभुत्व प्रत्यक्षतः बल पर आधारित नहीं प्रतीत होता और इस प्रभुत्व को स्त्रियाँ स्वतः स्वीकारती रही हैं। लेकिन मिल अपने समय के इस तथ्य की ओर इंगित करते हैं कि शिक्षा और अधिकार-सजगता बढ़ने के साथ ही, यूरोप, अमेरिका और रूस तक की स्त्रियाँ पुरुष-प्रभुत्व के दुरुपयोग के विरुद्ध आवाज उठाने लगी हैं, हालाँकि अभी भी ज्यादातर स्त्रियाँ न तो पति के अत्याचारों की शिकायत करती हैं, न ही अपनी सुरक्षा के लिए बनाये गये कानूनों के इस्तेमाल का साहस ही जुटा पाती हैं। मिल की यह धारणा आज भी सर्वथा प्रासंगिक है कि सामाजिक परिवेश ऐसा नहीं है कि स्त्रियाँ पुरुष-अत्याचार के विरुद्ध मुखर हो सकें। साथ ही, बचपन से ही समर्पण, निर्भरता, त्यागपूर्ण प्रेम और वफादारी के आदर्शों व नैतिक शिक्षाओं से उनकी सोच को अनुकूलित करके उन्हें दिमागी गुलाम बनाने का पूरा प्रयास किया गया है। अन्य उत्पीडित समुदायों से उनकी स्थिति इस मायने में भी भिन्न है कि उनका 'मालिक' उनसे सिर्फ उनकी सेवाएँ और सम्पूर्ण आज्ञाकारिता ही नहीं बल्कि उनकी संवेदनाएँ और भावनाएँ भी चाहता है, वह उनसे सिर्फ गुलाम होने की नहीं बल्कि एक प्रिय गुलाम होने की अपेक्षा रखता है। यह भी पुरुषों का स्वार्थ ही है कि उन्होंने स्त्रियों के सामने विनम्रता, पूर्ण समर्पण और व्यक्तिगत इच्छा के हनन को यौन-आकर्षण के अभिन्न अंग के रूप में रखा ताकि मनोवैज्ञानिक रूप से स्त्रियाँ इतनी समर्पित हो जायें कि यौनिक स्वेच्छा और स्वतंत्रता के बारे में सोच भी न सकें और उन्हें अपनी पराधीनता में ही सुख अनुभव हो।

मिल का विचार था कि आधुनिक दुनिया प्राचीन दुनिया से इस मायने में भिन्न है कि अब मनुष्य जन्म से नहीं बल्कि अपनी योग्यताओं से समाज में स्थान बनाता है (हालाँकि मिल का यह पर्यवेक्षण प्राचीन दुनिया से तुलना के सन्दर्भ में सापेक्षतः ही सही है, यह आंशिक और सतही सच है। सच यह है कि उन्नततम पूँजीवादी जनवाद में भी योग्यता का उत्तोलक पूँजी की ताकत ही होती है, लेकिन अकेली स्त्रियाँ इसका अपवाद हैं, जिन्हें महज स्त्री के रूप में पैदा होने के चलते विशिष्ट काम सौंप दिये जाते हैं और जिन्हें अपनी योग्यता के आधार पर अपना कार्यक्षेत्र चुनने या समाज में स्थान बनाने का अवसर नहीं मिलता। प्रायः महिलाओं की अधीनस्थ स्थिति के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि उनका स्वभाव ही 'घरेल' होता है और राजनीति और जनकल्याण के बजाय उनकी क्षमता और रुचि खाना पकाने और घर सँभालने में होती है। मिल इसका प्रतिवाद करते हुए बताते हैं कि स्त्री-स्वभाव की यह धारणा गढ़ी हुई है जो कुछ अर्थों में बलात् दमन और कुछ अर्थों में अस्वाभाविक प्रोत्साहन का परिणाम है। वास्तविकता यह है कि विविध सामाजिक क्षेत्रों में स्त्रियों की रुचि और क्षमता को कभी परखा ही नहीं गया है; पीढ़ी-दर-पीढ़ी घरेलू कामों के लिए ही उन्हें तैयार किया गया है और बाहरी क्षेत्रों में रुचि तक के विरुद्ध तमाम सामाजिक-सांस्कारिक वर्जनाएँ आरोपित करके उनकी चेतना को अनुकूलित कर दिया गया है। सच तो यह है कि परुष अपने परिवार की स्त्री तक के चरित्र और स्वभाव को तो जान सकता है, पर उसकी योग्यता को नहीं। स्त्रियाँ अपने 'मालिक' से वफादारी और सेवा का रिश्ता निभाते हुए भी अपने बारे में कभी नहीं खुलतीं।

साथ ही, मिल अपने समय में आये इस परिवर्तन पर भी गौर करते हैं कि साहित्य के क्षेत्र में स्त्रियाँ मुखर होकर अपने को प्रकट कर रही हैं। साथ ही वे इस बात पर असन्तोष भी प्रकट करते हैं कि अपने खास ढंग के लालन-पालन के कारण वे सीमित नजरिया ही पेश कर पा रही हैं।

स्त्रियों को मताधिकार का तर्क मिल इसी बुनियादी स्थापना से निगमित करते हैं कि पुरुष चूँकि स्त्रियों के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते हैं, इसलिए वे स्त्रियों की योग्यता या कार्यों को निर्धारित करने वाले कानून बना ही नहीं सकते। जरूरी है कि स्त्रियों को अपने कार्य के चुनाव की स्वतंत्रता दी जाये। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक विवाह के अतिरिक्त अन्य सभी विकल्पों के दरवाजे उनके लिये बन्द ही रहेंगे।

मिल यूरोप के इतिहास के उस दौर का हवाला देते हैं जब स्त्रियाँ पिता द्वारा पति के हाथों बेची जाती थीं। बाद में चर्च द्वारा इस स्थिति में सुधार' के बाद भी वास्तविकता यही है कि उसे पाल-पोस कर तैयार किया जाता है-यानी किसी पुरुष का घर सँभालने और सन्तानोत्पादन के लिये। उस घर में भी कानूनी तौर पर उसके कोई अधिकार नहीं होते। जो कुछ उसका होता है वह पति का होता है, लेकिन जो भी पति का होता है, वह सब कुछ उसका नहीं होता। बच्चे भी कानूनन पति के ही होते हैं। सारा जीवन वह एक ऐसे 'मालिक' की गुलाम होती है, जिसे बदलने तक का उसे हक नहीं होता। उसे अपनी पराधीनता का चुनाव करने तक की स्वतंत्रता भी हासिल नहीं होती। मिल दो-टूक शब्दों में बताते हैं कि जिस परिवार को सहानुभूति, कोमलता और 'स्व' की प्रेमपूर्ण विस्मृति की पाठशाला कहा जाता है, वह वास्तव में परिवार के मुखिया के लिए दुराग्रह, आत्ममुग्धता और स्वार्थ की पाठशाला होता है जिसमें मुखिया के छोटे-छोटे सुखों के लिए पत्नी और बच्चों को अपने सुखों का बलिदान करना होता है।

स्त्रियों में आत्मबलिदान के जिस विशिष्ट गुण का बहुत बखान किया जाता है, मिल उसे कृत्रिम और विवशताजन्य मानते हैं। उनका विचार है कि स्त्रियों को यदि बराबरी का हक मिल जाये तो इस "स्त्रियोचित" गुण में कमी आ सकती है। उनका विश्वास है कि स्त्री-पुरुष के बीच कानूनी समानता न केवल दोनों के लिए न्यायपूर्ण और सुखद होगी, बल्कि मनुष्य के दैनिक जीवन को अधिक नैतिक भी बनायेगी और केवल तभी परिवार सत्ता और आज्ञाकारिता के केन्द्र के बजाय स्वतंत्रता के गुणों का एहसास कराने वाली सामाजिक संस्था में रूपान्तरित हो सकता है। मजबूरी की, नकली आज्ञाकारिता के दबाव से स्त्री तभी मुक्त हो सकती है जब सम्पत्ति पर उसका वास्तव में समान अधिकार हो। इस आम स्थापना से आगे मिल ऐसी कानूनी तफसीलों की व्यावहारिक चर्चा भी करते हैं। सम्पत्ति पर समान अधिकार के साथ ही मिल स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता पर भी विशेष जोर देते हैं और इसे उसकी गरिमा और सम्मान को कायम रखने के लिए जरूरी बताते हैं। मिल तमाम लाभप्रद व्यवसायों और बौद्धिक कार्यों से स्त्रियों के पार्थक्य को असंगत और अन्यायपूर्ण बताते हुए स्त्रियों की योग्यता विषयक तमाम पूर्वग्रहों का तर्कपूर्ण खण्डन करते हैं। उनका मूल तर्क यह है कि स्त्रियों को समाज अपनी योग्यता विकसित करने का अवसर ही नहीं देता रहा है। स्त्रियों की मूर्खता, कामुकता या "ठण्डापन" और चंचलता आदि के बारे में भी अलग-अलग देशों में व्याप्त पूर्वग्रही धारणाओं की वे चर्चा करते हैं। नैतिकता के मामले में भी पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के श्रेष्ठ होने की धारणा के बारे में मिल का कहना है कि अधीनता गुलामों को अपेक्षाकृत कम भ्रष्ट बनाती है।

मिल सदियों पुराने पुरुष-वर्चस्ववादी मूल्यों-विचारों-संस्थाओं के टूटने की प्रक्रिया लम्बी मानते थे और इस प्रक्रिया की शुरुआत के लिए स्त्री-पुरुषों के बीच पूर्ण कानूनी समानता, स्त्रियों की आर्थिक स्वतंत्रता, शिक्षा और रोजगार के समान अवसर तथा सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताओं में स्त्रियों की भागीदारी को अनिवार्य बुनियादी शर्त मानते थे। साथ ही उनका विशेष जोर इस बात पर था कि स्त्रियाँ व्यक्तिगत और समग्र रूप में अपने हालात के बारे में मुखर हों। स्त्रियों की उत्पीड़ित सामाजिक स्थिति के मद्देनजर उनका यह भी मानना था कि स्त्रियाँ अपनी मुक्ति के लक्ष्य के प्रति तब तक समर्पित नहीं हो सकतीं, जब तक पुरुष भी उनके आन्दोलन का समर्थन नहीं करेंगे।

राजनीति और अर्थशास्त्र की ही तरह, कुल मिलाकर, प्रत्यक्षवादी दर्शन पर आधारित मिल की समाजशास्त्रीय पद्धति में सुसंगत इतिहास-दृष्टि की कमी नारी-प्रश्न की उनकी विवेचना में भी स्पष्ट दीखती है, पर काफी हद तक यह इतिहास के रंगमंच की सीमा है और उस वर्ग की दृष्टि की भी जिसका दर्शन और राजनीति के क्षेत्र में मिल प्रतिनिधित्व करते थे। वे एक आमूलगामी सुधारवादी थे जो पूँजीवादी समाज की तमाम बुराइयों के प्रखर आलोचक थे और जनवाद को उसके आदर्श रूप में लागू करने का सपना पाले हुए थे। इसी दृष्टि से उन्होंने क्रान्तिकारी प्रखरता के साथ स्त्री-प्रश्न पर सोचा और इस प्रश्न पर सोचते हुए वे सर्वाधिक विसंगतिमुक्त होकर रैडिकल बदलाव के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करने में सफल रहे।

आज पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि बीसवीं सदी के नाक पकड़ने और बाल की खाल निकालने की आदी तमाम अकर्मक नारीवादी विमर्शकों से भी अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में और अधिक व्यावहारिक-वैज्ञानिक ढंग से स्त्री-प्रश्न को लगभग डेढ़ सौ वर्षों पहले जॉन स्टुअर्ट मिल ने देखा-समझा था। स्त्री-प्रश्न पर मिल का चिन्तन स्त्री-मुक्ति के तमाम सच्चे पक्षधरों की क्रान्तिकारी विरासत है। स्त्री-मुक्ति-विमर्श की इतिहास-यात्रा में मेरी वोल्सटनक्राफ्ट की पुस्तक के बाद जॉन स्टुअर्ट मिल की यह पुस्तक दूसरा मील का पत्थर है, यह इतिहास का स्थापित तथ्य है।
- कात्यायनी
    सत्यम

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