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स्त्रियों की पराधीनता

जॉन स्टुअर्ट मिल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 14307
आईएसबीएन :9788126704187

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पुरुष-वर्चस्ववाद की सामाजिक-वैधिक रूप से मान्यता प्राप्त सत्ता को मिल ने मनुष्य की स्थिति में सुधार की राह की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में पूर्ण समानता की तरफदारी की है।

स्त्रियों की पराधीनता



इस लेख का उद्देश्य अपने एक मत के धरातल को अपनी सामर्थ्य के अनुसार स्पष्टतः व्यक्त करना है, जो मैं उस समय से रखता हूँ जब मैंने सामाजिक-राजनीतिक मामलात पर कोई स्पष्ट विचार नहीं बनाया था, और जो कमजोर होने या बदलने की बजाय मेरे जीवन की प्रगति, चिन्तन व अनुभवों से निरन्तर दृढ़ ही हो रहा है; कि स्त्री-परुष के बीच मौजदा सामाजिक सम्बन्धों को जो सिद्धान्त नियंत्रित कर रहा है-यानी एक का दूसरे के कानूनी रूप से अधीन होना-स्वयं में ही गलत है और अब मानव विकास व सुधार की प्रक्रिया में मुख्य बाधा भी है, और यह कि अब इसका स्थान (स्त्री-पुरुष के बीच) पूर्ण समानता के सिद्धान्त को ले लेना चाहिये जो न तो एक पक्ष को कानूनी सत्ता या सुविधा दे, न ही दूसरे को अशक्त बनाए।

जिस कार्यभार को व्यक्त करने का जिम्मा मैंने उठाया है, उसके लिए जरूरी शब्द ही यह दिखलाते हैं कि यह कितना कठिन काम है। लेकिन यह मानना गलत होगा कि इस स्थिति में कठिनाई उस तर्क के धरातल की अपर्याप्तता या अस्पष्टता की वजह है जिस पर मेरा विश्वास टिका है। यह कठिनाई वैसी ही है, जैसी उन सभी स्थितियों में आती है, जहाँ एक जनसमूह की भावना से संघर्ष करना हो। जब एक विचार की जड़ें मजबूती से भावनाओं में निहित होती हैं, तो वह तर्क के प्रबल भार से और भी अधिक अस्थिर हो जाता है; क्योंकि अगर उसे तर्क के परिणामस्वरूप स्वीकार किया जाये, तो उस तर्क का खण्डन उस विश्वास की दृढ़ता को ही हिला सकता है; लेकिन जब यह विश्वास पूरी तरह से भावना पर ही आधारित हो, तो तर्कयुक्त बहस में उस विश्वास की जितनी बुरी हालत हो, उसे मानने वाले उतनी ही प्रबलता से यह सोचने लगते हैं कि उनके विश्वास का धरातल कहीं बहुत गहरा है, जहाँ तक तर्क नहीं पहुँचते। और जब तक यह एहसास रहता है, वह पुराने विश्वास में आयी किसी भी दरार को पाटने के लिए तर्क की नई मोर्चाबन्दी करता रहता है। इस विषय से सम्बन्धित भावनाओं को पुरानी संस्थाओं व रीति-रिवाजों में सबसे अधिक प्रबल और गहन बनाने के इतने कारण हैं, कि हमें यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिये कि वे महान आधुनिक आध्यात्मिक व सामाजिक परिवर्तन की प्रगति में बाधक अन्य कारणों से कम दुर्बल या शिथिल नहीं हुए है; न ही यह मान लेना चाहिये कि मनुष्य जिस बर्बरता का पालन प्राचीनतम समय से करता चला आ रहा है, वह उन बर्बरताओं से कम ही होगी, जिनको उसने पहले ही तिलांजलि दे दी।

हर तरह से, बोझ उन्हीं पर अधिक होता है जो लगभग एक सार्वभौमिक मत पर आक्षेप करते हैं। यदि उनकी कोई सुनवाई होती है तो निश्चय ही वे बहुत भाग्यशाली और असाधारण रूप से योग्य होंगे। किसी भी अभियुक्त को फैसला पाने में जितनी कठिनाई होती है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल ऐसे लोगों को सिर्फ सुनवाई का एक मौका पाने में आती है। और अगर उन्हें ऐसा मौका मिल भी जाता है तो उन पर ऐसी तार्किक शर्ते रखी जाती हैं, जो अन्य लोगों के सामने रखी शर्तों से कतई अलग होती हैं। अन्य सभी केसों में सबूत जुटाने का जिम्मा सकारात्मक पक्ष का होता है। यदि एक व्यक्ति पर हत्या का आरोप है तो उसके अपराध का सबूत देने की जिम्मेदारी उन लोगों की होती है, जिन्होंने वह आरोप लगाया है, उस व्यक्ति पर अपनी निर्दोषता साबित करने का जिम्मा नहीं होता। यदि एक कथित ऐतिहासिक घटना की वास्तविकता पर वैचारिक मतभेद है, जिसमें सामान्य व्यक्ति की ज्यादा दिलचस्पी नहीं है, मसलन ट्रॉय की लड़ाई, तो जो लोग यह मानते हैं कि यह घटना हुई, उन लोगों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे दूसरे पक्ष को मानने वाले लोगों के सामने अपने सबूत रखेंगे। दूसरे पक्ष के लोग कुछ भी कह सकते हैं और किसी भी समय वे यह कह सकते हैं कि दूसरे पक्ष द्वारा दिखलाये गये प्रमाणों की कोई अहमियत नहीं है। एक बार फिर, व्यावहारिक मामलात में, प्रमाण लाने का जिम्मा उनका माना जाता है जो स्वतंत्रता के विरुद्ध हैं; जो मानवीय गतिविधि की सामान्य आजादी पर प्रतिबन्ध या निषेध के लिए या फिर दूसरे लोगों की तुलना में एक व्यक्ति या एक तरह के व्यक्तियों को प्रभावित करने वाले विशेषाधिकार की असंगति या अयोग्यता के पक्ष में संघर्ष करते हैं। प्राथमिक मान्यता आजादी और निष्पक्षता के पक्ष में ही होती है। ऐसा माना जाता है कि ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं होना चाहिये। सामान्य हित में जिसकी आवश्यकता न हो, और यह कि कानून द्वारा किसी को भी विशेष सुविधा नहीं दी जानी चाहिये बल्कि सभी को समदृष्टि से देखना चाहिये, सिवाय उन स्थितियों के जहाँ न्याय अथवा नीति के सकारात्मक उद्देश्य से विशेष व्यवहार की आवश्यकता हो। लेकिन प्रमाण के इन नियमों का लाभ उन लोगों को नहीं मिलेगा, जो मेरे मत से सहमत हैं। मेरा यह कहना व्यर्थ है कि जो लोग इस सिद्धान्त के पक्षधर हैं कि पुरुषों को आदेश देने का हक है और महिलाओं को उसका पालन करना ही चाहिये, या यह कि पुरुष शासन करने के लिए योग्य हैं और महिलाएँ नहीं, उन्हें यह मानने के लिए सकारात्मक प्रमाण दिखाने पड़ेंगे, या अपनी मान्यताओं को तिलांजलि देनी होगी। मेरा यह कहना भी इतना ही व्यर्थ होगा कि जो लोग पुरुषों को दी गयी आजादी या सुविधा स्त्रियों के लिए निषेध मानते हैं, तो उन्हें यह दुहरा अनुमान लगाते हुए कि वे आजादी के विरुद्ध हैं और पक्षपात का अनुमोदन कर रहे हैं, इस केस का सबसे प्रबल प्रमाण अपने पास रखना चाहिये। और जब तक उनकी सफलता इतनी मजबूत न हो कि उसमें किसी भी शक की गुंजाइश न रहे, तब तक फैसला उनके विरुद्ध ही होना चाहिये। किसी भी सामान्य केस में ये बहुत अच्छी दलीलें मानी जायेंगी, लेकिन इस केस में नहीं।

इससे पहले कि मैं राय रखने की उम्मीद भी कर पाऊँ, मुझसे यह अपेक्षा की जायेगी कि मैं न सिर्फ उन लोगों द्वारा कही गयी सभी बातों का उत्तर दूं जो इस प्रश्न के दूसरे पहलू के पक्षधर हैं, बल्कि उन सब बातों का भी तर्कपूर्ण जवाब दूं जो उनके द्वारा कही जा सकती थीं; उन सभी तर्कों का सकारात्मक रूप से खण्डन करने के साथ ही मुझसे यह माँग की जायेगी कि एक नकारात्मक तर्क को सिद्ध करने के लिए मैं अजेय सकारात्मक तर्क प्रस्तुत करूँ। और अगर मैं ऐसा कर भी लूँ, विरोधी पक्ष के सामने उनके खिलाफ अनेक अनुत्तरित तर्क रखू और अपने पक्ष में एक भी ऐसा तर्क न छोडूं, तो भी माना जायेगा कि मैंने उस उद्देश्य के लिए कुछ नहीं किया जिसे एक ओर तो सार्वभौमिक व्यवहार का समर्थन प्राप्त है और दूसरी ओर लोकप्रिय भावना के प्रबल प्रचलन का भी। ऐसी स्थिति में सामान्य धारणा इसके पक्ष में ही होती है और यह ऐसे किसी भी विश्वास से ऊँची होती है जो सिर्फ उच्च श्रेणी की बौद्धिक क्षमता में ही तर्क को प्रभावित कर सकता है।

मैं इन कठिनाइयों का जिक्र शिकायती लहजे में नहीं कर रहा; पहली बात तो, इनका इस्तेमाल करना ही व्यर्थ होगा; क्योंकि लोगों की समझ, उनके विद्वेष, भावनाओं व व्यावहारिक प्रवृत्तियों से संघर्ष करने की प्रक्रिया में ये कठिनाइयाँ अपरिहार्य हैं।

और वाकई, इससे पहले कि मनुष्यों से अपने तर्कों पर भरोसा करने के लिए कहा जाये ताकि वे उन व्यावहारिक सिद्धान्तों को त्याग सकें जिनके बीच उनका लालन-पालन हुआ है और जो मौजूदा दुनिया में प्रचलित हैं, उनकी समझ को बहुत पोषित करने की जरूरत होती है। इसलिए मैं उनसे इस बात पर नहीं लडूंगा कि उन्हें तर्क पर बहुत कम भरोसा है बल्कि इस बात पर बहस करूँगा कि उन्हें सामान्य भावनाओं और रीति-रिवाजों पर बहुत अधिक भरोसा है। यह अठारहवीं सदी के विरुद्ध उन्नीसवीं सदी का एक विशिष्ट पूर्वाग्रह है-मनुष्य स्वभाव के असंगत तत्वों को वह अमोघत्व दे देना, जो 18वीं सदी में मनुष्य के तर्कसंगत तत्वों को दे दिया गया था। हमने तर्क के स्थान पर नैसर्गिक स्वभाव का देवत्वीकरण कर दिया है; और हम उस तत्व को नैसर्गिक स्वभाव कह देते हैं, जो हममें है लेकिन हमें उसका तार्किक आधार नहीं मालूम । यह मूर्तिपूजा, जो पहले की अपेक्षा कहीं अधिक अमानवीय है और जो मौजूदा आस्थाओं में सर्वाधिक झूठी व विनाशकारी है, तब तक हमारे बीच गहरे पैठी रहेगी जब तक कि एक ठोस मनोविज्ञान उन सभी तत्वों की जड़ों को उघाड़ नहीं देता जिन्हें प्रकृति की इच्छा या ईश्वर का आदेश मान कर स्वीकार कर लिया गया है। उपस्थित प्रश्न के सन्दर्भ में, मैं उन सभी प्रतिकूल परिस्थितियों को स्वीकार करूँगा जो पूर्वाग्रह से जनित हैं। मैं मानता हूँ कि स्थापित प्रथा और सामान्य भावनाएँ मेरे विरुद्ध निर्णायक समझी जायें, बशर्ते उस प्रथा व भावना की सदियों से मौजूदगी उसके उचित होने के बजाय अन्य कारणों से बताई जा सके और यह दिखाया जा सके कि उस प्रथा की ताकत का आधार मनुष्य स्वभाव के अच्छे नहीं बल्कि बुरे पहलू में निहित है। मैं चाहता हूँ कि फैसला मेरे विरुद्ध जाये बशर्ते कि मैं यह दिखा सकूँ कि मेरे न्यायाधीश के साथ इस सम्बन्ध में कोई साँठ-गाँठ की गयी है। यह रियायत इतनी बड़ी नहीं है जितनी यह सम्भवतः दिख सकती है, क्योंकि यह साबित करना तो मेरे कार्य का सबसे सरल भाग है।

कुछ केसों में एक रिवाज की व्यापकता इस दृढ़ परिकल्पना को जन्म देती है कि यह हमेशा से या कभी, सकारात्मक उद्देश्यों के अनुकूल रहा है। यह ऐसा ही केस है, जिसमें ऐसे ही किसी उद्देश्य को पाने के साधन के रूप में यह प्रचलन आरम्भ हुआ और बाद में जारी रहा, तथा अनुभव के आधार पर वह तरीका अपनाया गया जिसके माध्यम से ये उद्देश्य सबसे प्रभावपूर्ण रूप में पाये जा सकें। अगर पहलपहल स्त्री पर पुरुष की सत्ता समाज के प्रशासन की इन दो प्रणालियों में एक ईमानदार तुलना का परिणाम होती; अगर सामाजिक संस्थाओं के अन्य तरीकों को आजमाने के बाद महिलाओं का पुरुषों पर प्रशासन, दोनों के बीच समानता, और प्रशासन के ऐसे ही मिश्रित व भिन्न तरीकों को देख लेने के बाद यह निश्चित किया जाता, कि अनुभव के आधार पर जिस प्रणाली में महिलाएँ पूर्णतः पुरुषों के अधीन रहती हैं, सार्वजनिक मामलात में उनकी कोई भागीदारी नहीं होती, और जिसमें व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक महिला कानूनी तौर पर उस पुरुष का आज्ञापालन करती है, जिससे उसका भाग्य जुड़ा है, वही व्यवस्था स्त्री-पुरुष दोनों की खुशी व कल्याण के सर्वाधिक अनुकूल है; तब इस प्रचलन की व्यापकता को प्रमाणस्वरूप माना जा सकता था, कि जिस समय यह आरम्भ हुई उस वक्त यही व्यवस्था सर्वश्रेष्ठ थी। हालाँकि तब भी, जिन विचारों के मद्देनजर इस व्यवस्था को स्वीकार किया गया था, वे आरम्भिक समाज के अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्यों की तरह ही समय के साथ-साथ धीरे-धीरे खत्म हो गये। लेकिन स्थिति हर तरह से ठीक इससे उलट है। पहले तो, मौजूदा व्यवस्था के पक्ष में मत, जो स्त्री को पूर्णतः पुरुष के अधीन मानता है, केवल सिद्धान्त पर आधारित है क्योंकि किसी अन्य व्यवस्था को तो कभी परखा ही नहीं गया। इसलिए यह बहाना भी नहीं किया जा सकता कि अनुभव, जिसे ऊपरी तौर पर सिद्धान्त के उलट माना जाता है, ने इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट निर्णय दिया है। दूसरे, इस असमानता की व्यवस्था का पालन करने के पीछे कोई विचार-विमर्श या सामाजिक सोच या यह बोध नहीं था कि मानवता के कल्याण या समाज की सव्यवस्था के लिए क्या अनुकूल रहेगा। सिर्फ इस तथ्य से ऐसी व्यवस्था ने जन्म लिया कि मानव समाज के उदय से ही, हर स्त्री, पुरुषों द्वारा उसके साथ कुछ मूल्य जोड़ दिये जाने के कारण (साथ ही शारीरिक बल में तुलनात्मक रूप से कम होने की वजह से) किसी न किसी पुरुष के अधीन ही रही। राज्य व्यवस्था के नियम-कानून हमेशा उन सम्बन्धों को मान्यता देकर ही आरम्भ होते हैं, जो व्यक्तियों के बीच पहले से ही विद्यमान हों। राज्यव्यवस्था महज ऐसे तथ्यों को कानूनी अधिकार में तब्दील कर देती है, सामाजिक स्वीकृति प्रदान करती है और सैद्धान्तिक तौर पर शारीरिक बल के अवैध व अनियमित संघर्ष के बजाय इन्हीं अधिकारों की सुरक्षा व इन्हें दृढ़ करने के सार्वजनिक व व्यवस्थित साधनों का प्रयोग करती है। इस तरह, जो लोग पहले ही हुक्मबरदारी के लिए बाध्य हैं, अब कानूनी रूप से भी इसके लिए विवश हो जाते हैं। दास प्रथा, जो मालिक व गुलाम के बीच केवल बल-प्रयोग का सम्बन्ध थी, वैध हो गयी और यह मालिकों के बीच एक संविदा बन गयी। ये मालिक सामूहिक सुरक्षा के लिए एक-दूसरे से जुड़ गये तथा इनकी संगठित शक्ति, जिनमें दास भी शामिल थे इसकी गारण्टी बन गयी। पुराने जमाने में, ज्यादातर दास पुरुष थे, और लगभग सभी स्त्रियाँ भी। बहुत से युग बीते, जिनमें ऐसे युग भी थे जिनमें मनुष्य ने काफी तरक्की की, तब कहीं जाकर विचारक इतना साहस जुटा सके कि दोनों प्रकार की दासता के औचित्य व उसको सामाजिक आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न लगा सकें। धीरे-धीरे ऐसे विचारकों की संख्या व प्रबलता बढ़ी; और (समाज के सामान्य विकास के सहयोग से भी) पुरुषों को दासता, कम से कम क्रिश्चियन यूरोप में तो (हालाँकि, एक देश में अभी कुछ वर्षों पहले ही) लगभग खत्म कर दी गयी है और स्त्रियों की दासता को धीरे-धीरे नरम किस्म की निर्भरता में बदल दिया गया है। लेकिन यह निर्भरता जो अब मौजूद है, वह मौलिक प्रथा नहीं है। न्याय व सामाजिक कार्यसाधकता के मद्देनजर, उन्हीं वजहों से लगातार सुधारों व नरमी के जरिये, जिनके परिणामस्वरूप मानवीय सम्बन्ध मानवता के प्रभाव में तथा न्याय के नियंत्रण में भी आये हैं, स्त्रियों की निर्भरता हासता की आदिम अवस्था का ही एक रूप है। इसमें मौलिक पाशविकता का ऐब आज भी है। इसलिए इसकी मौजूदगी के तथ्य से इसके पक्ष में कोई धारणा नहीं बनाई जा सकती। सिर्फ एक ही धारणा इसके पक्ष में हो सकती है, वह भी इस आधार पर कि यह अब तक चली आ रही है जबकि ऐसे ही घृणित स्रोत से जन्मी अनेक ऐसी चीजों को तिलांजलि दे दी गयी है। दरअसल यही ऐसी चीज है जो सामान्यतः सुनने में अजीब लगती है-इस बात पर जोर देना कि स्त्री व पुरुष के बीच अधिकारों की असमानता का स्रोत केवल ताकत का नियम ही है।

इस कथन में विरोधाभास झलकता है-इसका श्रेय कुछ हद तक सभ्यता के विकास और मानवता की नैतिक भावनाओं में सुधार को जाता है। हम, यानी विश्व के एक या दो सर्वाधिक विकसित देश ऐसी अवस्था में रह रहे हैं जिसमें लगता है कि ताकत के नियम को, अर्थात जो सबसे ताकतवर है, वही शासन करेगा-इस नियम को विश्वस्तरीय मुद्दों का नियमन करने वाले सिद्धान्त के रूप में त्याग दिया गया है; न तो कोई इसका समर्थन करता है और, अधिकतर मानवीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में, न ही किसी को इसका आचरण करने की इजाजत है। जब कोई ऐसा करने में सफल हो जाता है तो सामान्यतः वह ऐसा किसी वृहत सामाजिक हित के बहाने की आड़ में करता है। चूंकि स्पष्टतः स्थिति ऐसी है, अतः लोग ये सोच कर खुश हो लेते हैं कि मात्र बल का शासन अब समाप्त हो गया है; कि बल का नियम किसी भी उस चीज के अस्तित्व का कारण नहीं हो सकता जो वर्तमान समय तक पूरी तरह से प्रचलन में है। वे सोचते हैं, कि हमारी मौजूदा प्रथाएँ कैसे भी शुरू हुई हों, वे विकसित सभ्यता के मौजूदा समय तक संरक्षित हैं तो इसलिए कि वे धीरे-धीरे सामान्य हित के अनुकूल हुई हैं। वे इन प्रथाओं की महान ऊर्जा और स्थायित्व को नहीं समझते जो अधिकार को बल के पक्ष में रखता है; वे यह नहीं समझते कि इन प्रथाओं से लोग कितनी निष्ठा के साथ जुड़े रहते हैं; कि जिनके पास सत्ता होती है उनके अच्छे व बुरे मत भी सत्ता की पहचान व उसे बनाये रखने के साथ जुड़ जाते हैं; कि किस तरह बुरी प्रथाएँ धीरे-धीरे एक-एक करके खत्म होती हैं, सबसे कमजोर सबसे पहले खत्म होती है। इनमें सबसे पहले उन प्रथाओं की बारी आती है जो रोजमर्रा के जीवन से बहुत कम जुड़ी होती हैं। लोग यह नहीं समझते कि बहुत कम ऐसा होता है कि जिनके पास बल के चलते कानूनी ताकत आती है वे तब तक उस सत्ता पर अपनी पकड़ नहीं खोते जब तक कि उनके बल पर विरोधी पक्ष का कब्जा न हो जाये। चूँकि महिलाओं के सन्दर्भ में बल का ऐसा स्थानान्तरण नहीं हुआ है, अतः इस सन्दर्भ की अन्य विशेषताओं के साथ मिलकर यह शुरू से ही निश्चित हो गया था कि बल पर टिकी अधिकार व्यवस्था की यह शाखा, हालाँकि आरम्भिक काल के इसके पाशविक दोष अब काफी हद तक मृदुल बना दिये गये, सबसे अन्त में खत्म होगी। यह तो अपरिहार्य ही था कि बल पर टिकी सामाजिक सम्बन्ध की यह स्थिति उन प्रथाओं की कई पीढ़ियों तक शेष रहेगी जो समान न्याय पर आधारित हैं, और उनके नियम व रीतिरिवाजों के बीच लगभग एक अकेला अपवाद रहेगी, लेकिन जो, जब तक अपने ही मूल स्रोत की घोषणा नहीं करती, और चूँकि विचार-विमर्श से भी इसका वास्तविक चरित्र सामने नहीं आया है, आधुनिक सभ्यता के ठीक उलट महसूस नहीं की जायेगी, वैसे ही जैसे ग्रीक सभ्यता में घरेलू दास प्रथा उनके स्वतंत्र जन होने की धारणा से टकराती थी।

सच तो यह है कि आज की और पिछली दो-तीन पीढ़ियों ने मानवता की आदिम अवस्था का व्यावहारिक बोध लगभग खो दिया है। सिर्फ वे लोग जिन्होंने इतिहास का गम्भीर अध्ययन किया है या विश्व के उन भागों में गये हैं जहाँ प्राचीन समय के प्रतिनिधि आज भी रहते हैं, कल्पना कर सकते हैं कि उस वक्त समाज कैसा था। लोग यह नहीं जानते कि पुराने समय में किस तरह जिसकी लाठी उसकी भैंस का नियम ही पूरी तरह से जीवन का तरीका था; किस तरह सार्वजनिक व खुले तौर पर इसे स्वीकार किया जाता था। मैं बेशर्मी से या 'कटता से शब्दों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ क्योंकि इन शब्दों से जाहिर होता है कि इस आचरण में शर्मिन्दगी की कोई भावना थी। उस युग में किसी दार्शनिक अथवा सन्त के अतिरिक्त इस तरह की कोई भावना किसी व्यक्ति में नहीं पायी जाती थी। इतिहास मानव स्वभाव के निर्दयी अनुभवों का साक्षी है कि किस तरह किसी भी वर्ग के लोगों की सम्पत्ति, खुशी इत्यादि इस बात से मापी जाती थी कि उनके पास क्या-क्या लागू करने की सत्ता थी; किस तरह वे सब जो किसी भी तरह सत्ता का विरोध करते थे, चाहे कारण कितना भी भयानक और बड़ा हो, न सिर्फ बल का नियम बल्कि अन्य सभी कानून व सामाजिक दायित्व की सभी धारणाएँ उनके विरुद्ध होती थीं; और जिनका वे विरोध करते थे, उनकी निगाह में वे न सिर्फ अपराधी होते थे, बल्कि सबसे बुरे अपराध के दोषी होते थे, जिसके लिए वे सबसे क्रूर दण्ड के पात्र होते थे। उच्च वर्ग के व्यक्ति में निम्न वर्ग के लिए दायित्व की भावना का पहला सूक्ष्म लक्षण तब दिखना शुरू हुआ, जब उसे, सुविधा के लिए निम्न वर्ग के लोगों के पक्ष में कुछ वादा करने के लिए राजी किया गया। हालाँकि इन वादों का, जिन्हें पवित्रतम प्रतिज्ञाओं द्वारा अनुमोदित किया गया था, कई युगों तक मामूली से कारण पर उल्लंघन किया जाता रहा। औसत नैतिकता से भी कम नैतिकता वाले लोगों को छोड़कर सम्भवतः ऐसा करना (उच्चवर्ग के) लोगों की आत्मा को कहीं न कहीं कचोटता रहा। परिणामस्वरूप प्राचीन गणतंत्र जो अधिकतर किसी न किसी पारस्परिक समझौते पर आधारित थे या किसी भी हाल में ऐसे लोगों के संघ थे जो ताकत में असमान नहीं थे, ने पहलेपहल मानव सम्बन्धों के एक भाग को ऐसे कानून के क्षेत्र में रखा जो ताकत के नियम से इतर था। और हालाँकि उनके व उनके गुलामों के बीच बल का मूल नियम पूरी तरह से काम करता रहा, और गणराज्यों व उनकी प्रजा के बीच या एक गणराज्य और अन्य स्वतंत्र गणराज्यों के बीच (पहले किये गये समझौते की सीमाओं को छोड़कर) भी यही नियम काम करता रहा; फिर भी एक छोटे से क्षेत्र में ही उस आदिम नियम के उन्मूलन ने एक ऐसी भावना को जन्म देकर मानव प्रकृति के पुनरुद्धार का श्रीगणेश कर दिया, जिसके अनुभव से जल्द ही सिद्ध हो गया कि भौतिक हितों को पाने में भी वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके बाद इस भावना को जन्म देना नहीं बल्कि बढ़ाना ही आवश्यक था। यद्यपि दास किसी गणराज्य का हिस्सा नहीं थे, लेकिन एक स्वतंत्र राष्ट्र में ही उन्हें पहली बार मनुष्य के रूप में कुछ अधिकार मिले। स्टोइक दार्शनिक, मेरे विचार में, पहले लोग थे (इसके अलावा कुछ हद तक यहूदी विधान एक अपवाद है) जिन्होंने नैतिक शिक्षा के एक भाग के रूप में यह सिखाया कि मनुष्य अपने दासों के साथ एक नैतिक जिम्मेदारी से बँधा है। ईसाई धर्म के उद्भव के बाद कोई भी, सैद्धान्तिक तौर पर इस विश्वास से अछूता नहीं रह सका, न ही कैथोलिक चर्च के आरम्भ के बाद ऐसा कभी हआ कि इस विश्वास के समर्थन में कोई व्यक्ति खडा न हआ हो। लेकिन व्यावहारिक तौर पर इसे लागू करना ईसाइयत के लिए सर्वाधिक कठिन कार्य साबित हुआ। लगभग एक हजार वर्ष तक चर्च इसके लिए जूझता रहा, लेकिन कोई विशेष सफलता न मिली। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि लोगों के दिमाग पर चर्च के प्रभाव में कोई कमी थी। इसकी सत्ता अद्भुत थी। चर्च स्वयं को समृद्ध बनाने के लिए राजाओं व अभिजात लोगों को उनकी सर्वाधिक मूल्यवान चीजें देने के लिए राजी कर सकता था। उन्हें निर्धनता, उपवास व प्रार्थना से अपनी मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ने के लिए कान्वेण्टों में बन्द रहने के लिए भी तैयार कर सकता था। चर्च किसी पवित्र समाधि के उद्धार के लिए सैकड़ों व हजारों लोगों को समुद्र अथवा धरती पर, यूरोप और एशिया में हजारों मील दूर अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भेज सकता था। वह राजाओं को अपनी उस पत्नी का परित्याग करने के लिए सहमत कर सकता था, जिससे वे सर्वाधिक प्रेम करते थे, महज इसलिए कि चर्च की घोषणानुसार उनका सम्बन्ध सातवीं श्रेणी (हमारी गणना के अनुसार चौदहवीं) के अन्तर्गत आता था। चर्च यह सब तो कर सकता था लेकिन वह लोगों का एक-दूसरे से लडना कम न करवा सका. न ही वह कृषि दासों पर, और जब मौका मिले तो नागरिकों पर भी प्रशासन की क्रूरता को कम करवा सका। चचे उनसे किसी भी प्रकार के बल का उपयोग नहीं छुड़वा सका: न उग्र बल और न ही विजयी बल। उन्हें कभी भी ऐसा करने के लिए प्रेरित न किया जा सका जब तक कि वे खुद एक उनसे भी बड़े बल द्वारा ऐसा करने के लिए बाध्य न हुए। राजाओं या राजगद्दी के दावेदारों के सिवाय राजा की बढ़ती सत्ता के विरोध, सुदृढ़ कस्बों में समृद्ध व लड़ाकू बुर्जुआ वर्ग के विकास और निम्न वर्गीय पैदल सेना के विकास के द्वारा, जो युद्धभूमि में गैर अनुशासित शूरवीरता से अधिक प्रभावपूर्ण थी, बुर्जुआ व किसान वर्ग पर अभिजात वर्ग की क्रूर सत्ता को कुछ हद तक नियंत्रित किया गया। शोषितों को जब इतनी सत्ता मिल गयी कि वे अकसर अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, प्रतिशोध ले सकें-उसके बाद भी यह प्रजापीड़न जारी रहा; और यूरोप में तो यह अत्याचार काफी हद तक फ्रांसीसी क्रान्ति तक जारी रहा, हालाँकि इंग्लैण्ड में प्रजातांत्रिक वर्गों द्वारा पहले ही बनाई गयी बेहतर संस्थाओं के जरिये समान अधिकारों व स्वतंत्र राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना करके इसे अपेक्षाकृत पहले ही खत्म कर दिया गया था।

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