यदि प्रायः लोग इस बारे में इतना कम जानते हैं कि मानव जाति के उद्भव से लेकर
अब तक ज्यादातर समय बल का नियम ही सामान्य व्यवहार का नियम रहा, अन्य नियम
विशेष बन्धनों का अपवादपूर्ण परिणाम ही रहे, कि कितने कम समय पूर्व ही समाज के
सामान्य मामलों का नियमन किसी नैतिक कानून के द्वारा या उसके बहाने से ही शुरू
हुआ है, तो फिर लोगों को इस बारे में तो बहुत कम याद होगा या वे इस बारे में तो
न के बराबर ही सोचते होंगे कि किस तरह वे प्रथाएँ और रिवाज जिनका आधार बल के
अतिरिक्त कुछ नहीं था उन युगों और सामान्य मत में भी जीवित रहे जो उनकी स्थापना
की अनुमति ही नहीं देता। चालीस वर्ष से भी कम समय पूर्व, एक अंग्रेज नागरिक
कानूनन एक मनुष्य को दास व बिक्री योग्य सम्पत्ति के बतौर अपने अधीन रख सकता
था। मौजूदा सदी में ही वे उनका अपहरण कर उन्हें उठा कर ले जाते और उनसे कमरतोड़
काम करवा सकते थे। बल के नियम की यह अति चरम स्थिति, जिसकी वे लोग भी भर्त्सना
करते हैं जो निरंकुश बल के अन्य किसी रूप को बरदाश्त कर सकते हैं और जो उन
लोगों में सबसे घृणास्पद भावना पैदा करती है, जो इसे निष्पक्ष रूप से देखते
हैं-यही स्थिति सभ्य और क्रिश्चियन इंग्लैण्ड के समाज का नियम था, जो आज भी
लोगों की स्मृति में जीवित है। तीन या चार वर्ष पहले तक एंग्लो-सैक्सन अमरीका
के एक भाग में न केवल दास प्रथा जीवित थी, बल्कि दास-व्यापार और व्यापार के लिए
दासों का प्रजनन दास-राज्यों में एक सामान्य चलन था। फिर भी न केवल जन सामान्य
की भावनाओं का बड़ा हिस्सा इसके खिलाफ था, बल्कि, कम से कम इंग्लैण्ड में बल की
अन्य किसी कुप्रथा की अपेक्षा दासप्रथा के पक्ष में या हित में बहुत कम लोग थे।
क्योंकि इसका उद्देश्य स्पष्टतः व खुले तौर पर महज फायदा हासिल करना था। और
जिन्हें इससे फायदा होता था, वे संख्या में देश का बहुत छोटा सा वर्ग थे, जब कि
जो लोग निजी तौर पर इसके हक में नहीं थे उनकी स्वाभाविक भावना पक्की व स्पष्ट
पणा की थी। अति के इस उदाहरण के सामने किसी और उदाहरण का खुलासा लगभग अनावश्यक
लगता है। लेकिन जरा लम्बी अवधि तक चले निर्बाध राजतंत्र की ओर ध्यान दें।
मौजूदा इंग्लैण्ड में यह लगभग सर्वव्याप्त विश्वास है कि सैन्य तानाशाही बल के
नियम का ही उदाहरण है क्योंकि इसका कोई और मूल या औचित्य नहीं है। फिर भी
इंग्लैण्ड के सिवाय यूरोप के अन्य सभी देशों में या तो सैन्य शासन अब भी मौजूद
है या हाल ही में खत्म हुआ है और अब भी हर वर्ग के लोग खासकर प्रतिष्ठित पदों
पर आसीन लोगों का एक सशक्त दल इसके पक्ष में है। पूर्व स्थापित व्यवस्था में
ऐसी ही शक्ति होती है, चाहे वह बिल्कुल सार्वभौमिक न हो, और चाहे इतिहास के
लगभग हर युग में उससे विपरीत बेहतर व्यवस्था के महान व सुविख्यात उदाहरण हों,
लेकिन वह लगभग हमेशा सबसे प्रतिष्ठित व समृद्ध समुदायों में पायी ही जाती है।
इस स्थिति में भी, अत्यधिक सत्ता का स्वामी और प्रत्यक्षतः उसमें रुचि रखने
वाला व्यक्ति सिर्फ एक होता है, जबकि जो इसका शिकार होते हैं, इसे भुगतते हैं,
वे शब्दशः शेष सभी होते हैं। पराधीनता स्वाभाविक व आवश्यक रूप से सभी लोगों के
लिए अपमानजनक होती है, सिवाय उस व्यक्ति के जो शासक है या ज्यादा से ज्यादा उस
व्यक्ति के लिये जिसे गद्दी का उत्तराधिकारी बनने की उम्मीद है। यह स्थिति
स्त्री पर पुरुष की सत्ता से कितनी भिन्न है! मैं इसके औचित्य के प्रश्न पर कोई
पूर्व निर्णय नहीं दे रहा। मैं सिर्फ यह दिखा रहा हूँ कि चाहे इसका कोई औचित्य
न हो फिर भी यह उन अन्य सत्ताओं से अधिक वृहद रूप से स्थायी हो सकती है, जो
हमारे समय तक चली आयी हैं। सत्ता के आधिपत्य में जितना भी अहं सन्तुष्ट होता हो
या इसके उपयोग में निजी हित की जितनी भी पूर्ति होती हो, स्त्री-पुरुष के
सन्दर्भ में यह सिर्फ एक वर्ग तक ही सीमित नहीं बल्कि पूरे पुरुष वर्ग में आम
है। अपने अधिकतर समर्थकों के लिए (यह सत्ता) एक अमूर्त इच्छा होने की बजाय, या
राजनीतिक उद्देश्यों की तरह सिर्फ नेताओं के लिए ही निजी रुचि का विषय होने की
बजाय, यह हर परिवार के पुरुष मुखिया के घर तक आती है और हर उस व्यक्ति की होती
है, जो भविष्य में परिवार का मुखिया होगा या होना चाहता है। अज्ञानी व्यक्ति
अपनी सत्ता का उसी तरह उपयोग करता है या करेगा जैसे उच्चतम अभिजात वर्ग का
कुलीन पुरुष करेगा। और इस स्थिति में सत्ता की इच्छा प्रबलतम होती है, क्योंकि
जिसे भी सत्ता की आकांक्षा है, वह सबसे पहले अपने निकटतम लोगों पर सत्ता हासिल
करने की इच्छा रखता है, जिन लोगों के साथ उसका जीवन व्यतीत होता है, उनकी
ज्यादातर चिन्ताएँ भी समान होती हैं और जिन पर उसकी सत्ता से स्वतंत्रता अकसर
उसकी निजी अभिरुचियों में बाधक सिद्ध हो सकती है। यदि अन्य स्थितियों में बल
आधारित सत्ता, जिसे बहुत कम समर्थन प्राप्त था, से इतना धीरे-धीरे और
कठिनाईपूर्वक छुटकारा मिला तो इस स्थिति में बल आधारित सत्ता से छुटकारा मिलना
तो और भी कठिन होगा। क्योंकि हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि इस स्थिति में सत्ता
अधिकारी को अन्य स्थितियों की अपेक्षा अपने विरुद्ध कोई भी कार्रवाई रोकने की
अधिक सुविधाएँ प्राप्त हैं। हरेक स्त्री अपने स्वामी की निगाहों के सामने, और
कहा जा सकता है कि अपने मालिकों में से एक के साथ इतने अन्तरंग सम्बन्ध रखती है
कि अन्य कोई स्त्री नहीं रखती। उसके विरुद्ध एकजुट होने का उसके पास कोई साधन
नहीं होता. यहाँ तक कि स्थानीय तौर पर ही उसके ऊपर नियंत्रण पाने की ताकत नहीं
होती और दूसरी तरफ, उसके भीतर अपने मालिक का अनुग्रह पाने व उसे नाराज न करने
की प्रबल भावना भी होती है। राजनीतिक स्वतंत्रता पाने के संघर्ष में, हर कोई
जानता है, कि किस तरह प्रायः इसके समर्थकों को रिश्वत आदि से खरीदा जाता है या
अनेक आतंकों से डराया-धमकाया जाता है। महिलाओं के सन्दर्भ में तो पराधीन वर्ग
का हर व्यक्ति रिश्वत व आतंक दोनों की मिली-जुली चिरकालिक अवस्था में रहता है।
विरोध का मानक तय करने के लिए इसके नेताओं की बड़ी संख्या को और इससे भी ज्यादा
अनुयायियों को अपनी खुशी व सुख का लगभग पूर्ण त्याग करना पड़ेगा। किसी भी
विशेषाधिकार व जबरन पराधीनता की व्यवस्था ने अपने अधीन पर अपना नियंत्रण इतना
कड़ा नहीं रखा जितना इस स्थिति में है। मैंने अभी यह नहीं दिखाया है कि यह एक
गलत व्यवस्था है : लेकिन जो भी कोई सोचने में समर्थ है, वह यह तो पहचान लेगा कि
अगर यह गलत व्यवस्था है भी, तो निश्चित तौर पर यह अन्याय की अन्य व्यवस्थाओं से
अधिक दीर्घायु थी। और आज जब इस तरह की घटिया व्यवस्थाएँ अनेक सभ्य देशों में अब
भी जीवित हैं और अन्य कुछ देशों में हाल ही में इनका परित्याग कर दिया गया है,
तो यह अजीब ही लगेगा कि यह व्यवस्था जो इतने गहरे जड़ जमाये है अभी तक इसे कहीं
हिलाया भी नहीं गया है। यह सोचने के और भी कारण हैं कि इसके विरुद्ध प्रमाण व
विरोध इतने सारे व इतने ठोस रहे होंगे।
कुछ लोग आक्षेप करेंगे कि पुरुष की सत्ता और उन अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं के बीच
तुलना नहीं की जा सकती, जिनका खुलासा मैंने इस सन्दर्भ में किया है क्योंकि ये
निरंकश और अनधिकृत ग्रहण का परिणाम हैं, जबकि पुरुष सत्ता तो स्वाभाविक है।
लेकिन क्या कभी ऐसी कोई सत्ता रही है जिसके स्वामी को वह स्वाभाविक न लगे? एक
समय था, जब मानव जाति का दो वर्गों में विभाजन, एक छोटा वर्ग मालिकों का और एक
बड़ा वर्ग दासों का, परिष्कृत और जागृत लोगों को भी मानव जाति की स्वाभाविक
स्थिति लगती थी। अरस्तू जैसी मेधा बुद्धि, जिसने मानव विचार के विकास में
महत्त्वपूर्ण योगदान किया, का भी बिलाशक यही मत था और यह मत उन्होंने उसी तर्क
पर आधारित किया था जो पुरुष की स्त्री पर सत्ता के सन्दर्भ में दिया जाता है,
कि मानव जाति में विभिन्न स्वभाव पाये जाते हैं; स्वतंत्र प्रकृति और दास
प्रकृति । और ग्रीक स्वतंत्र प्रकृति के लोग थे, ऐषियन और एशियाटिक बर्बर
जातियाँ दास प्रकृति की थीं। लेकिन मुझे अरस्तू तक जाने की क्या जरूरत है? क्या
दक्षिण अमरीका के दासों के मालिकों का भी यही मत नहीं है? और क्या वे इस मत पर
उतनी ही कट्टरता से विश्वास नहीं रखते जितनी कट्टरता से लोग उन सिद्धान्तों से
चिपके रहते हैं जो उनकी भावनाओं का औचित्य सिद्ध करते हैं और उनके निजी हितों
को वैध बनाते हैं? क्या उन्होंने यह सिद्ध करने के लिए जमीन आसमान एक नहीं कर
दिया कि श्वेत लोगों की काले लोगों पर सत्ता प्राकृतिक है, कि स्वभाव से ही
अश्वेत जाति स्वतंत्रता के अयोग्य है और दासता के लिए ही बनी है? कुछ लोगों ने
तो इस हद तक कहा कि शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों की स्वतंत्रता कहीं भी एक
अप्राकृतिक व्यवस्था है। फिर, विशुद्ध राजतंत्र के सिद्धान्तशास्त्रियों ने
हमेशा इसकी एक प्राकृतिक सरकार के रूप में पुष्टि की है। पितृसत्ता के आधार पर
बना पितृसत्तावादी समाज सबसे प्राचीन और सहज था, और उनका मानना है कि पितृसत्ता
तो सर्वाधिक स्वाभाविक सत्ता है। नहीं, इतना काफी नहीं, जो और कोई तर्क नहीं रख
सकते, उनके विचार में तो बल का नियम ही हर प्रकार की सत्ता का उपयोग करने का
सर्वाधिक स्वाभाविक आधार है। विजयी जातियाँ इसे प्रकृति का नियम ही मानती आयी
हैं कि विजित जातियों द्वारा उनकी आज्ञा का पालन होना ही चाहिये। या फिर, जैसा
कि वे उत्साहित होकर समझाते हैं कि कमजोर और युद्ध के लिए अनुपयुक्त जातियों को
बहादुर और अपेक्षाकृत अधिक लड़ाकू जातियों के समक्ष समर्पण कर देना चाहिये।
मध्ययुगीन मानव जीवन से जरा सा परिचय यह स्पष्ट कर देता है कि सामन्तों को
निम्नवर्गीय लोगों के ऊपर अपनी सामन्ती सत्ता कितनी स्वाभाविक लगती थी, और यह
धारणा उन्हें कितनी अप्राकृतिक लगती थी कि उनसे निचले वर्ग का कोई व्यक्ति उनसे
बराबरी का दावा करे या उन पर राज करे। पराधीन वर्ग को भी ऐसा ही लगता था। मुक्त
किसानों व नागरिकों ने, अपने संघर्ष की चरम अवस्था में भी, सत्ता में
हिस्सेदारी का कोई दावा नहीं किया। वे सिर्फ अपने ऊपर अत्याचारी शासन की सत्ता
को कुछ सीमित करने की ही माँग करते रहे। यह इतना सच है कि अप्राकृतिक का
सामान्यतः अर्थ अप्रचलित ही माना जाता है और यह भी कि जो चीज सामान्यतः दिखाई
देती है, वही प्राकृतिक है। स्त्रियों का पुरुषों के अधीन होना चूँकि एक
सार्वभौमिक रीति है, इसलिए जाहिर है कि इससे अलग कोई भी बात अस्वाभाविक। इस केस
में भी भावनाएँ प्रचलित रिवाज पर कितना निर्भर करती हैं, प्रचुर अनुभव इस बात
का साक्षी है। दुनिया के सुदूर भागों में लोगों को यह बात बहुत हैरान करती है,
जब उन्हें पहली बार यह पता चलता है कि इंग्लैण्ड पर एक रानी का शासन है। यह बात
उन्हें अविश्वसनीय लगने की हद तक अस्वाभाविक प्रतीत होती है लेकिन अंग्रेज
नागरिकों को यह बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं लगता क्योंकि उन्हें इसकी आदत है।
लेकिन उन्हें यह अवश्य अस्वाभाविक लगता है कि महिलाएँ सैनिक हों या संसद सदस्य।
ठीक इसके विपरीत सामन्ती युग में महिलाओं के लिए युद्ध या राजनीति में भाग लेना
अस्वाभाविक नहीं था क्योंकि यह असामान्य नहीं था। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं
लगता था कि विशिष्ट वर्गों की महिलाएँ पुरुषों की तरह ही व्यवहार करें और अपने
पिता व पति से शारीरिक बल के अतिरिक्त और किसी चीज में कम न हों। प्राचीन समाज
में अन्य लोगों को स्त्रियों की स्वतंत्रता कम अस्वाभाविक लगती थी क्योंकि उनके
पास अमेजॉन स्त्रियों (जिन्हें वे ऐतिहासिक मानते थे) के साथ ही स्पार्टन
महिलाओं के उदाहरण थे, जो हालाँकि कानून के तहत ग्रीक राज्यों की तरह ही
पुरुषों के अधीन थीं, लेकिन अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र थीं और उन्हें पुरुषों की
भाँति ही शारीरिक व्यायाम का प्रशिक्षण दिया जाता था। यह इस बात का भी पर्याप्त
प्रमाण है कि महिलाएँ शारीरिक श्रम के लिए अक्षम नहीं हैं। इसमें कोई शक नहीं
कि स्पार्टन उदाहरण ने ही प्लेटो को उसकी अन्य नीतियों के साथ पुरुष व स्त्री
की सामाजिक व राजनीतिक समानता के बारे में सोचने की प्रेरणा दी होगी।
लेकिन, यह कहा जायेगा कि स्त्रियों पर पुरुषों का शासन अन्य सत्ताओं से इसलिए
अलग है कि यह बल का नियम नहीं बल्कि इसे स्वेच्छा से स्वीकारा जाता है। महिलाएँ
कोई शिकायत नहीं करतीं और इसमें सहमत भागीदार होती हैं। पहली बात तो, बहुत सी
महिलाएँ इसे स्वीकार नहीं करतीं। जब से महिलाएँ अपने लेखन द्वारा अपनी भावनाओं
को व्यक्त करने में समर्थ हुई हैं, (यह प्रचार की एकमात्र विधि है जिसकी समाज
द्वारा उन्हें अनुमति दी गयी है। उन्होंने बड़ी तादाद में अपनी वर्तमान सामाजिक
स्थिति के खिलाफ विरोध दर्ज किया है और हाल में ही, सार्वजनिक रूप से
प्रतिष्ठित महिलाओं के नेतृत्व में हजारों महिलाओं ने संसदीय मताधिकार में उनकी
भागीदारी के लिए संसद में याचिका दायर की है। पुरुषों की तरह ही ज्ञान की कुछ
शाखाओं में महिलाओं को भी समान रूप से शिक्षित करने के अधिकार की माँग भी तेजी
से जोर पकड़ रही है और भविष्य में इसकी सफलता की सम्भावना भी अधिक हो गयी है।
अब तक जो व्यवसाय उनके लिए निषिद्ध थे, उनमें महिलाओं के प्रवेश की माँग भी हर
वर्ष प्रबल होती जा रही है। हालाँकि इस देश में अमेरिका की तरह समय-समय पर
महिलाओं के अधिकारों के लिए आन्दोलन करने के लिए सम्मेलन व सुव्यवस्थित दल नहीं
हैं, फिर भी यहाँ अनेक सक्रिय संस्थाएँ हैं जिनका संचालन महिलाएँ कर रही हैं और
वे राजनीतिक अधिकार पाने के अपेक्षाकृत सीमित उद्देश्य की ओर कार्यरत हैं। यह
सिर्फ हमारे देश या अमेरिका में नहीं है कि महिलाएँ लगभग संगठित तौर पर उन
असमर्थताओं का विरोध शुरू कर रही हैं, जिनमें बँध कर उन्हें कष्ट भोगना पड़ता
है। फ्रांस, इटली, स्विट्जरलैण्ड और रूस में भी इसी तरह के उदाहरण देखने को
मिलते हैं। और कितनी ऐसी महिलाएँ हैं जो मौन रहकर इन्हीं आकांक्षाओं के सपने
रखती हैं, कोई भी नहीं जान सकता। लेकिन इस बात के पर्याप्त संकेत मौजूद हैं कि
कितनी महिलाएँ इसकी इच्छा रखेंगी, अगर उन्हें अपने स्वभाव के विरुद्ध इतनी
कड़ाई से स्वयं को दबाना न सिखाया जाये। यह भी याद रखना चाहिये कि गुलाम बनाये
गये किसी भी वर्ग ने एकदम ही पूर्ण स्वतंत्रता की माँग नहीं की। जब सिमोन डि
मोण्टफोर्ट ने कॉमन्स के प्रतिनिधियों को पहली बार संसद में बैठने के लिए
आमंत्रित किया था, तो क्या उनमें से किसी ने भी एक ऐसी संसद की माँग करने का
ख्वाब भी देखा होगा जो उनके निर्वाचकों द्वारा चुनी गयी हो और उसमें
मंत्रिमण्डल बनाने व बिगाड़ने की ताकत हो और जो राजनीतिक मामलात में राजा को
सुझाव दे सके? उनमें से सर्वाधिक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति की कल्पना में भी ऐसा
विचार नहीं आया। कुलीनों में पहले से ही यह मिथ्याभिमान था और जनसाधारण निरंकुश
कर व्यवस्था और राजा के अधिकारियों द्वारा अत्याचार से मुक्ति के अलावा और कोई
माँग नहीं कर रहा था। यह एक स्वाभाविक राजनीतिक नियम है कि जो लोग किसी प्राचीन
समय से चली आ रही सत्ता के अधीन होते हैं, वे कभी भी आरम्भ में उस सत्ता का ही
विरोध नहीं करते बल्कि उसके अत्याचारपूर्ण प्रयोग का विरोध करते हैं। ऐसी
महिलाओं की कभी कोई कमी नहीं रही जो अपने पतियों द्वारा दुर्व्यवहार की शिकायत
करती हैं। यदि ये शिकायतें इस दुर्व्यवहार के दोहराव और वृद्धि का सबसे बड़ा
प्रेरक न होतीं, तो असंख्य और शिकायतें भी सुनने को मिलतीं। एक महिला की इस
सत्ता के दुरुपयोग से रक्षा करने के अलावा यह इस सत्ता को बनाये रखने के सभी
प्रयासों को विफल कर देती है। अन्य किसी भी स्थिति में (बच्चे को छोड़कर) वह
व्यक्ति जिसको, कानूनन यह सिद्ध हो चुका है, क्षति पहुँचाई गयी है वापस उसी
व्यक्ति की शारीरिक सत्ता के तहत नहीं रखा जा सकता जिसने उसे वह क्षति पहँचाई
है। इसीलिए वे पलियाँ शारीरिक तौर पर दर्व्यवहार के चरम केस में भी, शायद ही
कभी अपनी रक्षा के लिए बनाये गये कानूनों का इस्तेमाल करती हैं। और अगर, अति
क्रोध की हालत में या पड़ोसियों द्वारा दखलन्दाजी करने पर वे ऐसा करने के लिए
प्रोत्साहित होती भी हैं, तो बाद में उनका पूरा प्रयास रहता है कि वे कम से कम
बताएँ और अपने अत्याचारी शासक की सजा की माफी माँग लें।
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