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जीवन कथाएँ >> पीतांबरा

पीतांबरा

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :626
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1445
आईएसबीएन :9788170281436

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मीरा के जीवन पर आधारित लेखक द्वारा अपनी विशिष्ट शैली में रचित एक अत्यन्त रोचक उपन्यास...

peetambra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मीरा के जीवन पर आधारित लेखक द्वारा अपनी विशिष्ट शैली में रचित एक अत्यन्त रोचक एवं प्रामाणिक उपन्यास जो आधुनिक जीवन बोध के संदर्भ में भी इस संत कवयित्री की प्रासंगिकता को गहराई से रेखांकित करता है।
लेखक के अनुसार मीरा मात्र श्री कृष्णोपासिका नहीं थी अपितु वह एक निर्भीक समाज सुधारिका भी थी जिसने आज से प्रायः पांच सौ वर्ष पूर्व ही नारी जागरण का प्रथम शंख नाद किया था।

सती प्रथा के सदृश सड़ी- गली सामाजिक कुरीतियों को दृढ़ता से नकारनेवाली कृष्णप्रिया मीरा विश्व की उन कुछेक नारियों में है जो काल की शिला पर अपने अमिट हस्ताक्षर छोड़ जाने में सफल हुई है।
इस ऐतिहासिक औपन्यासिक कृति में मीरा सम्बन्धी विविध भ्रान्तियों को सफलतापूर्वक निरस्त कर तथा उसके जीवन से जुड़े चमत्कारों को विश्वसनीय रूप में रखने का प्रयास कर लेखक ने मीरा के व्यक्तित्व और कृत्तित्व को आधुनिक पाठकों के अत्याधिक समीप लाने का स्तुत्य प्रयास किया है।

यह उपन्यास मीरा के जीवन के विविध रूपों और आयामों को अत्यन्त रोचकता से चित्रित करता है।
कृष्णदीवानी मीरा पर आधारित यह उपन्यास प्रचलित भ्रान्तियों का निवारण करने के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण तथ्यों का विवरण प्रस्तुत करता है। उपन्यास में जो कुछ लिखा गया है वह इतिहास ही है जिसमें चरित्रों एवं घटनाओं को यथासम्भव सही परिप्रेक्ष्य में रखा गया है।

निवेदन


निवेदन की इन पंक्तियों में इतिहास है-इति वृत्त। आगे जो कुछ है वह उपन्यास है-ऐतिहासिक उपन्यास। उपन्यास लिखने के पूर्व इतिहास लिखने की विवशता इसलिए पड़ी कि किसी ने मीरा का प्रामाणिक इतिहास लिखने की आवश्यकता नहीं समझी। सामान्य इतिहासकार राजाओं, महाराजाओं शाशकों सामंतों के इतिहास लिखते हैं। वे राजनीति का इतिहास लिखकर अपने को धन्य करते हैं, साहित्य संस्कृति के इतिवृत्त से उनको कुछ लेना देना नहीं। वे अकबर का इतिहास बड़े गर्व से लिखेंगे क्योंकि वह निरक्षर भट्टाचार्य होते हुए भी लक्ष्मी पुत्र था, वे उसके नवरत्नों के वृत्तान्त में नहीं जायेंगे क्योंकि वे सरस्वती के वरद पुत्र थे और सरस्वती का वाहन उल्लू है। विद्वानों के लिए उल्लुओं से दूरी बनाए रहने में ही भला है।
वे विक्रमादित्य की वीरगाथा गाकर अपने को महिमामंडित करने का प्रयास कर लेंगे पर कालिदास के संबंध में आपको अंधकार में हाथ-पैर मारने को छोड़ देंगे-ढूंढ़िए उनके जन्म- स्थान और जन्म- तिथि को। हर्षवर्द्धन का इतिवृत्त आपको विस्तृत रूप में उपलब्ध करा दिया जाएगा। पर उनके चरित्र (हर्ष चरित्रम) को काव्यात्मक स्वरूप देने वाले कवि सम्राट् माघ के संबंध में माथा खुजलाते रहिए आप !

ऐसे में व्यास और बाल्मीकि का इतिहास कौन बताएगा ? भले ही व्यास ने वेदों को व्यवस्थित कर दिया हो अथवा अष्टादश पुराणों की रचना कर दी हो और बाल्मीकि ने संस्कृत के प्रथम विशाल महाकाव्य को रच दिया हो। राम के पिता का नाम तो सभी बता देंगे कोई बाल्मीकि के जनक का नाम भी तो बता दे !
खैर बाल्मीकि, व्यास, माघ और कालिदास तो भूतकाल के खंडहरों के कंकाल हैं, इनकी बात छोड़ भी दीजिए तो हाल-हाल के साहित्यकारों और सरस्वती पुत्रों- पुत्रियों के साथ ही किसने न्याय किया है ?
सूर तुलसी विद्यापति कबीर और मीरा के साथ अब भी कितना न्याय हुआ है ? कितने पृष्ठ उपलब्ध हैं इनके जीवन पर ? और कितनों की जन्म- तिथि, जन्म- स्थान और निर्वाण- तिथि को निर्णयात्मक रूप में घोषित किया गया ?
राजनीतिक इतिहासकार राजनेताओं का इतिहास लिखता है तो साहित्य-इतिहास लेखक क्या करते हैं ? कितना समय देते हैं वे वास्तविक शोध और गवेषणा को ?

बन्द कमरे में विवादास्पद स्थल और तिथियां नहीं तय होतीं। शोध केवल पुस्तकालयों की पुस्तकों और पांडुलिपियों के पुनर्पुनर्दोहन का नाम ही नहीं है। संदिग्ध और अनिर्णित सूचनाओं से भरी ये पुस्तकें तथ्यों को नए सिरे से उलझाने के सिवा और कुछ नहीं करती। प्रायः सभी साहित्यकारों के साथ ही किया गया है।
मीरा के साथ भी यही हुआ है।
‘टेबुल-धर्मा’ शोधकर्मी तथ्यों के तह तक कभी नहीं पहुंच सकते। हंसी आती है कि मीरा के संबंध में कितने स्वयं भू अधिकारी और अधिकारिणी पैदा हो गए हैं पर वे अभी तक मीरा की जन्म तिथि; जन्म-स्थान और मृत्यु तिथि के संबंध में भी एकमत नहीं हुए हैं।
यह कार्य कठिन नहीं था। पर कमरे और पुस्तकालयों की चहारदीवारियों में कैद होकर इसे किया जाएगा तो यह कठिन होगा ही।

आश्चर्यचकित होना हो तो होइए पर अभी तक ऐसे लोग हैं जो इस बात को लेकर विवाद खड़ा करते हैं कि मीरा का जन्म मेड़ता में हुआ या कुड़की में। यद्यपि मात्र मेड़ता और कुड़की की यात्रा यह भेद खोल सकती है। पर कितने हैं हमारे साहित्य इतिहासकार अथवा मीरा पर शोधकर्ता अथवा मीरा पर शोधकर्ता अथवा शोधकर्मी जो कुड़की तक जा भी पाए हैं ? यह तो कुड़की जाने के बाद ही मुझे लगा कि यहां तक आने का शायद ही किसी साहित्यकार अथवा विद्वान ने कष्ट किया हो क्योंकि कुड़की तक पहुंचने में मुझे ही नाना विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ा। मेड़ता से कुड़की तक की मात्र प्रायः पचपन किलोमीटर की सड़क को अभी पूरी तरह पक्की नहीं किया गया है। मेरी भाड़े की जीप कई स्थानों पर राह की रेत में फंसी और कई बार उसे मुझे अपने हाथों भी धक्का देना पड़ा। प्रातः का मेड़ता से चला में सायं ही कुड़की पहुंच सका। ऐसी स्थिति में कुड़की जाने की कौन सोचे, पुस्तकालयों की पुस्तकें और अधकचरे प्रकाशित-अप्रकाशित शोध प्रबन्ध जिन्दाबाद !
जी यह टेबुल प्रोडक्ट पुस्तक नहीं है। नहीं है यह आधारित मात्र भ्रमपूर्ण कृतियों और मीरा की अनेक पदावली पुस्तकों के पूर्व लिखित कुछेक नन्हीं भूमिकाओं पर।

मैंने इस ऐतिहासिक उपन्यास को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए मीरा से संबंधित सभी स्थानों की यात्रा की। वहीं के लोगों से बातचीत की, वहाँ संचालित शोध संस्थाओं से सम्पर्क किया और फिर मैं अपने निजी निष्कर्ष पर पहुंचा। तो मेरी यात्राओं से मीरा का संक्षिप्त इतिवृत्त निम्नप्रकार से बनता हैः
मीरा का जन्म कुड़की में हुआ। कुड़की एक बड़ा सा ग्राम है जहां सामान्यतः मेड़ता से पहुंचते हैं। मेड़ता, अजमेर से पक्की सड़क द्वारा जाते हैं और अजमेर से मेड़ता की दूरी कोई अस्सी किलोमीटर है।
कुड़की में मीरा का वह पितृ-गृह जहां उसने जन्म ग्रहण किया था, आज भी पूरी तरह सुरक्षित उपलब्ध है। पत्थर का यह छोटा सा दो मंजिला मकान कहीं से पूरी तरह सुरक्षित उपलब्ध है। पत्थर का यह छोटा सा दो मंजिला मकान कहीं से क्षतिग्रस्त नहीं हुआ है। उसके समक्ष एक नन्हा सा श्रीकृष्ण मंदिर भी है जिसमें मीरा के पिता रतन सिंह और फिर नन्हीं मीरा कृष्णोपासना करते थे।

इन स्थानों के सुरक्षित रहने का कारण है और वह यह कि उन्हें एक बड़े से किले के अन्दर समेट लिया गया है। ऐसा किला मेड़ता में भी नहीं है। यह किला वस्तुतः दर्शनीय है और स्थापत्य कला का एक अप्रतिम नमूना भी।
नहीं, उस किले को मीरा के पिता रतन सिंह ने नहीं बनाया। नहीं बनाया इसे रतन सिंह के किसी वंशज ने। इसे बनाया बहादुर सिंह ने जिन्होंने कुड़की की जागीर को जो रतन सिंह के वंशजों के हाथ से निकल गई थी, अपने बाहुबल से विजित किया। बहादुर सिंह ने भले ही अपनी जागीर और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए यह किला बनवाया हो पर मीरा के जन्मगृह तथा श्रीकृष्ण मन्दिर को इसके अन्दर लेकर उन्होंने जाने अनजाने सरस्वती का भी बहुत बड़ा उपकार कर दिया। अभी भी इस किले में पुष्पेन्द्र जी रहते हैं। किला-निर्माता बहादुर सिंह जी श्री पुष्पेन्द्र सिंह के पिता के पिता के पिता अर्थात् परदादा थे।
जैसा कहा गया कुड़की का किला साधारण किला नहीं है। जो वहां तक नहीं पहुंचा वह अफसोस के सिवा और क्या कर सकता है और उसे मीरा की जन्मभूमि के संबंध में किधर से प्रामाणिक ज्ञान मिलेगा ?
मेरा यह सौभाग्य था कि मुझे कुड़की के कई लोगों से मिलने का अवसर जिनमें प्रसिद्ध हैं विजयराज जैन सरपंच, मौन सिंह राठौर, विजयराज पद्मराज गादिया तथा श्री पुष्पेन्द्र सिंह के पुत्र महेन्द्र सिंह आदि।
साठ वर्षीय मौन सिंह राठौर ने कुड़की के किला के सम्बन्ध में एक लोकोक्ति कही जो बड़ी सटीक है और जिससे स्पष्ट है कि जोधपुर से लेकर कुड़की तक नौ किले थे जिनमें कुड़की का किला सर्वश्रेष्ठ है। उक्ति इस प्रकार है।

‘‘कुड़की तेरा कोटरा
नौ खूंटी की नाक।’’
-कुड़की तुम्हारा किला नौ किलाओ की नाक है।

नियति ने कुड़की को यों ही मीरा के सदृश्य काल-विजयित्नी नारी के जन्म के लिए नहीं चुना था। कुड़की एक अत्यन्त ही प्राचीन ऐतिहासिक स्थल है और इसका इतिहास मीरा पूर्व से आरम्भ होता है। यह जैनियों के लिए एक पवित्र स्थल है और यहां पारसनाथ जैन का मन्दिर स्थित है। शैवों का भी यह आकर्षण केन्द्र है क्योंकि यहां नीलकंठ महादेव का अत्यन्त प्रसिद्ध मन्दिर है जिसके समक्ष एक रमणीय बाग भी है जिसमें कई संत साधक आज भी साधानारत हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये मंदिर मीरा के जन्म से भी पूर्व के हैं।
अरावली पर्वत माला की एक श्रृंखला कुड़की के पार्श्व से गुजरती है। कुछ महलों के भग्नावशेष भी किले के आसपास बिखरे मिलते हैं। ये कुड़की की प्राचीन महत्ता को प्रतिपादित करते हैं। कुड़की वस्तुतः एक तीर्थ स्थल है-जैनियों का, हिन्दुओं का और यह जैसा कहा गया सर्वथा स्वाभाविक ही है कि कालदेवता ने एक श्रीकृष्णभक्ता के जन्म के लिए इस तीर्थ भूमि को ही सर्वथा उपयुक्त समझा। कुड़की अब एक साहित्य-तीर्थ भी है।
कुड़की के लोगों को इस बात का पूरा एहसास है और गर्व भी कि मीरा के सदृश साध्वी कवयित्री यहां पैदा हुई।
और अब उन लोगों को क्या कहिएगा जो बन्द कमरों में बैठ इस बात पर बहस करते हैं कि मीरा ने कुड़की में जन्म लिया या मेड़ता में ?

मैंने मेड़ता में भी लोगों से पूरी तरह पूछताछ की और किसी मेड़तावासी ने मीरा का जन्म स्थल मेड़ता नहीं बताया। सभी ने इसका श्रेय कुड़की को दिया। पर आश्चर्य की बात है कि अधिकांश मेड़तावालों को भी यह पता नहीं कि कुड़की में क्या कुछ बचा है। कइयों ने मुझे हतोहत्साह भी किया, ‘‘कुड़की जाकर क्या पाइएगा ? यही एकाध खंडहर मिल जायेंगे।’’ ऐसी परिस्थिति में अगर दिल्ली, आगरा, यहां तक कि जयपुर और उदयपुर में बैठा विद्वान भी कुड़की को लेकर कुछ नहीं जानता हो तो उसमें आश्चर्य क्या ? पर क्या इतने से ही कम से कम उनको क्षमा किया जा सकता है जो अपने को साहित्य इतिहास लेखक अथवा मीरा के शोधकर्ता ही नहीं उसका अधिकारी विद्वान भी मानते हैं ?
मेड़ता, मीरा के पिता के पिता राव दूदा की राजधानी थी। उनका किला जहां वे अपने अस्त्र-शस्त्र रखते हैं और सुरक्षा की दृष्टि से स्वयं भी अक्सर जहां रहते थे आज ध्वंसावस्था में है। वह किला एक बड़े सरोवर के किनारे निर्मित था जिसका एक हिस्सा आज भी उपलब्ध है और कमल पुष्पों से ढंका है। इस किले के कुछ खंडहर मुख्य ध्वंसावशेष से दूर- दूर तक फैले मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि राव दूदा का यह किला पर्याप्त बड़ा था।

राव दूदा का पारिवारिक महल इस किले से सर्वथा पृथक नगर के प्रायः मध्य में था। यह छोटा महल आज भी सुरक्षित है। पर अफसोस है कि इस महल को एक स्मारक का रूप न देकर इसमें एक उच्च विद्यालय चलाया जा रहा है। ज्ञातव्य है कि मीरा चार पांच वर्ष की उम्र में ही कुड़की से, राव दूदा के इसी महल में आ गई थी और यहीं से उसका विवाह भी सम्पन्न हुआ था। इसी महल के पार्श्व में प्रसिद्ध चतुर्भुज मन्दिर अवस्थित था जिसमें राव दूदा और मीरा उपासना किया करते थे।
मन्दिर का जीर्णोद्धार कर इसका पुनर्निर्माण कर लिया गया है और इसे एक भव्य रूप प्रदान किया गया है। मन्दिर में स्थापित चतुर्भुज मूर्ति को वही प्राचीन मूर्ति बताया जाता है जो मीरा और राव दूदा द्वारा पूजित थी।
मन्दिर परिसर में मीरा- मूर्ति भी स्थापित है जिसके पाद प्रदेश में मीरा का जन्म संवत् 1561 (1504 ई.) विवाह संवत् 1573 (1516 ई.) और मृत्यु संवत् 1607 (1550 ई.) अंकित है।
मेड़ता में एक शोध संस्थान भी अवस्थित है जिसमें भी मीरा का जन्म संवत् 1561 और मरण संवत् 1607 ही बताया जाता है।
इस तरह मीरा की आयु मात्र छियालीस (46) वर्ष निश्चित होती है।
अब मेड़तावासी तो मीरा की आयु को घटाकर नहीं कहेंगे क्योंकि अक्सर लोगों में यह प्रवृत्ति होती है कि वे संत महात्माओं अथवा साधक- साधिकाओं की उम्र को बढ़ा-चढ़ाकर कहें ?
ऐसी स्थिति में उन विद्वानों और साहित्यकारों को आप क्या कहेंगे जो मीरा की उम्र को साठ से अस्सी वर्ष तक खींच ले जाते हैं ?

मैं मेड़ता में जिन व्यक्तियों से मिला उनमें प्रसिद्ध हैं वृन्द ज्योति पाक्षिक के सम्पादक श्री वीरेन्द्र वर्मा, साहित्यकार श्री राज मेहरा और समाजसेवी श्री टिकन चौहान।
इन सबों ने बताया कि सभी मेड़तावासियों और आसपास के लोगों को इस बात का गर्व है कि मीरा मेड़ता में पली-बढ़ी थी, यहां की थी।
यह बात इस मनगंढ़त किस्से को भी झुठलाती है कि मीरा के पद नीची जातियों और आदिवासियों में ही अधिक लोकप्रिय हैं और सम्भ्रान्त लोग अब भी मीरा के प्रदेश में ही उसे सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखते।
यही बात चित्तौड़ में भी मुझे मिली। मैंने जिन लोगों से पूछताछ की उन्होंने मीरा को चित्तौड़ का गौरव ही बताया।
मुझे यह देखकर प्रसन्नता ही हुई कि चित्तौड़गढ़ में वह मन्दिर आज भी पूर्णतया सुरक्षित है जिसे मीरा के श्वसुर महाराणा सांगा के कहने पर भोजराज ने मीरा के लिए बनवाया था। इसे अब मीरा मन्दिर के नाम से ही जाना जाता है और इसमें नियमित पूजा-अर्चना सम्पन्न होती है।
वृन्दावन में मीरा ने पर्याप्त समय बिताया। जहां वह रहती थी वहां एक प्राचीन मन्दिर, मीरा मन्दिर के नाम से निर्मित है।
जीव गोस्वामी से उसके मिलने की बात भी प्रसिद्ध है। जीव गोस्वामी का समाधि स्तम्भ अभी सुरक्षित है।
अब एक दो बातें और।

मीरा और गोस्वामी जी के मध्य पत्राचार की बात को कई लोगों ने स्वीकारा है और कई लोगों ने इसे नकारा भी है। मैंने इसे स्वीकारा है। मीरा का जन्म 1561 संवत् में और गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1554 संवत् में हुआ, अतः तुलसी मीरा से सात वर्ष बड़े ठहरते हैं और मीरा के प्रायः समकालीन होते हैं, अतः इनके मध्य पत्राचार सर्वथा संभव है। यह पत्राचार संभवतः मीरा की उम्र के चालीसवें वर्ष के आसपास हुआ होगा क्योंकि मीरा जैसा कि ऊपर लिखा गया केवल 46 वर्षों तक जीवित रही यद्यपि गोस्वामी ने 126 वर्षों की आयु प्राप्त की।

मीरा के गुरु को लेकर भी कई बातें उठाई गई हैं। कई लोगों ने उसे रैदास की शिष्या बताने का भी प्रयास किया है। मैंने इसे मान्यता नहीं दी है। जिसने श्रीकृष्ण को ही सर्वस्व मान लिया उसे किस गुरु की आवश्यकता ? कृष्ण तो स्वयं जगत गुरु हैं-कृष्ण वन्दे जगद्गुरुम। यह बात पृथक है, कि मीरा रैदास के कुछ सिद्धांतों से सहमत हो, अतः उसने अपने कुछ पदों में रैदास को सैद्धांतिक गुरु के रूप में स्वीकारा हो।
इसी प्रकार कई लोगों द्वारा प्रचारित अकबर और मीरा की भेंट को भी मैंने नकार दिया है। अकबर का जन्म 1542 ई. में हुआ था और मीरा का 1504 ई. में। इस तरह अकबर मीरा से 40 वर्ष छोटे होते हैं। जिस समय मीरा की मृत्यु हुई उस समय अकबर मात्र छह (6) वर्ष के थे। ऐसी स्थिति में किधर से संभव है मीरा के स्वर माधुर्य द्वारा आकृष्ट हो अकबर का तानसेन के साथ मीरा के दर्शन को जाना ?

ऐसी ही बे- सिर- पैर की बातें मीरा के इतिहास के रूप में उपलब्ध हैं। इसीलिए मैंने मीरा के संक्षिप्त इतिहास को ऊपर अंकित किया जिसके आधार पर आगे की कथा आधारित है-‘‘उपन्यास की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए आगे जो कुछ लिखा गया है वह भी इतिहास ही है क्योंकि चरित्रों और घटनाओं को यथासम्भव सही परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। अतः यह पूरी पुस्तक उपन्यास होते हुए भी एक तरह से मीरा की जीवनी भी है।’’
मैं इस कृति को प्रस्तुत कर, यद्यपि इसमें काफी श्रम पड़ा है, एक ऋण-मुक्ति का सुख-सा अनुभव कर रहा हूँ। मैं भी एक छोटा सा कृष्ण भक्त अपने को मानता हूं (मात्र इसिलए नहीं कि मैंने कृष्ण पर दो खंडों-‘प्रथम पुरुष’, प्रभात प्रकाशन, चावड़ी बाजार, दिल्ली और ‘पुरुषोत्तम- राजपाल एण्ड सन्स कश्मीरी गेट, दिल्ली में एक उपन्यास लिखा है) और मीरा तो सर्वथा वन्दनीया प्रातःस्मरणीया कृष्णभक्ता थी ही। मीरा के सम्बन्ध में प्रचलित विभिन्न भ्रान्तियों का निवारण कर और उसकी कथा को भरसक सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर मैंने एक ऋण शोधन ही तो किया है। मैं किसी और के प्रति होऊं या नहीं अपने इष्टदेव पवनपुत्र हनुमान अपनी इष्टदेवी आरण्य देवी और तुलजाभवानी तथा अपने आराध्य स्वयं श्रीकृष्ण के प्रति अत्यन्त आभारी अवश्य हूं जिनकी कृपा से ही यह महत् और श्रम साध्य कार्य सम्पन्न हो सका।

इस पुस्तक के लिखने के लिए जिन लोगों ने मुझे प्रेरित किया है उनमें उल्लेखनीय हैं वयोवृद्ध साहित्यमनीषी डा. माहेश्वरी सिंह महेश, विश्रुत विद्वान एवं समर्थ समीक्षक डा. मेधाव्रत शर्मा, श्रीएन.सी. शर्मा और उनका परिवार ज्योत्सना संपादक श्री शिवेन्द्र नारायण नवनीत संपादक श्री गिरिजाशंकर त्रिवेदी युवा साहित्यकार और मेरी पुस्तक पहला सूरज तथा पवन पुत्र से सम्बन्धित समीक्षा ग्रंथों के संपादक श्री शिवनारायण मेरे व्यक्तित्व और कृतित्व पर शोध कार्य सम्पन्न कर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त करने वाले प्रखर रचनाधर्मी डा. कुणाल कुमार तथा मेरे शुभेच्छु डा. वचनदेव कुमार, डा. वालेन्दु शेखर तिवारी, सुप्रसिद्ध विद्वान एवं रचनाधर्मी डा. पुष्पपाल सिंह नव स्वच्छन्दतावादी समीक्षक डा.अजय सिंह, पटना के साहित्यकार श्री परमानन्द दोषी, सुदामा मित्र तथा सुप्रसिद्ध समीक्षक डा. अमर सिंह।

इस क्रम में राजभाषा विभाग के श्री विश्वेश्वर दास, प्रभातचन्द्र शर्मा तथा कंकड़ बाह पटना योग संस्थान के संस्थापक निदेशक स्वामी ऋतजानन्द सरस्वती के नाम को भी उल्लिखित करना आवश्यक है।
मेरी बहन गीता और उसके पति श्री रामसिंहासन पांडे जिस तरह मेरी हर कृति की आतुरता से प्रतीक्षा करते हैं, इसलिए उनको भी स्नेह। मेरे भागिनेय श्री बैद्यनाथ पाठक भी मेरी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं।
विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। पटना के ही श्री देवेन्द्र चौधरी जिन्होंने अपनी अस्वस्थता के बावजूद इस ग्रंथ की पांडुलिपि तैयार करने में अथक श्रम किया। अगर श्रीकृष्ण सचमुच भक्तों के योगक्षेम का वहन करते हैं (योग क्षेमं वहाम्यहम्-गीता, अध्याय 5 श्लोक 22) तो उनसे मेरी एकांत कामना होगी कि वे इस व्यक्ति को दीर्घायु करें। इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न करने हेतु बार-बार मेरा उत्साहवर्धन के लिए श्री मो. नसीम (राजभाषा विभाग) श्री जगत नारायण राय तथाश्री अरविन्द राय को भी मेरा स्नेह।

राजपाल एण्ड सन्स के श्री ईश्वरचन्द्र जी, वहीं के श्री सतीश कुमार जी, विक्रय प्रभारी श्री अंजनी कुमार मिश्रा ने भी इस पुस्तक की शीघ्र समाप्ति के लिए मुझे प्रेरित किया है। वे भी धन्यवाद के पात्र हैं।
अन्त में प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान राजपाल एण्ड सन्स के स्वत्वाधिकारी बहु पठित, साहित्य मर्मज्ञ श्री विश्वनाथ जी को कैसे भूला जा सकता है जो मेरी हर नई कृति की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री से करते हैं और उसे अत्यन्त आकर्षक रूप प्रदान करने हेतु कुछ भी उठा नहीं रखते ?


पटना मकर सकांति
दिनांक 14-1-92


डा. भगवतीशरण मिश्र


एक



युद्ध ? नहीं। मानवता के देदीप्यमान भाल का सर्वाधिक कुल कलंक है यह युद्ध सर्वाधिक विद्रूप और निन्दनीय। कब चाहा है मीराबाई के पितामह राव दूदा ने युद्ध ? यह नरमेध, यह पैशाचिकता मानव के अन्दर ही मानव रक्त की यह सदा अतृप्त पिपासा। कब उठने देती है यह मनुजता को पशुता के धरातल के ऊपर ? क्षुद्र स्वार्थों, संकीर्ण आकांक्षाओं अनावश्यक दम्भ और जातीय विद्वषों ने मनुष्य को नृशंस और अन्यायी बना कब उसे पशु के पृथक होने दिया ? आज भी वह अन्दर से वही आदिम आखेटक पशु है जो वन्य जीवों के संहार द्वारा ही अपनी उदर पूर्ति को बाध्य था। अन्तर इतना ही कि आज जहां एक तरफ वह निरीह मूक पशुओं का आखेट अपनी क्षुधाग्नि को शान्त करने के निमित्त करता है वहीं दूसरी तरफ अपनी महत्वाकांक्षा राज्य और प्रभाव विस्तार की अंधी अभिलाषा से प्रेरित हो अपने ही हाथों अपनी ही जाति के रक्त से धरती को रंजित कर स्वयं को गौरवान्वित समझता है। आदमियों की लाशों के ढेर पर खड़ा आदमी ही स्वयं को विजयश्री से मंडित मानता है। अपने मिथ्याभिमान की तुष्टि करता है।
नहीं, युद्ध नहीं चाहते राव दूदा।

वे साधु-स्वभाव के, मृदुल प्रकृति के व्यक्ति अपने नन्हें राज्य मेड़ता में शान्तिपूर्वक रहना चाहते हैं, दूसरों को भी उसी प्रकार रहने देना चाहते हैं। पश्चिम भारत के एक विशाल भू-भाग में विस्तृत राजपूतों के गढ़ राजपूताना का एक छोटा सा नन्हा-सा पर धन धान्य से पूर्ण सुख-शान्ति से भरपूर उनका यह मेड़ता सदा राजपूताना के ही अन्य शासकों की विस्तार- नीति और आक्रामक प्रवृत्ति का लक्ष्य रहा है। मरु-कान्तार के मध्य किसी मनोहारी मरुद्यान (ओयसिस) की तरह अथवा खूंखार लहरों से उद्वेलित सागर के मध्य बसे किसी आकर्षक भूखंड की तरह यह मेड़ता आसपास के क्षत्रीय-नरेशों की हिस्र-प्रवृत्ति और साम्राज्य- विस्तार की क्षुद्र पिपासा से सदा सशंकित और समय-समय पर पीड़ित होता रहा है। फिर भी युद्ध नहीं चाहते दूदा।

ऐसा नहीं कि वे कायर हैं-का पुरुष मनुष्य शोणित की एक बूंद ही जिसे मूर्छित कर देती है, युद्ध के मैदान में पीठ दिखाना ही जो अपने चातुर्य और कौशल की प्रतिष्ठा मानता है। नहीं, यह बात नहीं। पर इसका वे क्या करें कि क्षत्रियोचित हिंस्र भावना के बदले उनके अन्दर बसती हैं मानवता और बन्धुत्व की कोमल भावनाएं ? कि नर पशु के घृणित धरातल से उठकर वह एक सम्पूर्ण मानव के रूप में अपने को और हो सकेगे तो अधिकांश मनुष्यों को प्रतिष्ठित करना चाहते हैं ? उन्होंने पूर्वजों से सुना है, पुस्तकों ग्रंथों में पढ़ रखा है कि युद्ध ही सच्चे क्षत्रिय का एकमात्र धर्म है-एकान्त कर्म। पर फिर भी युद्ध से उन्हें घृणा है, वितृष्णा की सीमा तक चिढ़ मनुष्य के हाथों मनुष्य की होली न वे खेलना चाहते हैं न देखना।


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