योग >> योग निद्रा योग निद्रास्वामी सत्यानन्द सरस्वती
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योग निद्रा मनस और शरीर को अत्यंत अल्प समय में विक्षाम देने के लिए अभूतपूर्व प्रक्रिया है।
अचेतन में प्रवेश
जिस प्रकार मानव स्थूल शरीर के प्रति सदा सजग रहता है, उसी प्रकार वह प्राणिक, मानसिक एवं आत्मिक शरीर के प्रति भी सदा सजगता प्राप्त कर सकता है। योग निद्रा में इस सजगता को पाने के लिए चेतना को बढ़ावा देने और उसे विस्तृत करते जाने के लिए ही अभ्यास कराया जाता है। जब योग निद्रा के अभ्यास के मध्य व्यक्ति अपनी बाह्य चेतना को खो देता है तब उसकी सजगता अंदर के विभिन्न भागों में घूमना शुरू कर देती है। अभ्यास के द्वारा इसे अवचेतन की गहराई तक उतारा जा सकता है।
योग निद्रा द्वारा शारीरिक सजगता से लेकर आंतरिक अवस्था तक पहुँचने में व्यक्ति चेतन मन के मनोराज्य में रहता है। उसके बाद मन अचेतन के राज्य में रहता है जहाँ निद्रा तथा स्वप्न का स्थान है। यहाँ पर भी सजगता के धागे अक्षत रहते हैं, टूटते नहीं हैं। यहाँ चेतना अंतर्मुखी हो जाती है और व्यक्ति अपने मानसिक धरातल पर स्वप्न व दृश्यों के प्रति सजग हो जाता है। इस स्तर पर आते-आते योग निद्रा के अभ्यास में आत्मज्ञान तथा स्मृति बढ़ाई जा सकती है। अपने स्वभाव को बदल कर व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
मन से आत्मा की ओर सजगता बढ़ाने में व्यक्ति को आत्मिक ज्ञान और अनुभव तथा भविष्य का ज्ञान होने लगता है। इस स्तर पर आकर अभ्यासी साधक एक विशेष प्रकार की ग्रहण शक्ति से भर उठता है और अपने को चमत्कारिक रूप से बदला हुआ महसूस करता है। शरीर की इस स्थिति पर आकर व्यक्ति भूत-भविष्य-वर्तमान तथा अन्य अनुभवों से परिचित होकर दिव्य बन जाता है।
योग निद्रा में भी इस अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है, पर वह इस अभ्यास का मकसद नहीं है, इसकी सीमा नहीं है। योग निद्रा में क्या पाया जाता है, क्या नहीं; वह आत्मिक उपलब्धि के दृष्टिकोण से मनुष्य का लक्ष्य नहीं है। ये चमत्कार अल्पकालिक प्रलोभन मात्र हैं, जैसे किसी बच्चे को कोई खिलौना प्राप्त हो जाये। इसकी साधना की अंतिम मंजिल तो स्वत्व की प्राप्ति है।
योग निद्रा की अंतिम सीढ़ी है - शरीर से ऊपर समरसता की प्राप्ति, जहाँ आकर सारी मानसिक उथल-पुथल, वासनायें लुप्त हो जाती हैं। जहाँ न कोई तुम है, न मैं है, न दूरी है, न समय है, केवल आनन्द ही आनन्द है। यही योग निद्रा के अभ्यास का उद्देश्य है - अवचेतन के अंधकार की गहरायी को भेद कर प्रकाश में लाना और चिदानन्द की अनुभूति से ओत-प्रोत हो जाना।
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