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नाटक-एकाँकी >> दरिंदे

दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1454
आईएसबीएन :00000

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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक


शीला: यह तो बताया ही नहीं, आपने कि काम क्या करते हैं आप ?
मोती: अगर वकील के शब्दों में कहूँ, तो शरीफ़ों-जैसा कोई काम नहीं करता मैं। वैसे यह जानते हैं, मेरा पेशा आवारागर्दी है। तुम्हारे लिए इतना ही जान लेना काफ़ी है।
शीला: बड़े दिलचस्प हैं आप !
मोती: वकील साहब, एक बात तो आपने बतायी ही नहीं। शीला उम्र में मुझसे बड़ी है या छोटी ?
दीन: छोटी है।
शीला: आप लोग शायद ज़रूरी बातें कर रहे थे, मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया ?


दीन: नहीं। नहीं तो.........
मोती: बिल्कुल नहीं। शीला, तुम्हारे और वकील साहब के बीच यहाँ बैठे हुए मुझे अच्छा लग रहा है।
शीला: शायद अब वह नहीं आयेगा डैडी !
दीन: मुझे भी यही लगता है। तुम जाकर सो जाओ। ग्यारह बजने को हैं।
मोती: बड़ी बेचैनी से राह देख रही है शीला उसकी। कोई काम अटक रहा है उसके बिना, या......
शीला: डैडी, आप इनसे क्यों नहीं कहते ? शायद यह उस सिलसिले में हमारी मदद कर सकें।
दीन: तुम बिशन को जानते हो मोती।
मोती: बिशन। हाँ, बहुत अच्छी तरह। वह और मैं एक साथ आवारगी की गोद में पले, बड़े हुए हैं और एक ही टोली में रहे हैं। मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ।
दीन: तुम एक काम कर सकते हो हमारा ?
मोती- क्या ?

दीन: पहले यह बताओ कि तुम इस बात को अपने ही तक रखोगे ?
मोती: आप मुझ पर पूरा भरोसा कर सकते हैं।
दीन: तो तुम.......तुम बिशन से शीला के पत्र लौटाने के लिए कह सकते हो ? वह बदमाश हमारी खुशियों में जहर घोलने की कोशिश कर रहा है।
शीला: वह मुझे ब्लैकमेल करके मेरे भविष्य के साथ खिलवाड़ करना चाहता है।
मोती: मैं कह सकता हूँ, वह चिट्ठियाँ लौटा देगा। पर उसे इसके लिए कुछ देना होगा।
दीन: तुम्हें भी क्या ? अच्छे-खासे ताल्लुक़ात के बाद भी।
मोती: जो अपने होते हैं, वे ही चोट पहुँचाते हैं।
शीला: आज मालूम हुआ, लोग कीच़ड़ उछालने में किसी के साथ कोई रियायत नहीं करते।
मोती: जान-पहचान और अपने-अपने पेशे की माँग, दोनों अलग-अलग बातें हैं।
दीन: ताल्लुक़ात की बिना पर तुम उससे पत्र वापस तो ला सकते हो।
मोती: हाँ। लेकिन मैं ऐसा करूँगा नहीं। बिना कुछ दिये उससे यह काम कराने की मुझमें हिम्मत नहीं है।
शीला: यानी आप भी बिशन से डरते हैं, या.........
दीन: मैं समझ गया। तुम खुद मुआवज़ा माँग रहे हो मुझसे। उसके बहाने तुम मुझी से पैसा ऐंठोगे, इसकी उम्मीद कर सकता हूँ मैं तुमसे। तुम ठीक ही कहते हो, जो अपने होते हैं, वही चोट पहुँचाते हैं। मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। मोती, तुम्हारे शरीर से मेरे ख़ून का रिश्ता भी जुड़ा हुआ है। मुझे आज भी वे दिन याद हैं.......

(संगीत। मंच पर अंधेरा। बायें कोने में प्रकाश आता है। स्त्रियों का वार्तालाप। पूर्वदृश्यांकन)

स्त्री: मैं कहती हूँ, निकल जा मेरे घर से। अभी। इसी समय। जिस थाली में खाया, उसी में छेद करते शर्म नहीं आयी तुझे।
दीन: तुम तो फ़जूल बात बढ़ा रही हो !
(जमना रो रही है।)
स्त्री: तुम चुप रहो जी। इस घर में अब या तो यह रहेगी या......
दीन: क्यों जग हँसा रही हो ?
जमना: मैं चली जाती हूँ, बाबूजी ! पर यह ध्यान रखना, इस दुनिया में मेरा कोई नहीं है।
दीन: जमना !

(दृश्य लुप्त हो जाता है। संगीत। दीनदयाल अपने मंच पर पुन: प्रकाश आने से पूर्व अपने स्थान पर आकर बैठ जाते हैं। पूरा मंच आलोकित होता है।)

दीन: तब तुम जमना के पेट में पल रहे थे। मैंने जमना को सहारा दिया। उसकी ग़लती में मैं बराबर का शरीक था......
शीला: डैडी, क्या जमना से आपके संबंध.........
दीन: मैंने इसी शहर में जमना के लिए अलग मकान लिया। तुम्हारी और उसकी छह-सात साल तक परवरिश की। तुम्हें पढ़ाने-लिखाने की कोशिश की। जो कुछ मैं तुम लोगों के लिए कर सकता था, मैंने किया। फिर जमना का देहान्त हो गया और तुम......आवारगी की गोद में चले गये, मोती ! क्या उन सारे अहसानों के बदले में मैं तुमसे अपना एक काम करने के लिए नहीं कह सकता ?
मोती: अब जब संबंधों और अहसानों की बात आ ही गयी है, तो मैं आप से एक बात पूछूँ ?
दीन: हाँ, हाँ, पूछो।
मोती: अगर आप इस बात का जवाब ‘हाँ’ में देंगे, तो मुझे बेहद खुशी होगी। आप तो जानते हैं, वकील साहब, मैं जीवन-भर प्यार के लिए तरसता रहा हूँ।
दीन: तुम कहो तो......
मोती: क्या आप दिल से भी मुझे अपनी औलाद मानते हैं ?
दीन: इससे मैंने कभी इनकार किया है ?
मोती: तो अपनी जायदाद में आपको मेरा हिस्सा मानना होगा।
दीन: नहीं, यह नहीं हो सकता।
मोती: क्यों ?
दीन: इसलिए कि तुम मेरी......तुम मेरी जायज़ औलाद नहीं हो।
मोती: मैं पाप की औलाद हूँ। यह जानकर मैं अपने को बहुत छोटा समझकर जीता रहा हूँ, पर आत्मग्लानि के बोझ को लेकर जीना आसान नहीं है। एक तरफ़ आप मुझसे अपने संबंध की बात करते हैं। ख़ून का रिश्ता बताते हैं। और दूसरी तरफ़ आप मेरा कोई हक़ नहीं मानते। आप दो तरह की बातें करते हैं। मैं तो एक ही तरह की बातें करता हूँ। मेरे तो दो ही रूप हैं। बुरा तो है ही, शायद थोड़ा-बहुत अच्छा भी हो। आज मैं आपके पास ख़ून का मुक़दमा लेकर आया हूँ। आप चाहें, तो मुझसे पूरी-पूरी सौदेबाजी कर सकते हैं !

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