नाटक-एकाँकी >> दरिंदे दरिंदेहमीदुल्ला
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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक
दीन: सौदेबाजी की बात उनसे की जाती है, जो अपने नहीं होते।
मोती: और अहसान की बात उनसे की जाती है, जो अपने होते हैं ? आपने मुझ पर
या मेरी माँ पर जो अहसान किये हैं, मैं आज उन सबका बदला चुका देना चाहता
हूँ। आप बेफ्रिक़ रहें। आपकी, या शीला की, या आपके ख़ानदान की इज़्ज़त पर
कोई आँच नहीं आयेगी। मुझसे जो कुछ हो सका, करूँगा।
दीन: इसीलिए मैं तुम्हें इस वक़्त पुलिस के हवाले नहीं कर रहा हूँ।
मोती: पुलिस से सिर्फ़ शरीफ़ लोग डरते हैं, वकील साहब ! मुझे धमकी दे रहे
हैं आप ?
शीला: आप ये कैसी बातें कर रहे हैं डैडी ? क्या आप ऐसा करेंगे ? यह अच्छी
बात नहीं होगी।
दीन: लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगा।
मोती: न जाने क्यों आपकी इन बातों से मेरा विश्वास आप पर से उठता जा रहा
है।
शीला: डैडी को गलत मत समझिए।
दीन: शीला ठीक कह रही है, मोती ! ख़ैर, तुम उस ख़ून के बारे में कहो। मैं
तुम्हें बचाने की पूरी कोशिश करूँगा।
तुम जाकर सो जाओ, शीला !
शीला: मुझे नींद नहीं आ रही है, डैडी !
दीन: तो बैठी रहो। हाँ, मोती, तो पहले पहले यह बताओ कि ख़ून किस जगह हुआ ?
मोती: स्टेडियम के पीछे, सुनसान जगह में, रात को।
दीन: फिर......
मोती: मैं स्टेडियम के चौराहे पर आया। वहाँ चाय, पान, बीड़ी की दो-तीन
दुकाने हैं।
दीन: हैं ।
मोती: वहाँ से सिगरेट का एक पैकट लिया। थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। फिर वहाँ
से चलकर उस जगह के काफ़ी पास आ गया, जहाँ ख़ून हुआ था।
दीन: तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।
शीला: डैडी ठीक कहते हैं। आपको ख़ून की जगह वापस नहीं जाना चाहिए था।
मोती: वहाँ से थोड़ी दूर पर त्रिलोचन खड़ा था, जो तभी वहाँ आया था।
दीन: त्रिलोचन कौन ?
मोती: रात की ड्यूटी का पुलिस-मैन। वह वहाँ ग़श्त पर आया था मैं उसे अच्छी
तरह जानता हूँ।
दीन: सही है। मोती को कौन नहीं जानता। उसे तुम पर शक तो नहीं हुआ।
मोती: मैं चाहता था, उसे मुझपर शक हो जाये। इसलिए मैंने उसे सिगरेट दी।
अपनी जेब से लाइटर निकाला। लाइटर से उसकी सिगरेट सुलगायी और उसकी सूरत
रोशनी में देखकर लाइटर अपनी सूरत की तरफ़ कर लिया ताकि वह भी मेरी सूरत
अच्छी तरह देख ले।
शीला: यह क्या किया आपने ?
दीन: उसके बाद.....?
मोती: मैं उससे बड़ी देर तक वहाँ बैठा गपशप करता रहा।
शीला: बातें करते रहे ?
दीन: किस तरह की बातें ?
मोती: यही अपने धन्धे के बारे में।
दीन: इस ख़ून के बारे में तो कोई बात नहीं हुई ?
मोती: वह जानता है, मैंने ख़ून किये हैं। वैसे भी जब ख़ून की चर्चा होगी
तो त्रिलोचन को याद आ जायेगा कि ख़ून की रात मैं लाश के पास मौजूद था।
पुलिस की तफ़तीश के लिए इतना ही काफ़ी है।
दीन: यह अच्छा नहीं किया तुमने। अपने खिलाफ़ एक सबूत खड़ा कर लिया। आख़िर
तुमने ऐसा क्यों किया ?
मोती: मुझे एक बात का डर था। वह डर सच निकला।
दीन: कैसा डर ? किस बात का डर ?
मोती: कि ख़ून किसने किया है ?
दीन: किसका ?
मोती: बिशन का।
दीन: तो मरनेवाला बिशन था ?
शीला: बिशन ??? बिशन का ख़ून हो गया ?......
मोती: हाँ। बिशन ने मुझे उस रात ग्यारह ! और बारह के बीच स्टेडियम के पीछे
बुलाया था। उसे मुझ-जैसे गुण्डे की मदद चाहिए थी। उसने आपसे चिट्ठियाँ
लौटाने के दस हज़ार माँगे थे। आपने उसे वहाँ रुपया देने का वादा किया था।
वह जेब में शीला की सारी चिट्ठियाँ लेकर आया था।
दीन: बिशन ने तुम्हें मेरा नाम बताया था ?
मोती: नहीं। उसने मुझे ठीक टाइम पर स्टेडियम के पीछे पहुँचाने के लिए कहा
था।
पर मैं एक लफड़े में पड़ गया और मुझे वहाँ पहुँचने में देर हो गयी।
उसने मुझे इतना ही बताया था कि किसी से रुपये वसूल करने हैं। मैं वहाँ
उसकी मदद के लिए मौजूद रहूँ ताकि उसके साथ कोई धोखा न हो। पर मेरे वहाँ
पहुँचने से पहले ही किसी ने उसे खत्म कर दिया था।
दीन: यानी तुमने उसका ख़ून नहीं किया है ?
मोती: बिल्कुल।
दीन: फिर यह ख़ून किसने किया ?
मोती: मैं उसे जानता हूँ। पहले नहीं जानता था, बाद में जान गया।
दीन: कौन है वह ?
मोती: यह मैं बाद में बताऊँगा।
दीन: जब बिशन ने मेरा नाम नहीं बताया, तो तुम्हें कैसे मालूम
हुआ कि रुपये देने के लिए मैंने उसे वहाँ बुलाया था ?
मोती: उसकी जेब से निकली चिट्ठियों से। जब मैंने देखा कि उसे किसी ने मार
डाला है, तो मैंने उसकी जेबों की तालाशी ली। जेबों में चिट्ठियाँ थीं।
बिशन को मारनेवाला एकदम अनाड़ी थी। मुझे लगा कि बिशन को मारनेवाला हमारे
पेशे का आदमी नहीं है, नहीं तो वह उसकी जेब में चिट्ठियाँ नहीं छोड़ता।
मैं स्टेडियम के चौराहे पर आया। वहीं से सिगरेट ली। रोशनी में तीन-चार
चिट्ठियाँ पढ़ने के बाद सारी बात मेरी समझ में आ गयी। मेरा शुबहा सच में
बदल गया। बिशन का ख़ून हो चुका था। इसलिए सबसे पहले मेरे दिमाग में आपको
बचाने की बात आयी। मैं आज तक आपको और आपके खानदान को धब्बा लगाता रहा हूँ।
आपने मुझपर और मेरी माँ पर काफ़ी अहसान किये हैं। मैंने सोचा, उन अहसानों
का बदला चुकाने के लिए यह वक़्त ठीक रहेगा।
शीला: लेकिन बिशन का ख़ून किसने किया ?
मोती: वकील साहब ने।
शीला: डैडी आप ?
दीन: यह सच नहीं है। नहीं। मैंने कोई ख़ून नहीं किया। यह झूठ है।
मोती: तो सच क्या है ?
दीन: बिशन का ख़ून तुमने किया है, मोती !
मोती: मैं चाहता हूँ, आप यही कहें। उसके ख़ून का इलज़ाम मैंने अपने सिर ले
लिया है। इससे मेरी साख को कोई धक्का नहीं लगेगा। हाँ, अगर आप जेल चले
गये, तो आपकी इज़्ज़त धूल में मिल जायेगी और आपके खानदान का नाम भी।
दीन: तुमने वे पत्र जला दिये न ?
मोती: सब कुछ जला दिया आपके लिए।
शीला: आप इतना घटिया काम करेंगे, डैडी, मैं सोच भी नहीं सकती थी !
दीन: तुमने मुझे पहले नहीं बताया, वरना उस कमीने को मैं कभी का रास्ते से
हटा चुका होता !
मोती: मेरी मौजूदगी में उसे गाली मत दो। बिशन मेरा जिगरी दोस्त था।
दीन: कमीना हमेशा कमीना ही कहा जायेगा।
मोती: आप फिर उसे गाली दे रहे हैं। इससे मुझे बड़ी तकलीफ़ हो रही है, वकील
साहब !
दीन: वह एक नीच आदमी था।
मोती: आप कहते हैं, बिशन एक नीच आदमी था। ठीक है। पर शीला की मर्जी के
बिना वह आगे कैसे बढ़ा ? कौन अच्छा है, कौन बुरा, इसका फैसला आप नहीं कर
सकते, क्योंकि आप तो खुद.......
दीन: शीला और बिशन को या शीला और तुम्हें बराबरी का दर्जा कैसे दिया जा
सकता है ?
मोती: क्या आप अब भी मुझमें और शीला में फर्क़ मानते हैं ?
दीन: वह तो है और रहेगा। उस फ़र्क़ को मिटाया नहीं जा सकता। यह मत भूलो
मोती, कि तुम एक नाजायज़ औलाद हो।
मोती: इस बार आपने मेरी माँ को गाली दी है। वकील साहब, मेरी पाप और अपराध
की ज़िन्दगी के जिम्मेदार आप हैं। कम से कम आपको मेरी बेचारगी का अहसास
होना चाहिए.....मैं सारी उम्र प्यार को तरसा, किसी को अपना नहीं कह सका और
आज जब मैं अपराध-भरी ज़िन्दगी को खत्म करने और आपके अहसान चुकाने की वजह
लेकर आया हूँ तब भी आप मुझे मेरी ज़िन्दगी का हवाला दे रहे हैं। मैं
चाहूँ, तो जायज़ और नाजायज़ का फ़र्क़ जो सिर्फ़ आपकी आँखों में है, अभी
मिटा सकता हूँ......एक हत्या और सही। शीला का ख़ून और उसके बाद आपको अपना
ख़ून सिर्फ़ मुझमें दिखाई देगा। पर मैं ऐसा करूँगा नहीं। मैं पुलिस स्टेशन
जा रहा हूँ आप सिर्फ इतना याद रखना पिताजी, कि बिशन का ख़ून मैंने किया
है। अच्छा शीला बहन, आप मुझे माफ़ कर देना।
शीला: अब मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी भैया....मुद्दतों बाद मुझे मेरा भाई
मिला है........मोती.......मेरे भैया !
(मोती चला जाता है।)
दीन: सुनो, मोती। रुक जाओ। मेरी बात तो सुनो। अपराधी तुम नहीं......अपराधी
तो मैं हूँ ! जमना की बरबादी का अपराधी, तुम्हारी ज़िन्दगी तबाह करने का
अपराधी। बिशन की हत्या करने का अपराधी। मोती.....मोती......रुक जाओ ! मोती
!
शीला: वह चला गया, डैडी ! चला गया। डैडी, आप कुछ भी कीजिए पर मोती को बचा
लीजिए, डैडी ! डैडी !.......
दीन: तुम फ़िक्र न करो, बेटी ! मैंने अपनी ज़िन्दगी में बहुत से मुकदमें
लड़े हैं ! अब मुझे आख़िरी और अहम् मुक़दमा लड़ना है। यह सच है कि मोती की
इस अपराध-भरी ज़िन्दगी का अपराधी मैं हूँ। जमना का जीवन मैंने बरबाद किया।
बिशन की हत्या मैंने की है। अपराधी मोती नहीं है, दीनदयाल है। और मेरे
पेशे का तकाज़ा है कि सज़ा अपराधी को ही मिलनी चाहिए। मैंने मोती को
ज़िन्दगी की शक्ल में मौत दी थी, लेकिन मोती मुझे मौत की शक़्ल में
ज़िन्दगी दे रहा है। ऐसी मौत, जो मुझे अब ज़िन्दगी से ज़्यादा प्यारी है।
शीला, मोती को कुछ नहीं होगा, कुछ नहीं होगा मोती को.....(दीनदयाल तेज़ी
से बाहर चले जाते हैं। शीला दीनदयाल को बाहर जाता देखती रहती है। फिर
पेशानी पर हथेली रखकर सिसकियाँ लेने लगती है। प्रकाश सिकुड़कर शीला की
आकृति को ढाँप लेता है। कुछ क्षण ठहरकर धीरे-धीरे लुप्त हो जाता है।)?
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