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पवनपुत्र

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1459
आईएसबीएन :81-7028-566-6

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हनुमान के देवत्व की पुनर्स्थापना करता एक रोचक उपन्यास

Pawanputra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘‘इस औपन्यासिक कृति को लिखते समय प्रयास यह रहा है कि इसके माध्यम से वह सब कुछ कह दिया जाए जो अब तक पवनपुत्र हनुमान के संबंध में कहीं-न-कहीं कहा जा चुका है। इस पुस्तक के पढ़ने के बाद हनुमान के संबंध में—कम-से-कम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के संबंध में—और कुछ पढ़ने को नहीं रह जाए।
इस पुस्तक का लक्ष्य हनुमान के देवत्व की पुनर्स्थापना है। यह सही है कि उनके व्यक्तित्व के बहुत से अविश्वसनीय-से प्रतीत होते पक्षों को विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है, पर यह एक सीमा तक ही हुआ है।
लक्ष्य यहां पाठक की तर्कशील बुद्धि को संतुष्ट करना नहीं बल्कि एक पौराणिक पात्र को यथासाध्य पाठकों के समीप लाना और उसके चरित्र के अनुद्घटित पक्षों को उद्घाटित करना है।’’  
देश में महाबली हनुमान के मंदिर बिखरे पड़े हैं और सभी भारतीय हनुमान चालीसा का पाठ भी करते हैं परन्तु कितने हैं जो उनके जीवन तथा इतिहास से जरा भी परिचित हैं। यह उपन्यास उनके जीवन को बहुत विस्तार से प्रस्तुत करता है और इसमें वह सब कुछ उपलब्ध है जो हनुमानजी के सम्बन्ध में किसी भी धर्मग्रन्थ में लिखा गया है। अपने विषय का अकेला आदि से अन्त तक पठनीय उपन्यास।

अपनी ओर से

महाभारत में एक उक्ति आती है- जो यहां है वह तो अन्यत्र मिल जाएगा पर जो यहां नहीं है वह कहीं और नहीं मिलेगा—यदिहास्ति तदन्यत्र, यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्। कैसे कहूं, पर यही गर्वोक्ति मेरे ध्यान में भी रही है इस औपन्यासिक कृति के प्रणयन के दौरान। प्रयास यह रहा है कि इस कथा के माध्यम से वह सब कुछ कह दिया जाए जो अब तक हनुमान के संबंध में कहीं-न-कहीं कहा जा चुका है, ताकि इस पुस्तक के पढ़ने के बाद हनुमान के संबंध में—और कुछ पढ़ने को नहीं रह जाए। तांत्रिक उपासना—आराधना और पूजा-पाठ की बात छोड़ दें तो इस आत्मकथात्मक आख्यान में वह सब कुछ डाला गया है जो मुझे हनुमान के संबंध में ज्ञात हो सका हैं।

स्वाभाविक है कि इस क्रम में मुझे बहुत-से ग्रंथों और पुस्तकों का अवलोकन करना पड़ा है। वाल्मीकीय रामायण से लेकर तुलसीकृत रामचरितमानस, कंब रामायण (तमिल), अध्यात्म रामायण (संस्कृत तथा मलयालम), कृतिवास रामायण (बंगला), गिरिधर रामायण (गुजराती), मोल्ल रामायण (तेलगू), श्री राम विजय (मराठी), श्री राम चरित पुराणम् (तेलगू), भानुभक्त रामायण (नेपाली), आदि बहुत रामायणों के अलावा मुझे संस्कृत साहित्य के बहुत सारे ग्रंथ जैसे रघुवंश (कालिदास), उत्तरारामचरितम् (भवभूति), हनुमन्नाटक, महावीर चरितम् (भवभूति) आदि का भी सहारा लेना पड़ा है। गीता प्रेस के ‘हनुमान अंक’ ने भी मेरी सहायता की है। इनके अलावा थोड़ी-बहुत जो भी सामग्री जहां कहीं मिली है, मैंने उसे इस ग्रन्थ का उपजीव्य बनाया है। पुराणों में श्रीमद्भागवत, स्कन्द पुराण, शिव पुराण तथा पद्म पुराण से मुझे सहायता लेनी पड़ी है। वेदों को भी मैंने देखा है क्योंकि कई लोगों ने वेदों, विशेषकर ऋग्वेद में भी हनुमान को ढूंढ़ने का प्रयास किया है। पर त्रेता में अवतरित मारुति को अनादि वेदों में ढ़ूंढ़ निकालने का प्रयास मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा, अतः मैंने लिखने के बाद भी वेदों पर आधारित अध्याय को इस पुस्तक से बाहर कर दिया।

वस्तुतः इस पुस्तक को लिखते समय मुझे गोस्वामी जी के ‘नाना पुराण’ निगमागम सम्मतं यत्’ की बात ठीक से समझ में आई है। नाना ग्रन्थ-सम्मत नहीं हो तो ऐसी पुस्तक का महत्त्व नहीं होता।
ऐसी स्थिति में यह तो स्पष्ट है कि हनुमान के संबंध में इस पुस्तक में जो भी है उसका कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई आधार अवश्य है। किवदंती भी है तो वह मेरी गढ़ी नहीं है। चूंकि, यह कथा-कृति है शोथ-ग्रन्थ नहीं, अतः सबके लिए फुटनोट देकर कथा-प्रवाह को बाधित और नीरस करना उचित नहीं था वर्ना सारे संदर्भों का उल्लेख सहज था।
स्वीकार करना पड़ेगा कि यह पुस्तक मैंने लिखी नहीं, लिखवाई गई है। आध्यात्मिक-प्रेरणा और निदेश पर आप विश्वास करते हैं, या नहीं मैं कैसे जानूं पर मैं यह मूर्खता (?) करता रहा हूं। ‘पहला सूरज’ के प्रकाशनोपरान्त मेरे प्रकाशक ने जिस पुस्तक की योजना सुझाई, वह थी मैथिली कोकिल विद्यापति पर एक औपन्यासिक कृति। पर उसी रात वह कार्यक्रम परिवर्तित हो गया और हनुमान पर लिखने की बात ठहरी।

पुस्तक के आरम्भ के पूर्व इसका शैली-निर्धारण नहीं हुआ था। लिखने बैठा तो उसी रात आत्मकथात्मक शैली अपनाने की बात हुई। लिखने के क्रम में भी यत्र-तत्र निदेश मिले। किसने किया यह सब कैसे बताऊं ? कैसे कहूं भगवान हनुमान जी हैं इसके पीछे ? मैं तो उन्हें भगवान ही कहता हूं यद्यपि इस पुस्तक में वे अपने को देवता मानने को भी प्रस्तुत नहीं। किसी ने दी हो ये प्रेरणाएं या मेरे अर्द्धचेतन या अवचेतन की ही उपज हों वे, पर मैंने उनका अक्षरशः पालन किया है। ऐसा कर मैंने कोई भूल की, ऐसा मैं मानता नहीं। इससे मेरा काम आसान ही हुआ है।
एक बात समालोचकों के लिए भी। यद्यपि मैंने इस पुस्तक के प्रणयन में आधार कई ग्रन्थों को बनाया है पर भाषा, शिल्प और शैली सर्वत्र मेरी है। मेरा अन्य प्रकार का अध्ययन भी इससे यत्र-तत्र स्थान पा गया है। कथाकृति होने के कारण इसकी बुनावट में कल्पना के ताने-बाने का भी प्रचुर प्रयोग हुआ ही है। जहां कोई संदर्भ में सीधे अथवा थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ लेना पड़ा है वहां पाद-टिप्पणी में उसका स्पष्ट उल्लेख कर दिया गया है, यद्यपि ऐसे अवसर बहुत कम अथवा नगण्य ही हैं।

पुस्तक इस रूप में भी अन्य ग्रन्थों से पृथक् है कि इसमें और कहीं-कहीं अत्याधुनिक अवधारणा को भी महत्त्व दिया गया है। यही कारण है कि युद्ध के देवता होकर भी हनुमान इसमें युद्ध के विरुद्ध बोलते हैं, राष्टों का कृत्रिम सीमाओं को नकारते और साम्प्रदायिक एवं राष्ट्रीय सद्भावनाओं के आधार पर विश्व-मानव की परिकल्पना को पोषित करते प्रतीत होते हैं।
पर यहां एक बात स्पष्ट करनी होगी। सब कुछ होते हुए भी इस पुस्तक का लक्ष्य हनुमान के देवत्व को नकारना नहीं बल्कि उसकी पुर्नस्थापना ही है। यह सही है कि उनके व्यक्तित्व के बहुत से अविश्वसनीय-से प्रतीत होते पक्षों को विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया गया है पर यह एक सीमा तक ही हुआ है। हनुमान के अति-मानवीय अथवा दैवी स्वरूप के ऊपर मात्र इसलिए एक मानवीय रूप को आरोपित करने का प्रयास नहीं किया गया है कि वह आधुनिक पाठक की रुचि से अधिक अनुकूल बैठे। लक्ष्य यहां पाठक की तर्क-शील बुद्धि को संतुष्ट करना नहीं बल्कि एक पौराणिक पात्र को यथासाम्य पाठकों के समीप लाना और उसके चरित्र के अनुद्घाटित पक्षों को उद्घाटिक करना है। सामान्य पाठक अगर अपने और इस महान पुराण-पात्र के मध्य दूरी देखता है तो वह स्वाभाविक है क्योंकि इस कृति का लक्ष्य उस दूरी को निःशेष करना नहीं बल्कि उसके माध्यम से देवता के प्रति मनुष्य की श्रद्धा को अक्षुण्ण रखना और उसमें वृद्धि लाना ही है, अनास्थावान इससे निराश होंगे तो हों। मेरा लक्ष्य उनको तुष्ट करना, अपनी पहले की रचनाओं में भी नहीं रहा, इसमें भी नहीं है।

इस उपन्यास में जिन स्थानों का उल्लेख आया है उनमें अधिकांश मेरे देखे हुए हैं। विदेशो में मॉरीशस गया हूं। 1976 के विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय यह संयोग बैठा था। देश में पंचवटी, अयोध्या, नासिक, अमरकंटक, प्रयाग, भुवनेश्वर, जगन्नाथपुरी, तिरुपति, सासाराम, हैदराबाद, मुंबई, कलकत्ता, भीमशंकर, औंकालेश्वर, वैष्णो देवी, दिल्ली, नाथद्वार, दरभंगा, वाराणसी आदि अधिकांश कई बार के देखे-सुने हैं। रेल-मंत्रालय दिल्ली में संयुक्त निदेशक (राजभाषा) के रूप में प्रतिनियुक्त रहने से यह सुयोग उपलब्ध हुआ। जिन कुछेक स्थानों पर नहीं गया उसमें संबंधित सूचना स्वभावतः पढ़ी-सुनी है।

अयोध्या तो इतनी बार जाने का सुयोग हुआ कि वह मेरे अन्दर रच-बस गई है। इसका अधिक श्रेय है मेरे बुजुर्ग शुभचिन्तक और महान् हनुमान-भक्त डॉ.यदुवीर सिन्हा को जो रायबहादुरी और दरभंगा के प्रमुख होमियों-मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपली और अपनी अपार संपत्ति छोड़कर सपत्नीक अयोध्या-वास कर रहे हैं। अयोध्या में नजरबाग के सीतारामीय सेवा-सदन में डेरा-डाले डॉ.सिन्हा पर हनुमान जी की असीम अनुकम्पा है।
पुस्तक की पांडुलिपि के टंकन में श्री टंकन में श्री देवेन्द्र चौधरी और श्री अनिल कुमार सिन्हा ने जो विशेष रुचि प्रदर्शित की है, उसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं।
निश्चय ही भगवान हनुमान की अनुकम्पा इस पुस्तक प्रणयन के दौरान रही है। मैं उनके प्रति अपना श्रद्धापूर्ण नमन निवेदित करता हूं।
अब मैं आपके और हनुमान के बीच बहुत देर नहीं रह सकता। ऐसे ही भगवान हनुमान को बहुत व्यवधान पसन्द नहीं। लीजिए, कीजिए आस्वादन इस हनुमान-गाथा का।

-भगवतीशरण मिश्र

पटना
कृष्ण जन्माष्टमी
(19.8.1987)

एक


मलय-पवन वहां नित्य प्रवाहित था। इस गन्ध-वाही वायु का सुखद स्पर्श तन-मन के सारे ताप-संताप का शमन कर प्राणों में सदा एक नव-स्फूर्ति, नवोत्साह का संचार करता रहता। ऋतुपति की सतत उपस्थिति से विकसित कुसुमों और उन पर गुंजायमान भ्रमर-पक्तियों के कारण प्रकृति यहां सदैव श्रंगारित और सौंदर्यपूरित रहती। सलिल-कुंडों का स्फटिक-सा स्वच्छ जल, रक्त-कमल और धवल कुमुदिनी-कुसुमों से सदैव युक्त रहता। सरित-प्रवाहों और सरोवरों के कूल-निर्मित, तपस्वियों और सिद्ध-साधकों के मोहक कुटुजों में निरन्तर सम्पन्न अग्निहोत्र के कारण पूरा परिवेश हविष-गन्ध से गम-गम करता रहता। इन पर्णकुटियों से उठते मंत्रोच्चार और देव-स्तवन के स्वर संपूर्ण प्रदेश को एक अलौकिक प्रवीणता और शुचिता प्रदान करते रहते। कभी-कभी दिख जाते श्वेत श्मश्रुधारी यति-मुनि एवं साधक वैरागी दर्शकों के पापों के क्षय और उनके पुणयोदय का कारण बनते। संपूर्ण क्षेत्र सदा एक स्वर्गिक आभा से संपन्न, एक अलौकिक विलक्षणता से व्याप्त लगता। यह था प्रसिद्ध प्रभास-तीर्थ।

यहां कहीं आस-पास रहते थे वानर-राज केसरी। पर्वत के सुरम्य शिखर पर निर्मित एक भव्य प्रासाद में निवास था वानर-जाति के इस राजा का। पुच्छयुक्त किन्तु बल-बुद्धि-विद्या-सम्पन्न यह जाति नर से किसी भी अर्थ में कम नहीं थी। किन्नर, गंधर्व, वानर— अपने-अपने प्रदेशों में सानन्द निवास करने वाली ये जातियां—बहुत अर्थों में नरों से श्रेष्ठ और समुन्नत थीं। ये उप-देवता की श्रेणी में आती थीं। काम-रूप होती थीं ये और इच्छाधारी। जब जैसा चाहा स्वरूप धर लिया, जब जहां चाहा पहुंच गए।

धन-धान्य से पूर्ण वानर-साम्राज्य के स्वामी महावीर केसरी के दिन सुख-पूर्वक ही कट रहे थे पर एक चिन्ता थी जो उन्हें सदा व्यथित करती रहती। सब कुछ पर सन्तान-सुख से तो वंचित ही थे वह। कौन था उनके पश्चात् यह सब भोगने वाला ? जिस राजा को कोई उत्तराधिकारी नहीं हो उसकी छाया से भी दूर भागते हैं लोग। पापी और भाग्यहीन की ही संज्ञा पाता है निःसन्तान—चाहे वह राजा हो या रंक। यही एक बात थी जो वानर-राज के अन्तर को निरन्तर मथ रही थी।
प्रभास-तीर्थ के पास ही प्रवाहित एक सुरम्य सरित-प्रवाह में वहां तपोरत ऋषि-मुनियों का स्नान-मज्जन सम्पन्न होता और उसी में जल-क्रीड़ा रत रहता ‘‘धवल’’ नाम की मत्त गजराज जिसके दीर्घ दन्त-युगल सदा स्नानार्थियों के भय का कारण रहते। अपने इन तीक्ष्ण किन्तु सशक्त दांतों से वह अनेक ऋषि-मुनियों के प्राण ले चुका था। एक दिन उसकी दृष्टि गई स्नान-रत ऋषि-प्रवर भारद्वाज के ऊपर और वह उनके पीछे ही पड़ गया। ऋषियों के ऋषि, ऋषि-गुरु भरद्वाज प्राणों के भय से सिर पर पैर रख आश्रम की ओर भागे पर वह मस्त मतंग उनके पीछे ही पड़ा रहा। निकट था कि उसके दुर्धर्ष दन्त
ऋषि के कलेवर को चीर रखते कि वानरराज केसरी प्रवास तीर्थ की ओर आ धमके। उन्होंने ‘‘धवल’’ को दांतों से पकड़ा और फिर उन दीर्घ दन्तों को उनके शरीर से अलग कर, उन्हीं द्वारा प्रहार कर उसके प्राण1 ले लिये।
‘‘वरं ब्रूहि’’, प्रसन्न एवं आश्वस्त ऋषि ने कहा था।

‘‘वर क्या मांगना ऋषिवर ? आपका दिया सब कुछ है।’’ वानर-राज ने नत-ग्रीवा निवेदित किया था।
‘‘होगा सब कुछ’’ ऋषि भरद्वाज ने कहा था, ‘‘फिर भी साधुओं के दर्शन व्यर्थ नहीं जाते। मांग लो जो कुछ भी मांगना चाहो। कुछ भी अदेय नहीं है मेरे लिए। ऐसा ही फल है प्रभास-तीर्थ में सम्पन्न मेरी तपस्या का।’’
वानर राज केसरी का मन ढोला था। अगर कुछ भी अदेय नहीं है ऋषि के लिए तो मांग ही लूं एक पुत्र। और जब प्रभास-तीर्थ में ही मांगना है संतान-सुख और वह भी तपः-पूत ऋषि-प्रवर भरद्वाज से तो ऐसा-वैसा पुत्र क्या मांगूं ? मांग ही लूं एक ऐसा सुत जिसके सदृश त्रैलोक्य में न कोई हुआ है, न हो।’’ यह संकल्प आया था केसरी के मन में और उन्होंने अभिव्यक्ति दी थी अपनी आकांक्षा को—‘‘देना हो तो दे दीजिए एक पुत्र प्रभु ! बल, बुद्धि और विद्या के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति, साधु-सेवा और सदाचार में जो पांक्तेय हो। समानता नहीं हो जिसकी, स्वर्ग, पाताल, और मर्त्य लोकों तक।’’
‘‘एवमस्तु !’’ प्राण-दान ही मिले थे जिसके हाथों उसे एक पुत्र-मात्र का वरदान देने में ऋषि को कितना समय लगता था भले ही उनके वरदान को सत्य सिद्ध करने के लिए स्वयं शिव को ही क्यों नहीं अपने एक अंश से अवतरित होने को बाध्य होना पड़ा हो ? भले ही एकादश रुद्र को ही क्यों नहीं जाना पड़ा हो केसरी भार्या अंजना के गर्भ में।
‘‘हां अंजना ही नाम था वानर राज की साध्वी पत्नी का जिसने संतान सुख की इच्छा से शिवाराधना में सुखा ही दिया था अपने कोमल गात को।

‘‘ ऊँ नमः शिवाय। ऊँ नमः त्र्यम्बकाय, विश्वनाथाय, महेश्वराय, भूतेशाय’’

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1.धवल नाम ते हस्ती दोघल दशन, दन्ताघाते चिरिया मारित मुनिजन।
 भरद्वाज महाऋषि ऋषिर प्रधान, दन्त सारि जाय हस्ती नीते तार प्राण।

-बंगला, कृतिवास रामायण।

की धवनि से गन्धमादन वह पूरा पर्वत प्रदेश पूरित-सा रहता जहां तपोरता अंजना आशुतोष शिव के दर्शनार्थ अन्न-जल का त्याग किए पड़ी थी।
इधर ऋषि ने केसरी को आप्त काम किया और उधर आशुतोष प्रकट हुए अंजना के समक्ष—‘‘मांगों क्या मांगती हो।’’
क्या मांगती अंजना, एक सुत के शिवा ? शिव के लिए भी यह वरदान आसान हो आया था। ऋषि वाक्य को तो सत्य होना ही था, क्या लगा था इन्हें थोड़ा सहयोग देकर सफलता की घड़ी को कुछ समीप सरका देने में !

उस योगिराज शिव ने क्षणार्ध के अपने ध्यान में देख लिया, क्या कुछ नैसर्गिक घट रहा था उसी समय सुदूर स्थित साकेत-नगरी—अयोध्या—में। अंजना को अपने दर्शन से कृतार्थ करते हुए उन्होंने कहा- ‘‘तुम्हें एक अत्यंत पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होगा जिसकी गति अंतरिक्ष, पाताल और पृथ्वी तीनों में अबाधित होगी और जिसके समान योद्धा, गुणज्ञ और भगवद्भक्त न तो अब तक त्रैलोक्य में हुआ है न भविष्य में होगा। स्वयं अपने एक अंश से अवतरित हो रहा हूं मैं। रुद्रावतार होगा तुम्हारे आंगन में अंजना। शंकर-सुत की ही संज्ञा पायेगा तुम्हारा तनय। केवल कुछेक दिन यों ही, इसी स्थान पर अंजलि खोले, तपस्यारत रहो।’’ कहकर देवाधिदेव अन्तर्धान हो गए और अंजना ने दूने मनोयोग से मन्त्रोच्चार आरम्भ कर दिया—ऊँ नमः शिवाय, त्र्यम्बकाय, ईशाय, विश्वनाथाय..विश्वेश्वराय....।’’  

उधर हो रहा था राजा दशरथ के यहां पुत्रेष्टि यज्ञ। गुरु वशिष्ट ने आयोजित कराया था इसे ऋष्यश्रृंग के पौरिहित्य में—निस्सन्तान सम्राटं का सन्तान-सुख प्रदान कराने के लिए। प्रज्वलित अग्निकुंड से, हाथों में चारु-पात्र लिए स्वयं प्रकट हुए थे अग्निदेव यज्ञ-समाप्ति के काल।
‘‘इसे ग्रहण करो राजन् और वितरित कर दो चरु (खीर) को अपनी रानियों के मध्य। चार प्रतापी पुत्र उत्पन्न होंगे इस प्रसाद के द्वारा।’’ गुरु ने कहा था और उस समय उन्हें भी पता चला कि चार नहीं पांच प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनने जा रहा था वह अग्नि-प्रदत्त दिव्यान्न।
अयोध्यापति ने रत्न जटिल राज-प्रांगण में पक्ति में किया था अपनी तीनों पत्नियों—कौशल्या, कैकेयी, और सुमित्रा—को और रख दी थी उनकी खुली हथेलियों में पड़े द्रोणों में खीर को, उनके-उनके हिस्से के अनुसार। उसी क्षीण आकाश से लपकी थी एक चील और एक झटके में सुमित्रा के करस्थ खीर भरे द्रोण (दोना) को चंचु में दबा उड़ चली थी—प्रभास-तीर्थ की दिशा में।

चील जब ठीक उस स्थान पर पहुंची जहां देवी अंजना अंजली खोले तपस्या रत थीं तो पवन के लिए प्रबल झोंके के कारण चरु-भरा पर्णपुट उसके चंचु से छुट गया और आ गिरा उसकी अंजलि में। ठीक इसी समय प्रकट होकर, पवन-देव वहां बोल पड़े थे—अंजने, आशुतोष की प्रेरणा से ही मैंने यह चरु तुम्हें उपलब्ध कराया है। इसे सदाशिव और पवन का सम्मिलित आशीर्वाद समझकर ग्रहण करो। शिव के वरदान के अनुसार तुम्हारा पुत्र शक्तिशाली और वेद-वेदांग-पारंगत तो होगा ही मेरे प्रसाद से वह मेरे वेग को प्राप्त करेगा। इस चरु के ग्रहण करते ही तुम्हें गर्भाधान होगा और इसे तुम तक पहुंचाने में प्रेरणा बनने के कारण आशुतोष के अंश से उत्पन्न तुम्हारा पुत्र, पवनसुत के नाम से भी विख्यात होगा।’’
प्रसन्न-मन माता अंजना घर लौटी थी। तत्क्षण उनमें गर्भाधान के लक्षण प्रकट हुए और उन्होंने शिव और पुनः पवनदेव के दर्शन की बात अपने केसरी को बताई थी। उप-देवताओं में गर्भाधान के पश्चात् शिशु-जन्म में बहुत काल नहीं लगता। जैसा मेरी माता ने बताया मैं तत्काल ही पैदा हुआ था और जैसा कि उप-देवताओं में अक्सर होता है, मैं यज्ञोपवीत और सुन्दर अधोवस्त्र आदि से वेष्टित उत्पन्न हुआ था।1

 चैत्र मास के शुक्ल पक्षीय एकादशी और मंगलवार को जब मैंने प्रथम-प्रथम इस धरित्री का स्पर्श-सुख प्राप्त किया उस क्षण चन्द्रमा-माघा नक्षत्र पर थे।

माता अंजना और पिता केसरी ने मेरे जन्म के उपलक्ष में महोत्सव का आयोजन किया और प्रभास-क्षेत्र के तपस्वियों और सिद्ध-साधकों के यहां घूम-घूम उनके आशीर्वाद-कवच से मुझे मंडित कराया।
अपने जन्म की यह कथा मैंने माता अंजना से ही सुनी थी। इस के कुछ ही दिनों के बाद की एक घटना भी आपको सुना ही दूं। इसके पूर्व एक बात कह देना आवश्यक प्रतीत हो रहा है। मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी बहुत-सी बातें आपकों बड़ी विचित्र लगती होंगी और इन पर सहसा विश्वास करने को आपका मन करता भी नहीं होगा। किन्तु आपकी कठिनाई यह है कि आप सब कुछ इस भू-लोक के संदर्भ में ही देखना-परखना चाहते हैं। अब मैं आपको कैसे बताऊं कि जो कुछ आप देख रहे हैं वही सब कुछ नहीं है। केवल इसी भू-लोक पर सब कुछ नहीं घटता, अनेक ऐसे लोकों में भी जो आपके लिए दृष्टिगम्य नहीं हैं या जिन्हें सूक्ष्म लोक कहा जाता है, घटनाएं निरन्तर घटती रहती हैं। भिन्न कम्पन (वाइब्रेशन) युक्त होने से ये लोक और यहां के निवासी आपके लिए दृश्य नहीं होते पर इस आधार पर उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। इसी लोक में जब कोई वस्तु सामान्य से अधिक कम्पन से युक्त होती है तो इसे आप कहां देख पाते हैं ? केवल एक उदाहरण दूंगा। आजकल आप विद्युत पंखों का प्रयोग करते हैं, उष्णता के निवारण के लिए। वह रुका रहे अथवा धीरे-धीरे चले तो

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1. कल्प भेद से हनुमान के जन्म की कई कहानियां हैं जो वाल्मीकि रामायण से लेकर आनन्द रामायण, शिवपुराण तथा स्कन्दपुराण आदि कई ग्रन्थों में बिखरी पड़ी हैं। यहां मैंने उसी कथा को आधार बनाया है जो मुझे अधिक ग्राह्य और हनुमान के अनुकूल लगी।

दृष्टिगम्य होता है किन्तु वही जब तीव्रतम गति से गतिमान होता है तो कहां देख पाते हैं उसे आप ?
तो उप-देवता, देवता और पितर-प्रेत, किन्नर, गंधर्व तथा अन्य श्रेणियों के लोग आज भी हैं अपने-अपने लोकों में। उनके शरीरों और उनकी गतिविधियों के सूक्ष्म होने के कारण यदि आप उनसे परिचय नहीं प्राप्त कर सकते तो इसका किया ही क्या जा सकता है ?

यहां देवता या उप-देवता या पितर-प्रेत जब आपके कम्पन-क्षेत्र में प्रवेश कर आपको दर्शन होते हैं तो आपमें से कुछ को उनके अस्तित्व का प्रत्यक्ष भान होता है। यदि आप कुछेक ऐसे लोगों में हैं जिन्हें एक या अधिक बार ऐसी सूक्ष्म शक्तियों के दर्शन हुए हैं तो आपके लिए किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं, किन्तु जिन्हें ऐसा अवसर नहीं मिला है, उन्हें तो विश्वास दिलाने का प्रयास-मात्र ही किया जा सकता है।

तो मैं सुनाने जा रहा था सूर्य-भक्षण की उस घटना को जिसका वर्णन आपने भी पढ़ा-सुना होगा।
प्रत्यूष काल था। पूर्व समीर प्रवाहमान हो दिशाओं को उल्लसित कर रहा था। माता अंजना कहीं गई हुई थीं। पिता का भी पता नहीं था। मैं एकाकी, गिरि-महल के उस एकान्त कक्ष में पड़ा था। क्षुधा तीव्र से तीव्रतर होती जाती। अन्ततः जब वह आसह्य हो गई तो मैं कक्ष से बाहर आ गया। फल-जीवी तो मैं था ही। दृष्टि अनायास तरु-शिखरों की ओर गई। आप जानते ही हैं वसन्तारंभ के दिनों अधिकांश वृक्ष पुष्पाच्छादित होते हैं। फलों का प्रायः अभाव होता है। (तरु-शिखरों को फल-विहीन पा मैं घोर निराशा से ग्रस्त हो आया और तभी मेरी दष्टि पूर्व क्षितिज की ओर खिंची। उधर का पूरा गगन-प्रदेश पूर्णतया इंगुरी हो आया था—जैसे कोई पलाश-वन पूरी तरह प्रफुल्लित हो आया हो अथवा कोई विस्तृत वन-प्रान्तर दावाग्निग्रस्त हो गया हो। अद्भुत था यह दृश्य। कुछ देर के लिए मैं अपनी क्षुधा को भूल मैं इस शोभा के अवलोकन में व्यस्त हो गया था कि विचित्र घटा था। क्षितिज के नीचे से एक स्वर्णिम, मंडलाकार वस्तु सरक कर आने लगी थी। अद्भुत था उसका आकर्षण। उसके लाल रंग और उसकी अतिरिक्त कोमलता, कमनीयता ने मुझे शिशु का मन मुग्ध कर दिया। क्या हो सकता था यह, एक सुन्दर फल के सिवा ? मेरे मन ने कल्पना की। मानव-शिशु की आरम्भिक प्रवृत्ति से भी आप पूर्णतया परिचित हैं ही। वह भी हर आकर्षक वस्तु को भोज्य सामग्री ही समझ लेता था और उसे मुंह के हवाले करना शुरू करता है।

इस स्वर्णिम और रस-सिक्त-से प्रतीत होते आकर्षक बिम्ब ने मेरे मुंह में पानी भर दिया और मेरी क्षुधा द्विगुणित-त्रिगुणित हो मुझे व्यथित करने लगी। यह सुमधुर फल प्राप्त हो जाता तो मैं अपनी इस सर्वग्रामी भूख को निःशेष कर पाता, मेरे मन में आया।  

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