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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


बिहारी का मन भीतर-ही-भीतर गलने लगा।
सुशीला ने कहा, “कल माईं आई थीं। पूछती थीं, 'क्या तेरे कुछ हुआ नहीं?'
जानते हो पड़ोसिन चम्पा ने क्या कहा? बोली, बेचारी के भाग न जाने कब चेतेंगे।'
बिहारी सिहर उठा।
वह खाट पर लेट गया।
उसे झपकी-सी आ गई।
फिर किसी ने धीरे से जैसे उसको जगाया!
"कौन?"
"अभी से सो गए?" सुशीला ने धीमे से कहा, "अभी ही तो सब खाके उठे हैं।"

वह थाली लिए थी-परांवठे और बैंगन का साग । कहती रही, “आज भाभी के भइया आए हैं न? सो वे उधर ही खातिर में लगी रहीं। खाने की अशर्फी दी है। पता नहीं इतना रुपया कहां से ले आते हैं। लो, तुम खा लो, मुझे अभी बहुत काम है, तमाम बर्तन मांजने हैं।"

"सब बर्तन तुम्ही मांजती हो?"
वह हंस दी। बोली, “तो क्या हुआ। आज से थोड़े ही, तीन महीने हो गए। आखिर इनके घर रहते हैं और खाते हैं तो कुछ ऐसा भी तो करना चाहिए कि उन्हें हमारी मौजूदगी अखरे नहीं। बस, मैंने ये तरकीब निकाल ली। अब नजरें पलटी हुई नहीं हैं।"

बिहारी का कौर गले में अटक गया।
वह कहती रही, “तुम किसी बात की फिकर मत करो। कविता लिखा करो।

मैं सब संभाल लूंगी। पर देखो, कहीं तुम मुझसे नाराज न हो जाना, फिर मेरा इस जग में कोई नहीं है। सचमुच पति ही स्त्री का सब कुछ होता है। मैं तो भाभी के सामने पड़ती ही नहीं। बताओ! जिस घर में कभी मैं ही सब कुछ थी, अब वहां पराए घर से आई भाभी ही सब कुछ है। मेरी तो कोई कुछ पूछता ही नहीं। खास मां भी नहीं। वह भी नहीं, जिसने मुझे जन्म दिया है। मैं कहती तो हूं, नई साड़ियां आई थीं। एक मुझे अच्छी लगी। उठाकर देखती थी कि भाभी ने झट हाथ से ले के अम्मा से कहा, 'यह मैं लूंगी।' मैं तो कह भी न पाई कुछ।

ले ली गई फौरन! किसी ने मुझसे नहीं कहा कि तू भी ले ले एक। आखिर इसके भी मन होगा यह किसी ने न देखा। तुम्हारे पास कुछ होता तो क्या तुम चुप रह जाते! मैं तो जानती हूं कि तुम मेरी आंखों से पहचानकर मुझे लिवाके रहते।

अपनों की बात अपनी ही है। फिर जानते हो अम्मा ने क्या लीपा-पोती की! बोली, "बहू, देख मेरे बक्स में एक साड़ी रखी है, नीली-पीली कन्नी की। वह ला दे इसे। भाभी ने ला दी और बोली-'अम्मा जी! यह वाली। यह तो तुमने पंडा जी के लिए रखी थी पंडाइन के लिए।' अम्मा बोलीं-बड़ी भारी दानी बनकर, 'अरी, तो मेरी बेटी से क्या उसका हक पहला है?' मैंने कहा, 'अभी क्या जरूरत है अम्मा! तुम्हारा ही तो है सब कुछ। जरूरत होगी तो ले लूंगी।' सच! मानोगे? मैंने नहीं ली। पंडाइन के लिए रखी उतरी-उतराई साड़ी मैं लूं! मेरी जूती से! अरे, तुम खा नहीं रहे हो! तुम तो आज मेरी मुसीबत करा दोगे! भाभी के भइया के लिए रबड़ी औट रही हूं दूध में डालने को।" फिर धीमे से बोली, “देखो, मौका लगा, तो एक कटोरी लाऊंगी तुम्हारे लिए, सो न जाना।"

बिहारी ने थाली खिसका दी।

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