जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
|
3 पाठकों को प्रिय 147 पाठक हैं |
कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
3
बड़ी देर हो गई बैठे-बैठे। कोई भीतर से खाना खाने को बुलाने तक नहीं आया। बिहारी ऊब गया। कल सुशीला भी कुछ ऊबी-ऊबी-सी थी। बोली, "मेरे पास जाने अपना हार कब होगा?"
"कैसा हार?" बिहारी ने पूछा।
"भाभी के पास देखो कैसा है?"
बिहारी चुप हो गया।
बोली, "पहले स्वयं बोली-ले, तू पहन ले आज। मैंने पहन लिया। दिन-भर पहने रही। सब देखते तो पूछते-किसका है? मैं कहती-भाभी का। एक पड़ोसिन बोली-अरी, भाभी के हार को ही देखकर खुश होती रहेगी कि अपना भी कभी पहनेगी।"
कुछ रुककर बोली, “सुनो! एक बात कहूं?"
"कहो।" बिहारी ने कहा था।
वह चुप रही।
"बोलती क्यों नहीं?"
"नहीं, रहने ही दो।"
"क्यों?"
"क्या फायदा!"
बिहारी मन-ही-मन तिलमिला गया था।
सुशीला ने लम्बी सांस खींचकर कहा था, “न जाने वह दिन कब आएगा!"
बिहारी उदास हो गया था।
तो वह हाथ पकड़कर बोली, “तुम्हें मेरी कसम। उदास न होओ ऐसे। मैं क्या गहनों की भूखी हूं? क्या तुम्हारे दुख को मैं नहीं जानती?"
बिहारी का सिर नीचे देखकर बोली, “मैं तो मजाक कर रही थी। तुमने मेरी बात को मन में बांध तो नहीं लिया। आ जाएगा कंगन भी। और न भी आया तो क्या, कोई कंगन बिना मरा थोड़े ही जाता है। दुनिया में क्या अमीर-गरीब नहीं होते?
पर मैं कहती हूं कि लोग भी कैसे अजीब होते हैं। तुम सुन नहीं रहे हो।"
“सुन तो रहा हूं।"
“कहां, सुन कहां रहे हो। तुम तो दिन-भर जाने क्या लिखा करते हो!
तुम्हें क्या पता कौन क्या कहता-कहता है?"
"किसी ने कुछ कहा?"
"काका जी से मैंने कहा था।"
"तुमने कहा था?"
“कहा क्या था, यों ही कह दिया था कि भाभी का हार वे ही बनवाकर लाए थे। बोले, 'बेटी! हम तो तेरे लिए जो कर सकते थे, कर चुके। अब तू पराई हुई। अब तो जो करे तेरे लिए वह करे।' सुना तुमने! जीजी आई थी अपना जड़ाऊ हार पहने तो यही काका जी बोले थे, 'एक उसने दिया है तो क्या एक हम नहीं दे सकते!' एक ही घर की लड़कियां हैं हम दोनों। मैं क्या कुछ नहीं समझती? पहले साल तो ठीक चला था। पर इधर तो जाने कैसे सब की आंखें पलट गईं।" फिर एक लम्बी सांस छोड़कर कहा, “सब के दिन फिरते हैं।"
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book