जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
उसे अचानक ही प्रवीणराय की याद हो आई। केशवदास कैसे भाग्यशाली थे कि उन्हें
ऐसी रस-मर्मज्ञ स्त्री मिल गई थी। किन्तु वह उनकी पत्नी नहीं थी।
पत्नी संभवतः समाज के लिए है, अन्यथा पुराने आचार्य भी परकीया की प्रशंसा
क्यों करते?
उसने कहा, "फिर कल चलेंगे न?"
'मैंने पंडित को पत्रा दिखा ली है। कल का मुहूर्त अच्छा है।" वह गद्गद् थी कि
उसे फिर अपने माता-पिता और भाई-बहनों के दर्शन होने को थे ।
बिहारी ने कहा, "लेकिन हम चल रहे हैं, तो हमें लेने तो कोई आया नहीं।"
"चिट्ठी तो आ गई है। वे तुम्हें ऐसे थोड़े ही समझते हैं, कि तुम्हें अकेले
यात्रा करने योग्य भी न समझें!" फिर वह स्वर बदलकर बोली, "फिर अपना रूपमा
भी तो खतम होने को आ गया है। वहां चलने से कोई न कोई राह जरूर निकलेगी।"
बिहारी उत्तर नहीं दे सका।
उसने मन-ही-मन कहा, “पिता मुझे कैसे छोड़ गए!"
विवेक ने उत्तर दिया, “और वे क्या करते? क्या तू स्वयं अपना और अपनी पत्नी का
पोषण नहीं कर सकता?"
स्वार्थ ने कहा, “उन्होंने मुझे कुछ सिखाया भी तो नहीं।'
अहंकार ने कहा, “मुझे उन्होंने कितना बड़ा पंडित बनाया है।"
जब सामान बंध चुका बिहारी ने कहा, “सुशीला! मैं बैद्यक करूंगा वहां चलकर।'
"तुम वैद्यक करोगे तो हम वहां कितने दिन रह सकेंगे!"
"क्यों?"
"आखिर यह तो नहीं होगा कि तुम जिन रोगियों का इलाज करोगे उनका रोवा-राखा कोई
नहीं हो।"
बिहारी झेंपा। फिर कहा, “तुम समझती हो कि वैद्यक के लिए पढ़ने-लिखने की जरूरत
है।"
"तो फिर चलो, किसी गंवई-गांव में रहेंगे।"
"वहां! कौन समझेगा मेरी कविता!"
"ऐसी लिखना जो गांव के लोग समझ लें।"
बिहारी चिढ़ गया।
बोला :
कागनि सौं जिन प्रीति करि, कोकिला दई बिडारि।"
(अरे हंस इस नगर में प्रवेश करने के पहले विचार कर ले। यहां वे रहते हैं जिन्होंने कौओं से प्रेम करके कोयल को बाहर भगा दिया।)
वह हंस दी।
कहा, “चलो, ब्यालू कर लो।"
बिहारी ने कहा, “सुशीला! हम जहां चल रहे हैं, वहां लोगों को कविता से तो प्रेम है?"
"क्यों नहीं है?'' सुशीला ने कहा और कोठे में चली गई। बिहारी के माथे पर सलवटें पड़ गई थीं। वह जैसे किसी गहरे चिंतन में तल्लीन हो गया था।
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