जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
स्वामी नरहरिदास ने फिर कहा, "राज्य आते हैं मिट जाते हैं। धर्म ही स्थायी
है। धर्म में भी भक्ति। कृष्ण और राधा की उपासना कर। राधा ही तेरी रक्षा
करेंगी। काव्य और संगीत सबको नहीं मिलते।"
बिहारी ने देखा वे कुछ विभोर हो गए थे। वे कहते रहे, "केशवराय सत्कवि थे।
किन्तु उन्हें यश नहीं मिला। उन्हें एक प्रकार की उदासीन निराशा ने घेर लिया
था। विरक्ति निराशा का नाम नहीं, त्याग के आनन्द की सक्षम अनुभूति है। वे उसे
नहीं पा सके। अब तू जा रहा है। साधना मत छोड़ना। एक बात याद रखना।"
"आज्ञा गुरुदेव!"
"काव्य को मत छोड़ना। यह किसी का साथ नहीं छोड़ता। यह सदा ही पार लगा देता
है।"
बिहारी ने सिर झुकाया।
"अयोग्य की सेवा में सरस्वती को मत झुकाना। वीरता, सौन्दर्य, धर्म तथा ज्ञान
यही चार सरस्वती की वंदना के योग्य हैं।"
“यही करूंगा, गुरुदेव!" बिहारी ने मन में गांठ बांधते हुए कहा।
आकाश में बादल-से उठने लगे थे। उसने दण्डवत करके गुरु से विदा ली।
आकाश में अब धूमिलता आ गई थी।
घर पहुंचकर उसने स्नेह से पुकारा, “सुशीला!"
वह अभी घड़ा कुएं से भरकर लाई थी।
घूँघट किए आ गई।
"यहां इसकी क्या जरूरत है?"
वह शर्माई।
बिहारी ने उसका मुंह खोल दिया। वह हंस दी।
बिहारी कह उठा :
चौका चमकनि चौंध में, परति चौंधिसी दीठि।।
(तुम अपनी हंसने की बात छोड़ दो, क्योंकि तुम्हारे दांतों की चमक के आगे मेरी आंखें चौंधिया जाती हैं, जिससे मुझे तुम्हारा मुख बड़ी कठिनाई से दिखाई देता है।)
वह हंसी। कहा, 'चलो रहने दो।"
बिहारी का मन नहीं भरा। वह बिचारी काव्यशास्त्र नहीं पढ़ी थी कि तुरन्त उपमा, अनुप्रास और अलंकारों की प्रशंसा कर उठती। उसने केवल शब्दार्थ की झलक पाई थी। बिहारी ने मन-ही-मन कहा,"काव्य का समझना सबका काम नहीं।"
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