जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
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स्वामी नरहरिदास ने आंखें उठाईं।
"बिहारी?"
"हां, गुरुदेव!"
वह बैठ गया।
"क्यों? क्या बात है?"
"मैं आज्ञा लेने आया था।"
"कहीं जा रहे हो?"
"हां, गुरुदेव!"
“जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करे।"
बिहारी का मन भीतर-ही-भीतर विक्षुब्ध हो गया। अब वह यहां रहेगा तो किसके सहारे! एक गुरुदेव का ही सहारा था। किन्तु वे विरक्त हैं। उन्हें मोह-माया नहीं भाती। जाते हो जाओ, आते हो आओ, उन्हें जैसे किसी से कोई मतलब ही नहीं।
किन्तु बिहारी उठा नहीं, गुरुदेव ने कुछ समझकर पूछा, "क्यों? तू दुखी-सा कैसे लगता है? पिता को गए कई दिन हो गए। अभी तक तेरा मन शान्त नहीं हुआ?"
बिहारी को लज्जा हुई। वह कुछ और ही कहने आया था। सिर झुकाकर कहा, “गुरुदेव! मेरा यहां कोई सगा-सम्बन्धी नहीं! मैं अकेला हूं।"
“क्यों तेरी बहू यहां नहीं है?"
"वह तो है। उसकी तबीयत ठीक नहीं है। इसीसे..."
बोले नहीं। सुनते रहे।
बिहारी ने अटक-अटककर कहा, “सोचता था कि मथुरा चला जाऊं।"
विरक्त ने चौंककर कहा, “ससुराल!"
"हां," बिहारी समझा नहीं, “ससुराल से चिट्ठियां आती हैं-परदेश में तुम दोनों अकेले मत रहो। समय-कुसमय में काम आनेवाला वहां कोई नहीं।"
गुरुदेव ने सुना और कहा, “अच्छा, जा! जीवन का नाम अनुभव है। तू कवि है। तू जहां भी जाएगा, उससे तुझे लाभ ही होगा। पर एक बार मुझे अपना गीत सुना जा।"
बिहारी तम्बूरा उठा लाया।
ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी।
बिहारी ने गाया :
"रनित भृंग घंटावली, झरत दान मधुनीर ।
मन्द-मन्द आवत चल्यौ, कुंजर कुंज समीर।।"
मन्द-मन्द आवत चल्यौ, कुंजर कुंज समीर।।"
चित्रोपम भाषा, ध्वन्यात्मक शब्दावली और गत्यात्मक चित्रात्मकता में सांगरूपक और पुनरुक्ति अलंकार का सौन्दर्य वहां बिखर गया। गुरुदेव ने देर तक सुना, फिर कहा, "बिहारी!"
"गुरुदेव!"
"जीवन का लक्ष्य क्या है, जानता है?"
"गुरु-सेवा!"
"नहीं!"
"परिवार-पालन!"
"यह सब बीच के माध्यम हैं। अंत्य क्या है?"
"नहीं जानता, गुरुदेव!"
"भगवान के चरणों में जाना।"
बिहारी मूक बैठा रहा।
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