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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


"कर ली!" काका नींद से जागे, “हाय-हाय! हिंदुवानी की शान तो राणा कीका थे-इन राणा के पिता-महाराणा प्रताप! घास की रोटी खा ली पर सिर न झुकाया!" फिर सोचकर बोले, “पर विधाता से कौन कब तक टकराए!"

अतिथि ने बिहारी से कहा, "तो कुछ सुनाइए।"
“नहीं, नहीं," बिहारी ने संकोच से कहा, "मैं क्या..."
"अरे!" काका ने कहा, "नहीं, नहीं क्यों करते हो! दिन-भर कागज काले करते हो बैठे-बैठे। अब कुछ पता तो चले कि क्या लिखते हो? यह जानकार हैं, इन्हें सुनाओ!"

बिहारी का मुख अपमान से लाल हो गया। पर वह जानता था कि बात बढ़ेगी तो न जाने कहां ठहरेगी। इसलिए पी गया। मुस्कराकर कहा, “आपकी रुचि किधर है?"
अतिथि ने कहा, “ये हम कैसे बता दें!"
"सुनिए!" बिहारी ने कहा। और स्वर से सुनाया : 

"बसै बुराई जासु तन, ताही कौ सनमानु।
भले-भले कहिए छोड़िए, खोटे ग्रह जपु-दानु!"


अतिथि सहसा ही चौंक उठे। बोले, “दृष्टान्तालंकार है। अच्छा कहा है। है न वही?"

फिर अविश्वास से देखा कि चोट किस पर है। काका समझ नहीं रहे थे। बोले, "भाई दोहे में रस नहीं आता। हमें तो सूर का पद भाता है। और सूर भी क्या! कवि तो कबीरदास थे, चन्द थे! जो कविता संस्कृत में है सो भाषा में कहां? अहा! भर्तृहरि! अमरुक! आनन्दवर्द्धन! अहा! काव्य तो शृंगार है, शृंगार! रसों का राजा ठहरा!"

काका की बात सुनकर बिहारी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उसने कहा :

"भई जु तनु छवि वसनु मिलि, बरनि सबै सु न बैन।
अंग ओपु आंगी दुरी, आंगी आंग दुरै न!'
(उसके तन की छवि वस्त्रों से मिलकर बढ़ गई है। चोली उसके शरीर के रंग में मिलकर , छिप गई है, परन्तु (उभार के कारण) अंग चोली में नहीं छिपते।)

'अहाहा!" काका ने कहा, “अरे बिहारीलाल! तुम तो बड़े जोरदार निकले। उपमा और स्वभावोक्ति का गजब कर दिया।"

बिहारी ने विनय से कहा, “मीलित, विशेषोक्ति और अनुप्रास!"
अतिथि हंसे। काका अप्रतिभ हुए। बोले झेंपकर, “यह तुम्हारा ही है?"

"मरतु प्यास पिंजरा परयो, सुआ समै के फेर।
आदर, दै दै बोलियतु, बाइस बलि की बेर।।

(समय के फेर से तोता पिंजरे में प्यासा मर जाता है, पर श्राद्धपक्ष में कौए भी आदर से बुलाए जाते हैं।)

भाभी के भैया के मुख पर एक अपमान की लहर-सी दौड़ गई। बिहारी को सुख हुआ। उसने स्वयं कहा, “इसमें तो अनुप्रास की छटा लगती है। अन्योक्ति भी!"

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